हालुतबनी आंगनबाड़ी केन्द्र का अभिनव प्रयोग खिचड़ी से रौशन होता बचपन

सुधीर पाल



लिफ़ाफा देखकर खत के मजमून को भांपने की कला यहाँ क्षीण पड़ जाती है. आंगनबाड़ी केन्द्रों को लेकर हमारे-आपके मन  में पल रहे पूर्वाग्रह यहाँ उलटे साबित हो जाते हैं. पक्क्की सडक से थोड़ी दूर पर अवस्थित यह आंगनबाड़ी अन्य केन्द्रों से अलग है. साफ़-सफाई और करीने से सजा यह केन्द्र बच्चों को आकर्षित करता है. अपनी दुनिया में मस्त बच्चे खेलते-कूदते नज़र आ जायेंगे.
हालुतबनी में अवस्थित इस आंगनवाडी केन्द्र के बच्चे यहाँ के खिचड़ी के दीवाने हैं. घरों में खाने के लिए घंटों अपनी माताओं को परेशान करने वाले ये बच्चे आंगनबाड़ी में बिना ची-पों के घंटों आराम से रहते हैं तो उसकी एक वजह खिचड़ी है. पूर्वी सिंहभूम के घाटशिला ब्लाक के आदिवासी बाहुल्य हेंड़ेलजुडी पंचायत के इस आंगनवाडी केन्द्र की सहायिका डूगनी मुर्मू कहती हैं- बच्चे खिचड़ी के दीवाने हैं.
समुदाय आधारित पोषण पहल के तहत स्वयंसेवी संस्था सी. डब्लू. एस. विगत कई सालों से कुपोषण के खिलाफ जंग में लोगों को स्थानीय साग-सब्जियों को खान –पान में शामिल किये जाने को प्रोत्साहित कर रहा है. सी डब्लू एस संस्था की समन्यवक राज लक्ष्मी कहती हैं – गोभी, पालक, मटर, शिमला मिर्च, गाजर और आलू जैसी सब्जियां रोजमर्रा की जिंदगी से जुड़ी कुछ ऐसी सब्जियां हैं, जिसका प्रचलन सभी जगह है. लेकिन हमारे जंगलों में पाए जाने वाले साग-सब्जियों को लेकर लोगों में रूचि नहीं थी. पोषण से भरपूर होने के बावजूद ये साग-सब्जियां लोकप्रियता हासिल नहीं कर सकी और ना ही लोगों के रोज के खाने में शामिल हो पाया. जबकि एक समय यह जनजातीय समुदायों के भोजन का एक अहम हिस्सा था.
हालुतबनी के आंगनवाडी केन्द्र में बच्चों को दी जाने वाली खिचड़ी में सालंती साग, खपरा साग, कुईल खेड़ा साग, चाल्दुहा साग सहित दर्जनों जंगली साग-सब्जियां होती है. ये साग-सब्जियां पौष्टिक गुणों से युक्त होने के साथ-साथ भोजन में विविधता को बढ़ावा दे रही हैं. आंगनवाडी केन्द्र की सहायिका डूगनी मुर्मू कहती हैं- संस्था के सहयोग से हम यहाँ खान-पान को लेकर कई नये-नए प्रयोग करते रहते है. यहाँ ज्यादातर बच्चे आदिम जनजाति शबर समुदाय से हैं. जंगल शबर समुदाय की आजीविका और आहार का आधार है. जंगलों से वे विविध किस्म के कंद -मूल, साग- सब्जियां, फल-फूल लेते हैं. लेकिन सरकारी योजनाओं में इससे अलग किस्म के खाद्यानों की वजह से उनके खान-पान का वैविध्य बिगड़ गया है.
भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के शोधकर्ताओं ने झारखंड के स्थानीय आदिवासियों द्वारा उपयोग की जाने वाली पत्तेदार सब्जियों की 20 ऐसी प्रजातियों की पहचान की है, जो पौष्टिक गुणों से युक्त होने के साथ-साथ भोजन में विविधता को बढ़ावा दे सकती हैं. शोधकर्ताओं का कहना है कि पोषण एवं खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने में भी सब्जियों की ये स्थानीय प्रजातियां मददगार हो सकती हैं. हैरानी की बात यह है कि इनमें से अधिकतर सब्जियों के बारे में देश के अन्य हिस्सों के लोगों को जानकारी तक नहीं है.
अध्ययन के दौरान रांची, गुमला, खूंटी, लोहरदगा, पूर्वी एवं पश्चिमी सिंहभूमि, रामगढ़ और हजारीबाग समेत झारखंड के सात जिलों के हाट (बाजारों) में सर्वेक्षण कर वहां उपलब्ध विभिन्न मौसमी सब्जियों की प्रजातियों के नमूने एकत्रित किए हैं. इन सब्जियों में मौजूद पोषक तत्वों, जैसे- विटामिन-सी, कैल्शियम, फॉस्फोरस, मैग्निशयम, पोटैशियम, सोडियम और सल्फर, आयरन, जिंक, कॉपर एवं मैगनीज, कैरोटेनॉयड्स और एंटीऑक्सीडेंट गुणों का पता लगाने के लिए नमूनों का जैव-रासायनिक विश्लेषण किया गया है.
विटामिन, खनिज और एंटीऑक्सीडेंट गुणों से भरपूर जनजातीय इलाकों में पायी जाने वाली ये पत्तेदार सब्जियां स्थानीय आदिवासियों के भोजन का अहम हिस्सा होती हैं. इनमें प्रचुर मात्रा में कैल्शियम, मैग्निशयम, आयरन, पोटैशियम जैसे खनिज तथा विटामिन पाए गए हैं. इन सब्जियों में फाइबर की उच्च मात्रा होती है, जबकि कार्बोहाइड्रेट एवं वसा का स्तर बेहद कम पाया गया है.
सब्जियों की इन प्रजातियों में लालगंधारी, हरीगंधारी, कलमी, बथुआ, पोई, बेंग,  मुचरी, कोईनार  मुंगा, सनई, सुनसुनिया, फुटकल, गिरहुल, चकोर, कटई/सरला, कांडा और मत्था इत्यादि शामिल हैं. ये सब्जी प्रजातियां झारखंड के आदिवासियों के भोजन का प्रमुख हिस्सा हैं. शोधकर्ताओं ने पाया है कि जनजातीय लोग लाल गंधारी, हरी गंधारी और कलमी का भोजन में सबसे अधिक उपयोग करते हैं.
सब्जियों को साग के रूप में पकाकर, कच्चा या फिर सुखाकर खाया जाता है. सुखाकर सब्जियों का भंडारण भी किया जाता है, ताकि पूरे साल उनका भोजन के रूप में उपभोग किया जा सके. सी डब्लू एस संस्था की समन्यवक राज लक्ष्मी कहती हैं –इन सब्जियों की उपयोगिता के बावजूद इन्हें गरीबों एवं पिछड़े लोगों का भोजन माना जाता है, और व्यापक रूप से कृषि चक्र में ये सब्जियां शामिल नहीं हैं. जबकि, सब्जियों की ये प्रजातियां खाद्य सुरक्षा, पोषण, स्वास्थ्य देखभाल और आमदनी का जरिया बन सकती हैं. एक महत्वपूर्ण बात यह है कि बेहद कम संसाधनों में इनकी खेती की जा सकती है.
25 वर्षीय गुलाबी शबर बताती है कि सी डब्लू एस संस्था ने हमें साफ़-सफाई, बिना फ़र्टिलाइज़र की खेती और तिरंगा भोजन खाने को प्रोत्साहित किया. अव्वल तो शबर खेती ही नहीं करते थे और करते भी तो केवल धान. लेकिन संस्था से जुड़ने के बाद शबर परिवारों में खेती के प्रति रूचि बढ़ी है. अब धान के साथ-साथ अरहर, मसूर दाल, तथा सब्जियां भी शबर उगा रहे हैं. इस पंचायत के ६० शबर परिवारों में सभी कुछ ना कुछ खेती करते हैं. खेती के साथ-साथ जंगलों से मिलने वाले साग-सब्जियां भी हमारे दैनिक भोजन में शामिल हो गया है. जंगल से खुखड़ी, पिपड़ी साग, गर्मी के दिनों में आम तथा मौसमी कांड-मूल ये कमोबेश सभी शबर परिवारों के भोजन का हिस्सा हो गया है.
खेती-बाड़ी के साथ-साथ सी डब्लू एस संस्था की ओर से इन्हें मुर्गी, बत्तख और बकरी भी दिलवाया गया है. संस्था के अम्बुज कुमार कहते हैं- प्रोटीन की जरूरत को पूरा करने में यह सहायक साबित हो रहा है.
आंगनवाडी केन्द्र की सहायिका डूगनी मुर्मू कहती हैं- हम केवल सरकारी राशन पर निर्भर नहीं हैं. गाँव के सभी बच्चे हमारे हमारे हैं और गाँव की सामुदायिक भागीदारी से हम बच्चों के पोषण को बेहतर बना रहे हैं. यही कारण है कि केन्द्र के ३२ बच्चों में से सिर्फ 5 बच्चे ही लाल की श्रेणी में चिन्हित हुए थे और अब कुपोषण उपचार केन्द्र और नियमित खान-पान से वे भी दुरुस्त हैं.
इसमें दो राय नहीं कि आदिवासी खानपान में ऐसे साग, कंदमूल, खाद्यान्न एवं औषधिय गुण युक्त भोजन शामिल हैं जो प्राकृतिक रूप से शरीर की प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाने में सक्षम हैं. आदिवासियों के खान-पान में मुख्य रुप से जंगल,जमीन से मिलने वाले खाद्य पदार्थ शामिल होते हैं. इनमें एमिनो एसिड, विटामिन सी, आयरन, फोलिक एसिड की मात्रा पर्याप्त होती है जिससे उनकी प्रतिरोधक क्षमता प्राकृतिक रूप से बढ़ती है.