घुमंतू पशुपालक और वनाधिकार कानून :बस रात के आसरा के लिए संघर्ष

सुधीर पाल/ छंदोंश्री 



सुधीर पाल/ छंदोंश्री 

उन्हें पता है 
भेड़ों का मिजाज 
हर सातवें पहर
चाकबड़ और सरफोका के
नए पत्ते चाहिए 
और चाहिए नए घाट का पानी

वे घास मांगते हैं
जमीन नहीं 
रास्ता मांगते हैं 
सड़क नहीं
बस रात का आसरा 
मांगते हैं 
छत नहीं 

उन्हें क्या पता 
कितनी भारी है
उनकी बेहद छोटी-सी यह ख़्वाहिश

ज़मीन से कटा आदमी
गले तक जमीन में धंसा आदमी
सब कुछ धर-दबोचने की
जुगत में रहता है हमेशा

जंगल के बिना घुमंतू पशुपालन संभव नहीं है। जंगल से अलग करने से घुमंतू पशुपालन खत्म हो जाएगा। ऑर्गेनिक खाना हम सब लोगों को भूल जाना होगा। वन अधिकार कानून, 2006 आदिवासी और अन्य परंपरागत समुदायों को वनों पर हक देता है। कानूनी मान्यता देता है, उनकी परंपरा को मान्यता देता है, अधिकार देता है। वन अधिकार कानून की धारा 3(1)(d) की अगर बात करें तो घुमंतू पशुपालकों के परंपरागत हक को बहाल  करता है। वन अधिकार कानून की धारा में स्थापित या यायावर दोनों समुदायों को चारागाह के उपयोग या उन पर हकदारी और मौसमी संसाधनों तक पहुँच के अन्य सामुदायिक अधिकार को मान्यता दी गई है। लेकिन हिमाचल प्रदेश और गुजरात को छोड़कर देश में घुमंतु पशुपालकों को जंगल पर अधिकार देने के मामले में कहीं कोई प्रगति नहीं हुई है। 

ज्यादातर घुमंतू समुदायों वन अधिकार कानून के बारे में जानकारी नहीं है। कई राज्यों में वन विभाग ने घुमंतू समुदायों के वन में प्रवेश पर रोक लगा राखी है। पहले घुमंतू पशुपालकों को प्रति पशु के हिसाब से एक निश्चित शुल्क देकर वन विभाग से परमिट लेना पड़ता था। यह व्यवस्था भी खत्म कर दी गई है। वन विभाग की मान्यता है कि घुमंतू पशुपालकों की वजह से वन की जैव विविधता को खतरा है। जबकि घुमंतू पशुपालक एक इंच जमीन भी नहीं मांगते हैं, वे केवल रास्ता मांगते हैं, जमीन का घास मांगते हैं और कुछ दिन जंगल में रुकने के लिए जगह मांगते हैं। वनों पर घुमंतू पशुपालकों का अधिकार पशुओं के भोजन के अधिकार से भी जुड़ा हुआ है। विडंबना देखिए की देश की लगभग एक प्रतिशत आबादी घुमंतू पशुपालकों की होने के बाद भी सरकारी दस्तावेज में ना इनका नाम है , ना पहचान और ना ही अर्थव्यवस्था में इसके योगदान की कोई मान्यता है। भारत सरकार का एनिमल हसबेंडरी मंत्रालय पहली बार घुमंतू पशुपालकों और घुमंतू जानवरों के सेन्सस के लिए राजी हुआ है। घुमंतू जानवरों की देश की इकोनॉमी में कंट्रीब्यूशन की जानकारी के लिए एक स्टडी कराने के लिए मिनिस्ट्री ऑफ एनिमल हसबेंडरी तैयार हुआ है। 

2020 में भारत सरकार के जनजातीय कार्य मंत्रालय ने घुमंतू पशुपालकों को वन अधिकार कानून के अंतर्गत प्राप्त परंपरागत अधिकारों को मान्यता देने के लिए एक एक्सपर्ट कमेटी गठित की थी। इन पंक्तियों के लेखक भी उस कमेटी के सदस्य थे। एक्सपर्ट कमेटी की जिम्मेवारी थी कि वन अधिकार कानून के तहत घुमंतू पशुपालक को वन में अधिकार की जो परंपरा है, उसे मान्यता कैसे दी जाए, इस संबंध में एक मार्गदर्शिका तैयार की जाए। एक्सपर्ट कमेटी ने मिनिस्टरी  ऑफ़  ट्राईबल अफेयर्स को अपनी रिपोर्ट 2021 में सौंप दी है। विडंबना देखिए कि एक्सपर्ट कमेटी की रिपोर्ट अब भी मंत्रालए में धूल फांक रही है। रिपोर्ट  पर अभी तक कोई अग्रतर कार्यवाही नहीं हुई है। घुमंतू समुदायों की एकमात्र मांग है, उनके मवेशियों को वन भूमि पर निर्बाध चराई का अधिकार मिले। वह सम्मान पूर्वक और गरिमा के साथ घुमंतू पशुपालकों के साथ जीवन-यापन कर सके। जंगल में बिना रोक-टोक, बिना किसी परेशानी के, बिना भय के आवाजाही कर सके। ताकि घुमंतू पशुपालन का पेशा और परंपरा बची रहे।  

वन अधिकार कानून में घुमंतू पशुपालकों का अधिकार एक महत्वपूर्ण अधिकार है। वन अधिकार कानून और घुमंतू पशुपालकों के समुदाय का संबंध मूलतः वन में रहने वाले आदिवासी और गैर आदिवासी समुदायों से है। वनाधिकार कानून के लागू होने के बाद भी यह देखा जा रहा है कि वन विभाग के रवैये में बदलाव नहीं आया है बल्कि पहले की तुलना में ज्यादा अड़चनें की जा रही है। वन विभाग अपने तमाम फॉरेस्ट कानून के मार्फत घुमंतू  पशुपालकों को जंगल में घुसने से रोकता है। जबरन परेशान करता है। देखा जाए तो देश में करीब 7000 वन ग्राम हैं। इन वन ग्रामों में आदिवासी भी हैं और गैर आदिवासी भी। दो समुदायों को वन अधिकार कानून के तहत अभी भी मान्यता नहीं मिली है। इसमें एक घुमंतू नोमेडिक समुदाय है और दूसरा वन ग्राम में रहने वाले लोग। ये दोनों समुदाय परंपरागत अधिकारों की मान्यता के लिए लगातार संघर्ष कर रहे हैं। वन अधिकार के प्रभावी क्रियान्वयन के लिए जरूरी है कि इन समुदायों के हकों को मान्यता मिले। यह कानून पूर्णतया ऐतिहासिक अन्याय को खत्म करने की वकालत करता है लेकिन इस कानून को लागू करने वाली अधिकृत संस्थाएं खुद इस ऐतिहासिक अन्याय को खत्म करने के पक्ष में नहीं दिखती है। 

वनाधिकार कानून ग्राम सभा को व्यक्तिगत या सामुदायिक वन अधिकारों या दोनों कि प्रकृति और सीमा को अवधारित करने के लिए प्रक्रिया आरंभ करने को प्राधिकृत करता है। ग्राम सभा यह काम अपनी कार्यकारी एजेंसी वन अधिकार समिति के मार्फत यह कार्य करती है। वन अधिकार समिति वन आश्रित समुदायों के दावे को स्वीकार करते हुए उनके समेकन,सत्यापन, दावे के क्षेत्रफल का अंकन और मानचित्रण कर ग्राम सभा को संकल्प पारित करने के लिए दस्तावेज समर्पित करती है। ग्राम सभा अपनी अनुशंसा अनुमंडल स्तरीय समिति को अग्रेसित करती है। वन अधिकार कानून में घुमंतू पशुपालकों के परंपरागत अधिकार को मान्यता दी गई है। लेकिन ज्यादातर जगहों से शिकायतें मिल रही है कि मान्यता देने की प्रक्रिया आगे नहीं बढ़ रही है। घुमंतू पशुपालकों के मामले में ना तो अनुमंडल स्तरीय समिति को और ना ही जिला स्तरीय समिति को मान्यता देने की प्रक्रिया का अनुभव और अभ्यास है। इस संबंध में स्पष्ट निर्देश, आदेश और मार्गदर्शन का अभाव है। हिमाचल प्रदेश के अक्षय बताते हैं कि कांगड़ा में डीएलसी को समझ ही नहीं आ रहा है कि परंपरागत तौर पर सदियों से इन इलाकों में जो घुमंतू पशुपालक आते हैं, कुछ समय जंगल में बिताते हैं, उनके परंपरागत अधिकारों को मान्यता कैसे दी जाए? घुमंतू पशुपालकों की निर्भरता एक से ज्यादा वनों पर है। उनकी परंपरागत सीमा का दायरा कई बार दर्जनों जंगल और एक से ज्यादा गांव होते हैं। कानून के मुताबिक गांव की ग्राम सभा का दायित्व है कि वह मान्यता देने की प्रक्रिया  करे। घुमंतू पशुपालकों के ज्यादातर दावे अंतर जिला दावों के अंतर्गत आते हैं। कहने का मतलब है कि उनकी जंगल यात्रा किसी एक जिले की सीमा तक सीमित नहीं होती है। वन पर उनकी परंपरागत आवाजाही एक जिले से दूसरे,तीसरे, चौथे जिले तक की होती है।और कई बार परंपरागत आवाजाही की यह सीमा राज्य की सीमा को लांघती है।

अगर झारखंड की बात करें तो यहाँ के घुमंतू पशुपालक गड़ेरी समुदायों का वास्ता मूलतः गढ़वा और पलामू जिले से है। यहाँ इस समुदाय की बड़ी आबादी है और उनके पास आज भी लाखों भेड़ें है। साल के लगभग सात महीने ये जंगलों और मैदानों में अपने मवेशियों के साथ रहते हैं। रांची की संस्था लिव फाउंडेशन ने झारखंड के घुमंतू पशुपालकों के परंपरागत माइग्रेशन रूट का अध्ययन किया है। संस्था की प्रमुख छंदोश्री बताती हैं कि झारखंड के गड़ेरी सौ सालों से ज्यादा समय से एक ही रूट से माइग्रैट करते रहे हैं। गढ़वा-पलामू के घुमंतू पशुपालक अपनी यात्रा में करीब 26 छोटे-बड़े जंगल और दर्जनों गाँव में कुछ रातें गुजारते हैं।उनकी यह यात्रा अपने जिले से शुरू होकर पड़ोसी राज्य छतीसगढ़ के जंगलों तक जाती है।समुदाय के लोगों की परंपरागत आवाजाही का मार्ग बंगाल और उड़ीसा भी है। इसी प्रकार जम्मू-कश्मीर के बकरवाल अपने भेड़ों और बकरियों के साथ अंतरराष्ट्रीय सरहद भी लांघते हैं।घुमंतू पशुपालकों की दुनिया एक राज्य तक सीमित नहीं है। घुमंतू पशुपालकों के अंतर राज्य दावों की प्रक्रिया को लेकर कोई स्पष्ट गाइडलाइन या मार्गदर्शी भारत सरकार के जनजातीय मंत्रालय की ओर जारी नहीं किया गया है। किस ग्राम सभा के द्वारा उनके दावे की प्रक्रिया शुरू की जाएगी, यह यक्ष प्रश्न है।  जिला स्तरीय समितियां दावों की प्रक्रिया कैसे करेगी यह पता नहीं है। जनजातीय कार्य मंत्रालय ने घुमंतू पशुपालकों के वन अधिकारों की मान्यता की प्रक्रिया की रूपरेखा तय करने के लिए एक कमेटी गठित थी और कमेटी ने अनुशंसा की है कि घुमंतू पशुपालक मूल रूप से जिस गांव में रहते हैं, उस गांव की ग्राम सभा दावों की प्रक्रिया शुरू करने के लिए अधिकृत होगी। राज्य की सीमा के भीतर अंतर जिला स्तरीय समिति के मामले में राज्य स्तरीय अनुश्रवण समिति को यह अधिकार है कि वह ऐसे दावों के मामले में स्वयं प्रोटोकॉल विकसित करे।   

मंत्रालय के एक्सपर्ट कमेटी ने अनुशंसा की है कि घुमंतू पशुपालकों के मामले में जिला स्तरीय समिति का दायित्व होगा कि वह घुमंतू पशुपालकों के दावों को लेकर आगे बढ़े। जिला स्तरीय समिति का दायित्व होगा कि वह अंतर जिला या अंतर राज्य के मामले में तथा दूसरे जिले या दूसरे राज्य के जिला स्तरीय समितियों के साथ समन्वय बनाए ताकि उनके अधिकारों को मान्यता दी जा सके। घुमंतू पशुपालकों के दावों कि प्रक्रिया में एक बड़ी चुनौती उनका अलग-अलग समुदाय से वास्ता है। देश के किसी हिस्से में वे आदिवासी हैं तो किसी हिस्से में गैर-आदिवासी,किसी हिस्से में दलित हैं तो उत्तराखंड में वन गुर्जर  अल्पसंख्यक समुदाय से आते हैं।कानूनी प्रावधान के बावजूद देखा जा रहा है कि आदिवासी समुदायों के परंपरागत अधिकारों को थोड़ी आसानी से इस कानून के अंतर्गत मान्यता दे दिया जा रहा है लेकिन अन्य परंपरागत वन आश्रित समुदायों के मामले में जिला स्तरीय समिति या एसडीएलसी या इस कानून के जो दूसरे स्टैक होल्डर हैं, उतनी संजीदगी से विचार नहीं कर पाते हैं। यही कारण है कि घुमंतू पशुपालकों को महज कुछ रात काटने के और मवेशियों के मौसमी चराई के लिए जंगल में आवाजाही जैसे सामान्य से अधिकार की भी मान्यता नहीं मिल पा रही है।

जम्मू कश्मीर में गुर्जर और बकरवाल मुख्य घुमंतू पशुपालन समुदाय हैं। कम संख्या में चौपान समुदाय के लोग हैं। इनका मुख्य पेशा भेड़ पालन है। चौपान समुदाय मूलतः यहाँ के जमींदारों की भेड़ें पालती है। जम्मू-कश्मीर के एक प्रमुख यूट्यूब संचालक जावेद राही बताते हैं कि वनाधिकार कानून से पहले फॉरेस्ट एक एक्ट 1931 से प्रचलन में रहा है। इस कानून के तहत जंगल में चराई और आवाजाही के लिए फॉरेस्ट डिपार्ट्मन्ट प्रति बकरी- भेंड की दर से पशुपालकों से टैक्स वसूलती थी लेकिन इस इस टैक्स के दायरे में घोड़े और गायें नहीं आती थी।यहाँ का राजा हिंदू था, हिन्दू धर्म में गायों का अलग महात्म्य है, इसलिए इन्हे टैक्स मुक्त रखा गया। घोड़ा राजा का सवारी था, राजा घोड़ा का इस्तेमाल करता था, इसलिए घोड़े भी टैक्स के दायरे से बाहर थे। उन दिनों चराई की जमीन का ठेका देने का प्रावधान था। कानून तीन दीवारों के मकान बनाने की इजाजत घुमंतू पशुपालकों को देता था। जम्मू कश्मीर घुमंतू पशुपालकों के मौसमी पलायन का प्रमुख स्थल है। यहां के जंगलों में हर साल छह लाख से ऊपर घुमंतू पशुपालकों की मौसमी आवाजाही होती है। केंद्र सरकार द्वारा धारा 370 हटा लेने के बाद यहाँ वनाधिकार कानून, 2006 लागू हुआ। जावेद बताते हैं कि 2020 में काफी शोरगुल के बाद अभियान चलाकर पूरे जम्मू- कश्मीर में एक महीने के भीतर वन अधिकार कानून के तहत ग्राम वन अधिकार समितियों का गठन कर लिया गया। ज्यादातर ग्रामों में कमेटी के गठन के लिए ग्राम सभा के आवश्यक सदस्यों की निर्धारित संख्या का कोरमा भी पूरा नहीं हुआ है। कमेटी में दो तिहाई आदिवासी समुदाय और एक तिहाई महिला होने की वैधानिक अनिवार्यता का ध्यान नहीं रखा गया। गवर्नर के एक टाइम फ्रेम में क्लेम प्रक्रिया खत्म करने के निर्देश के दबाव में 90 फ़ीसदी सामुदायिक दावों को कब्रिस्तान और रास्ते तक सीमित कर दिया गया। मौसमी पलायन कर जंगलों में थोड़े समय आश्रय लेने की घुमंतू पशुपालकों की परंपरागत अधिकार को वनाधिकार कानून के तहत मान्यता देने की दिशा में कोई पहल अब तक नहीं हुई है। 

देशी नस्ल के गाय एवं भैंसों को संरक्षित करने के लिए प्रतिबद्ध श्री ब्रीडर्स संगठन के प्रेसिडेंट विष्णु क्षेत्री कहते हैं कि सिक्किम में मुख्यत: भूटिया, किरात एवं खरास तीन घुमंतू पशुपालक समुदाय हैं। भूटिया समुदाय का याक के साथ, किरात समुदाय सिरी गायों एवं भेड़ों के साथ तथा गुरु गोरखनाथ के अनुयायी गोरखा समुदाय का खरास नस्ल के मवेशियों के साथ जुड़ाव है। गर्मी के दिनों में घुमंतू पशुपालक अपने मवेशियों के साथ हिमालय में चले जाते हैं और जब सर्दियां आती हैं तो नीचे मैदानी इलाकों में ठौर तलाशते हैं। काजीरंगा राष्ट्रीय उधान कभी घुमंतू पशुपालकों को आश्रय हुआ करता था। लेकिन 2200 से अधिक एक सींग वाले गैंडों का घर होने के चलते यहां मवेशियों का प्रवेश बंद कर दिया गया है। विष्णु कहते हैं घुमंतू पशुपालकों के अधिकारों की कोई बात ही यहाँ नहीं होती है। गोरखालैंड टेरिटोरियल काउंसिल में इस पर बातें हो रही है लेकिन सिक्किम में वन अधिकार कानून बेहतर तरीके से लागू नहीं हो पाया है। गोचर की जमीन को गैर चराई कार्यों में इस्तेमाल किया जा रहा है। कुछ जगहों पर गोचर की जमीन पर आधारभूत संरचना खड़ी कर दी गई है जो पूर्णतः गैर- कानूनी है। सैकड़ों वर्षों से जो घुमंतू हैं उन्हें उनका अधिकार नहीं मिल पा रहा है। अभी भी घुमंतू पशुपालकों की तीन - चार हजार आबादी ऐसी है जो जंगलों में ही सालों भर रहती है, जंगल से बाहर की दुनिया से उनका वास्ता ही नहीं है।

राजस्थान में राईका समुदाय के 16000 से ज्यादा घुमंतू पशुपालक हैं। राईका समुदाय के घुमंतू पशुपालक वन विभाग के रवैये से परेशान रहते हैं। मवेशियों को चराने के बदले वन विभाग के अधिकारी इन पशुपालकों से टैक्स लेते हैं और साथ-ही- साथ उनके बकरे भी ले लेते हैं। 2002 में सुप्रीम कोर्ट ने जंगल में गैर वानिकी की सभी गतिविधियों को गैरकानूनी घोषित कर दिया था। इस आदेश में चराई पर कुछ नहीं कहा गया था। लेकिन फॉरेस्ट डिपार्टमेंट ने इसी आदेश के आधार पर चराई को बंद कर दिया। 2003 में सेंट्रल एंपावर्ड कमेटी ने भी कहा कि चराई बंद रहेगा। कुंभलगढ़ वन्य जीव अभयारण्य का नाम कुंभलगढ़ के प्रभावशाली ऐतिहासिक किले के नाम पर रखा गया है। अभयारण्य के अंदर 22 गांव स्थित हैं। अभयारण्य के जंगल मूलतः महाराज का हंटिंग एरिया हुआ करता था। 1971 में वाइल्डलाइफ सैंक्चुअरी बना दिए जाने की वजह से राईका समुदाय के परंपरागत अधिकार खत्म कर दिए गए। 

राजस्थान में घुमंतू पशुपालकों ने 2012 में सामुदायिक वन अधिकार पट्टा के लिए  दावों की प्रक्रिया शुरू की। बड़ी मेहनत कर ग्राम सभाओं ने एसडीएलसी तक अपनी दावेदारी के साक्ष्य सहित दस्तावेज पहुंचाई। लेकिन इन पंक्तियों के लिखे जाने तक किसी भी फाइल पर कोई अग्रतर कार्यवाही नहीं की। सामुदायिक वन अधिकार के दावों को सृजित करने में महीनों लगते हैं और उसके बाद भी यह गारंटी नहीं है कि सृजित दावों का सकारात्मक परिणाम निकलेगा ही। घुमंतू पशुपालक समुदायों का कहना है कि जोधपुर और आसपासस के इलाके में 43 ग्रामों ने नेशनल पार्क बनाए जाने से पहले चराई के अधिकार के पट्टे दिए जाने की मांग की थी। लेकिन ग्रामीणों की मांग के बावजूद उनके चराई के अधिकार को अप्रूव नहीं किया गया बल्कि टूरिज्म को बढ़ावा देने के लिए होटल और उससे जुड़ी गतिविधियों को बढ़ावा दिया गया। हनुमंत सिंह राठौर कहते हैं कि किसी के दिमाग में नहीं आया कि अंततः घुमंतू पशुपालक जाएंगे कहां ? इन गांव जंगलों में घुमंतु पशुपालक समुदायों के परंपरागत अधिकार हैं। काफी पहले जोधपुर महाराज ने घुमंतू पशुपालन समुदाय को ताम्रपत्र दिया था। इसे गोदारा कहा जाता है। गोदारा के तहत घुमंतू पशुपालकों के जंगल में आवाजाही और चराई के परंपरागत अधिकार को बहाल रखा गया था।अब उस जमीन और जंगल को वन विभाग ने टाइगर रिजर्व के लिए आरक्षित घोषित कर दिया है और घुमंतुओं के पारंपरिक अधिकार खत्म कर दिए गए। 

इधर राजस्थान सरकार की 1 फरवरी, 2024 को जारी की गई अधिसूचना में सरकार ने घोषणा की है कि सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के मुताबिक ओरण, देव वन (पवित्र वन) और रूंड (पारंपरिक रूप से संरक्षित खुले वन) को डीम्ड फॉरेस्ट का दर्जा दिया जाएगा। अधिसूचना में इस बारे में स्थानीय लोगों से आपत्तियां और मुद्दे भी आमंत्रित किए गए हैं।

जैसलमेर के सावता के रहने वाले सुमेर सिंह ने बताया कि उनके समुदाय ने “गोचर ओरण संरक्षक संघ राजस्थान” संगठन के प्रतिनिधित्व के जरिए सरकार के इस फैसले पर आपत्ति जताई है। वह कहते हैं, “देगराय ओरण हमारे गांव के कम से कम 5,000 ऊंटों और 50,000 भेड़ों का पालन-पोषण करता है।” गांव के लोग भी गोंद, लकड़ी, वन उपज और जंगली सब्जियों के लिए जंगल पर ही निर्भर हैं। यह जंगल उनकी आजीविका और दैनिक जरूरतों के लिए बहुत महत्वपूर्ण है।


लोगों को डर है कि अगर ओरण को डीम्ड फॉरेस्ट घोषित किया जाता है, तो कहीं वे अपनी कम्यूनिटी के लिए वन उपज और भेड़ों के लिए चारागाह खो न दें। सिंह कहते हैं कि कुछ लोगों के घर ओरण के करीब स्थित हैं। अगर राज्य के वन विभाग ने वन को कब्जे में लिया तो लोगों को घर खाली करना पड़ सकता है। इसके साथ ही अंतिम संस्कार और धार्मिक कार्यक्रमों का आयोजन भी ओरण में ही किया जाता है। लोग यहां के पेड़ों, झील, तालाबों, जंगल की हर एक चीज से गहराई से जुड़े हैं।

गुजरात में घुमंतू पशुपालकों की स्थिति अन्य राज्यों से बेहतर नहीं है। गुजरात में घुमंतू पशुपालन से जुड़े समुदायों को लग रहा था कि वन अधिकार कानून से कोई बड़ा बदलाव आएगा और उनके दुख भरे दिन बीत जायेंगे, लेकिन ऐसा हो ना सका।  गुजरात में ज्यादातर घुमंतू पशुपालक गैर- आदिवासी समुदाय से हैं। घुमंतू पशुपालन उनका परंपरागत पेश है। इन समुदायों की आजीविका का साधन जंगल और कॉमन लैंड है। वन अधिकार कानून की भाषा में ये अन्य परंपरागत वन आश्रित समुदाय हैं।लेकिन 100 सालों से ज्यादा समय से जंगलों में मवेशियों को चराना ही इनका पेशा है। श्री राठोर बताते हैं कि 1972 तक इन समुदायों को चराई के लिए वन विभाग से परमिट दी जाती थी। लेकिन उसके बाद परमिट देने प्रथा बंद हो गई और जंगल में मवेशियों की चराई को अवैध घोषित किया जाने लगा। यहां सीएफआरयहाँ सामुदायिक वन अधिकार के दावे काफी हुए हैं लेकिन वे सभी सीएफआर नाला, सड़क, शमशान आदि के लिए ही सीमित है, चराई के अधिकार को बहाल रखने की बात कोई नहीं करता है।

गुजरात के सामाजिक कार्यकर्ताओं का मानना है कि सरकार की रुचि गधे में है, घुमंतू पशुपालन में नहीं । घुमंतू मालधारियों के पास परंपरागत ज्ञान है। यह ज्ञान पशुपालन से संबंधित है,जंगल के औषधीय पौधों और अन्य पौधों को लेकर उनके ज्ञान हैं, उसका कहीं संरक्षण-संवर्धन की कोई व्यवस्था नहीं है। दूसरी दिक्कत यह है कि घुमंतू मालधारी किस जंगल पर हक या दावा रखें यह सुनिश्चित नहीं हो पता है। सामाजिक कार्यकर्ता शैलेश कहते हैं कि पशुपालन ऐसा विषय है जिससे पर्यावरण बेहतर होता है। ऐसा विषय है जिससे जमीन की उर्वरा शक्ति बढ़ती है और क्लाइमेट ज्यादा बेहतर होता है। वन अधिकार कानून वन भूमि पर घुमंतू पशुपालकों को चलने और मवेशियों को चरने का अधिकार सुनिश्चित करता है। बावजूद इसके वन आश्रित समुदायों की शिकायत है कि जंगल के भीतर माइनिंग कंपनी के मालिक को फॉरेस्ट गार्ड सलामी ठोकता है लेकिन जो सैकड़ों सालों से जंगल में आवाजाही करते हैं,उसे डंडे मारता है।

गुजरात के कच्छ के बन्नी ग्रास लैंड में घुमंतू समुदाय के टाइटल की प्रक्रिया शुरू हुई थी। 47 दावों को संबंधित ग्राम सभाओं के द्वारा पारित किया गया था लेकिन जब क्लेम की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने की बात आई तो कहा गया कि वन विभाग को एतराज है। ग्राम सभाओं ने केंद्र सरकार को चिट्ठी लिखी और अपने परंपरागत अधिकारों को सुनिश्चित करने की मांग की। केंद्र सरकार ने ग्राम सभाओं को टाइटल देने का निर्देश दिया। इस निर्देश के अनुसार कुल ढ़ाई हजार किलोमीटर क्षेत्रफल के ग्रास लैंड पर घुमंतू पशुपालकों की आजीविका और उनकी परंपरागत अधिकार को मान्यता दिया जाना है। लेकिन वन विभाग के अवरोध के चलते घुमंतू पशुपालकों के अधिकार आज तक सुनिश्चित नहीं हो पाया है।   

घुमंतू पशुपालकों की मान्यता है कि जंगलात विभाग तो 1932 के बाद अस्तित्व में आया लेकिन घुमंतू पशुपालन व्यवस्था दस हजार सालों से है। मोटे तौर पर देखें तो घुमंतू पशुपालकों की 50 फीसदी से ज्यादा हाउसहोल्ड इनकम पशुपालन से ही है। देश में लगभग 10 से 20 मिलियन घुमंतू पशुपालक समुदाय हैं, जिनका फैलाव या अस्थाई बसाहट देश के अलग-अलग 50 से भी ज्यादा जिलों में है। घुमंतू पशुपालकों ने 47 फीसदी से ज्यादा इंडीजीनस ब्रीड विकसित किए हैं। देश में लगभग 75 मिलियन भेंड़े हैं और उनका प्रबंधन घुमंतू पशुपालकों के परंपरागत ज्ञान से होता है।घुमंतू पशुपालकों का अर्थव्यवस्था में बड़ा योगदान है। अर्थव्यवस्था में घुमंतू मवेशियों द्वारा उत्पादित दूध और मांस की बड़ी हिस्सेदारी है। घुमंतू समुदाय की इतनी बड़ी संख्या और अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण कंट्रीब्यूशन के बाद भी जंगल तक उनकी पहुंच हमेशा बाधित होते रही है। प्रोटेक्टेड एरियाज के नाम पर उनको रोका जाता रहा है। घुमंतू समुदाय किसी एक समुदाय या किसी एक वर्ग से संबंधित नहीं है, देश के किसी हिस्से में वह अनुसूचित जनजाति है तो किसी हिस्से में पिछड़े वर्ग में है और किसी हिस्से में अल्पसंख्यक मुस्लिम। कहीं-कहीं अंग्रेजों ने जिन समुदायों को क्रिमिनल ट्राइब घोषित किया था उनसे भी घुमंतू समुदायों का वास्ता है। 

वन अधिकार कानून के इंप्लीमेंटेशन में नॉन शेड्यूल इलाके और गैर आदिवासी समुदायों को लगभग नकार दिया गया है। देश के ज्यादातर घुमंतू पशुपालकों का समुदाय गैर-आदिवासी और कई जगहों पर मुस्लिम अल्पसंख्यक है। कुछ राज्यों में इसके चलते काफी परेशानी हो रही है। घुमंतू पशुपालकों की परंपरागत सीमा और जंगल पर उनकी निर्भरता को सुनिश्चित करने और मान्यता देने के लिए जो सक्रियता और संवेदनशीलता ग्राम सभा या एसडीएलसी या डीएलसी में होनी चाहिए ,वह कहीं देखने को नहीं मिलता है। आज की अर्थव्यवस्था में लैंड डायवर्सन बहुत महत्वपूर्ण है। चारागाह की लैंड और फॉरेस्ट की लैंड सरकारों के लिए ज्यादा महत्वपूर्ण है। डायवर्सन की वजह से समाज के सबसे कमजोर और हाशिए के घुमंतू समुदाय के प्रति बहुत संवेदनशीलता सरकारों में देखने को नहीं मिलती है। 

घुमंतु समुदायों के जंगल पर दावा सृजन की प्रक्रिया में जो सहयोग राज्य प्रशासन से मिलना चाहिए वह किसी स्तर पर उनको नहीं मिल पाता है।कुछ जगहों पर फॉरेस्ट डिपार्मेंट को ही वन अधिकार कानून के नोडल के तौर पर चिन्हित कर दिया गया है। मद्रास हाई कोर्ट के एक निर्णय ने भी घुमंतू पशुपालन को तथा जंगल में आवाजाही को प्रभावित किया है। सरकार के लिए क्लाइमेट एक्शन पॉलिसी के तहत प्लांटेशन महत्वपूर्ण मसला है।  प्लांटेशन के लिए जरूरी है कि उन जगहों पर प्लांटेशन किया जाए जो जगह खाली पड़े हैं या जो परंपरागत तौर पर मुख्य रूप से पशुपालकों द्वारा अपने मवेशियों की चराई के लिए इस्तेमाल किया जाता रहा हो। देखा जाए तो घुमंतू पशुपालन का पूरा का पूरा व्यवसाय या पूरी संस्कृति और प्रक्रिया लगातार खत्म हो रही है और यह हमारे जंगल के संरक्षण,संवर्धन और सुरक्षा की दृष्टि से अच्छा नहीं है। जैव विविधता को बनाए रखने में घुमंतू पशुपालन का जो योगदान है, उसको लेकर कभी कोई गंभीर अध्ययन हुआ ही नहीं है। पशुपालन का जंगलों के साथ रिश्ता सदियों पुराना है। हिमाचल प्रदेश में घुमंतू पशुपालकों द्वारा विभिन्न जंगलों में जाने की परंपरा सदियों पुरानी है। घुमंतू पशुपालकों के जंगल में आवाजाही को 1904 के कानून में बंदोबस्त किया गया है।

घुमंतू पशुपालकों की मुसीबत है कि गांव वाले मवेशियों को रखने नहीं देते और जंगल वाले खदेड़ते रहते हैं।