संस्मरण: लोकतंत्र की बेहतरी के प्रहरी! मेरे मित्र, गुरु और मार्गदर्शक - जगदीप छोकर

सुधीर पाल 



2014 का 11 फरवरी, रांची में आयोजित दो दिवसीय एडीआर के दसवें राष्ट्रीय सम्मेलन का पहला दिन। खचाखच भरे आर्यभट्ट सभागार में उद्घाटन सत्र के बीच में तत्कालीन विधान सभा अध्यक्ष शशांक शेखर भोक्ता का पीएस उन्हें अखबार दिखाता है। दोनों में कुछ बातचीत होती है और अचानक अध्यक्ष महोदय उठे और तेजी से बाहर निकलने लगे। मुझे लगा शायद कोई अति महत्वपूर्ण संदेश राजनीतिक गलियारे से आया हो और इसी वजह से वे बाहर निकल रहे हों। झारखंड में उस समय राजनीति में हर दिन कोई ना कोई सर्कस होता रहता था। 

मंच पर तत्कालीन निर्वाचन आयुक्त हरिशंकर ब्रम्हा, एडीआर के सह-संस्थापक जगदीप छोकर और त्रिलोचन शास्त्री बैठे थे। मैं मंच का संचालन कर रहा था। जगदीप सर ने भोक्ता जी की तरफ देखते हुए मुझे इशारा किया....। आशय था कि विधान सभा अध्यक्ष अचानक क्यों उठ गए हैं.... कोई खास ....? पल भर के लिए मुझे कुछ भी समझ नहीं आया। मुझे लगा वाशरूम जा रहे हों। आयोजक और संचालक होने के नाते मैं थोड़ा नर्वस हो गया। मंच छोड़कर मैं भोक्ता जी के पीछे तेजी से पहुंचा .... भोक्ता जी अपनी कार में बैठने को हो गए थे..... मुझे देखते ही उनके पीएस ने टिप्पणी की .... कार्यक्रम रखते हैं .... कोई प्रोटोकॉल पता नहीं रहता है....। अध्यक्ष महोदय की कार चल पड़ी और उनके पीछे सिक्युरिटी का काफिला।  
 
दरअसल कार्यक्रम के आमंत्रण पत्र पर मुख्य अतिथि के तौर पर शहशांक शेखर भोक्ता का नाम छपा था और विशिष्ट अतिथि के रूप में निर्वाचन आयुक्त हरिशंकर ब्रम्हा का। एक दिन पहले के प्रेस कॉन्फ्रेंस में भूलवश हरिशंकर ब्रम्हा को मुख्य अतिथि और भोक्ता जी को विशिष्ट अतिथि बोल दिया गया और अखबारों में वही छप गया था। भोक्ता जी इसी से खफा हो कार्यक्रम स्थल से निकल गये थे। मैंने यह वाक्या जगदीप सर को बता दिया..... वे केवल मुस्करा भर दिए। हरिशंकर ब्रम्हा ने भी इशारों में माजरा जानना चाहा। तब तक मीडिया के साथियों को जानकारी हो गयी थी।        
जगदीप छोकर ने अपने भाषण में चुटकी ली। ..... आपके राज्य की सबसे बड़ी विधायी और संवैधानिक संस्था संस्था के रेफरी चले गए हैं। उन्हें अपने कद का अनुमान ही नहीं है और यही हमारी लोकतान्त्रिक विडंबना है। आप समझ रहे हैं कि राजनीतिक और लोकतान्त्रिक सुधार कितना जरूरी है.....! वे अपने बेबाक टिपन्नियों के लिए महशूर थे। नेता या अधिकारी, बड़ा हो या छोटा उनके लिए कोई फ़र्क नहीं था। सत्र संचालन के समय भी वे इस मामले में बेहद अनुशासित थे।   

जब भी मैं लोकतांत्रिक सुधारों की यात्रा को याद करता हूँ, तो उसमें एक नाम हमेशा चमकता है—जगदीप छोकर। वे केवल एडीआर के संस्थापकों में से एक नहीं थे, बल्कि मेरे लिए मित्र, गुरु और मार्गदर्शक थे।

मित्रता का रिश्ता

छोंकर जी का स्वभाव ऐसा था कि आप उनसे पहली ही मुलाकात में सहज हो जाते। उनकी मुस्कान, उनका सरल व्यवहार, और उनकी संवेदनशीलता—सबमें एक मित्र का भाव झलकता। वे कभी ऊपर से आदेश देने वाले नेता नहीं लगे। वे सुनते थे, समझते थे और फिर अपनी बात रखते थे।

मैं 2002 में उनके और त्रिलोचन शास्त्री के संपर्क में आया और धीरे-धीरे औपचारिक रिश्ते अनौपचारिक होते गए। झारखंड में एडीआर की गतिविधियाँ जिस समय शुरू हुई थीं, उस दौर में सब कुछ अनगढ़ था। चुनाव सुधार, प्रत्याशियों की पृष्ठभूमि का खुलासा, पारदर्शिता, ये बातें तब बहुत कम लोगों की जुबान पर थीं। लेकिन छोंकर जी ने इस चुनौतीपूर्ण यात्रा को सहज बनाया। उनकी दृष्टि साफ़ थी—“लोकतंत्र तभी मजबूत होगा, जब जनता को सच पता होगा।”
झारखंड में गतिविधियों को सँभालने की जिम्मेदारी जब मेरे हिस्से आई, तो छोंकर जी का स्नेह और मार्गदर्शन हर कदम पर साथ था। वे कभी आदेश देने वाले नेता नहीं रहे, बल्कि सुनने और समझने वाले मित्र बने। किसी भी कठिन परिस्थिति में उनका पहला वाक्य होता—घबड़ाना मत, यह रास्ता लंबा है, पर सही है। हमारे बीच का रिश्ता सिर्फ संगठनात्मक नहीं था। जब भी मुलाकात होती, तो हम लोकतंत्र की जटिलताओं पर चर्चा करते, लेकिन साथ ही जीवन की साधारण खुशियों पर भी बातें होतीं। उनकी हंसी में अपनापन था और उनके शब्दों में विश्वास। इधर चार-पाँच सालों में कई बार हुआ है कि वे अपने लेख भेजते और और मैं अपना। लिखने के दौरान कई बार हुआ कि सीधे फोन लगाया और किसी जटिल लगने वाले मुद्दों पर अपना नज़रिया उनके साथ चर्चा कर साफ कर ली। 

मेरी अपनी यात्रा पत्रकारिता से शुरू हुई थी। लोकतंत्र पर लिखना, जनसरोकार की रिपोर्टिंग करना मेरी आदत थी। लेकिन एडीआर के साथ काम करने और छोंकर जी के साथ संवाद ने मुझे सिर्फ पत्रकार नहीं रहने दिया, बल्कि लोकतांत्रिक सुधारों का सक्रिय सिपाही बना दिया। वे अक्सर कहते—“पत्रकारिता और एक्टिविज़्म में फर्क मत देखो। दोनों का लक्ष्य है—सत्य का उद्घाटन। फर्क बस इतना है कि पत्रकार इसे लिखकर सामने लाता है और कार्यकर्ता इसे जमीन पर उतारता है।” यह शिक्षा मेरे लिए जीवन भर का पूंजी है।

छोंकर जी का सबसे बड़ा गुण था—सही दिशा दिखाना। वे मानते थे कि “काम कितना बड़ा है, यह मायने नहीं रखता; ईमानदारी और निष्ठा से किया गया छोटा काम भी लोकतंत्र को गहरा करता है।” वे मेरे मित्र थे, जिनसे मैं अपने संदेह बाँट सकता था। वे मेरे गुरु थे, जिनसे मैंने लोकतांत्रिक आचरण की असली परिभाषा सीखी। और वे मेरे मार्गदर्शक थे, जिन्होंने मुझे यह विश्वास दिलाया कि लोकतंत्र की इस कठिन यात्रा में मैं अकेला नहीं हूँ।

पत्थलगढ़ी आंदोलन 

एक शाम उन्होंने फोन किया कि पत्थलगढ़ी आंदोलन को समझना चाहिए और हमें कुछ करना चाहिए। संभवतः जुलाई 2018 के अंतिम सप्ताह में वे रांची आए। हम दोनों ने ने खूंटी के उन गाँवों का भ्रमण किया जहाँ पत्थलगढ़ी आंदोलन की गूँज सबसे तेज़ थी। पत्थर पर उकेरी गई पंक्तियाँ, ग्राम सभा के नोटिस और युवाओं की चर्चा — इन सबमें एक आश्चर्यजनक चीज़ एक साथ दिखी: संवैधानिक अधिकारों की समझ, जहाँ परंपरा और आधुनिक अधिकार मिलकर गाँव के सार्वजनिक विमर्श का हिस्सा बन गए थे। 

वे यह देखकर प्रभावित हुए कि खूंटी के गाँवों में बच्चे-युवक खुलकर संविधान के अधिकारों की बातें कर रहे थे।  स्कूल के बच्चों को भी यह मालूम था कि पेसा के क्या प्रावधान हैं, ग्राम सभा किस हद तक फैसले ले सकती है और बाहरी कम्पनी/दफ़्तर कब बिना ग्राम सभा की सहमति नहीं आ सकते। गाँवों में कई युवा 'स्थानीय जागरूकता समूह' की तरह काम कर रहे थे — वे घर-घर जाकर लोगों को पाँचवीं अनुसूचित क्षेत्र के संवैधानिक मसलों पर समझा रहे थे, पंचायत-सम्मेलनों में भाग ले रहे थे और महिलाओं को भी सामूहिक रूप से जोड़ रहे थे। इस बड़े-बड़े बदलाव ने छोकऱ जी को प्रभावित किया — वे बताते रहे कि बच्चों में यह जागरण एक पीढ़ीगत परिवर्तन का संकेत है। ऐसा नहीं कि इस जागरूकता को बिना राजनीतिक या प्रशासनिक चुनौतियों के लिया गया — पत्थलगढ़ी के बढ़ते स्वर ने राज्य स्तर पर भी प्रतिक्रियाएँ जन्म दीं। कुछ जगहों पर यह आंदोलन सत्तारूढ़ और प्रशासनिक तंत्र द्वारा सुरक्षा-चिंताओं या कानून-व्यवस्था के मुद्दे के रूप में देखा गया, और इसका नतीजा विवाद, मुकदमे और कड़े प्रबंधों के रूप में सामने आया। अंतरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय मीडिया ने भी खूंटी और पड़ोसी जिलों में हुई घटनाओं और प्रशासनिक रवैये पर रिपोर्टिंग की। इससे यह स्पष्ट हुआ कि लोक-सचेतना और राज्य-प्रतिक्रिया के बीच संतुलन बनाना कितना नाज़ुक काम है।

छोकर जी ने इस मुद्दे को केवल क्षेत्रीय संदर्भ तक सीमित नहीं रखा — आपने बताया कि वे इसे दिल्ली और कई अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उठा चुके हैं। एक बार उन्होंने यह भी स्पष्ट किया था कि उन्होंने गृह मंत्रालय को एक रिपोर्ट भेजी है और अपने जानने वालों के ज़रिए सही परिप्रेक्ष्य में इसे समझाने तथा लोक-हक़ और आदिवासी अधिकारों की रक्षा के लिए वकालत करने का प्रयास किया। 

झारखंड से जुड़ाव

जब एडीआर की गतिविधियाँ झारखंड में बढ़नी शुरू हुईं, तब राज्य की राजनीति में उथल-पुथल का दौर था। नया-नया राज्य बना था। राजनीतिक अस्थिरता, खनिज संसाधनों की लूट, आदिवासी-गैरआदिवासी तनाव और लोकतांत्रिक संस्थाओं की नाजुक स्थिति—यह सब माहौल का हिस्सा था। ऐसे समय में छोंकर जी का मार्गदर्शन मेरे लिए एक संबल था। मुझे याद है, पहली बार जब हमने झारखंड में प्रत्याशियों की पृष्ठभूमि उजागर करने का अभियान चलाया, तो माहौल बहुत तनावपूर्ण था। कुछ राजनीतिक दल इसे सीधे “षड्यंत्र” कह रहे थे, कई प्रत्याशी हमारी रिपोर्टिंग से नाराज़ थे। लेकिन छोंकर जी ने हमेशा सिखाया था- तथ्य और आँकड़े हमेशा दुरुस्त होने चाहिए। हम ना किसी के पक्ष में हैं और ना ही किसी के विरोध में। हमारा दायित्व है जनता के बीच उनके प्रतिनिधियों की पृष्ठभूमि को बिना किसी पूर्वाग्रह के रहना और उन्हें लोकतान्त्रिक अधिकारों के प्रति सचेत करना। वे कहते—“हमारा काम केवल आंकड़े जुटाना नहीं है। असली काम है जनता तक उन आंकड़ों को पहुँचाना। अगर आम आदमी को यह पता न चले कि उसका नेता कौन है और उसका अतीत क्या है, तो हमारी सारी मेहनत व्यर्थ है।”

व्यक्तिगत स्मृतियाँ

एक बार घर-परिवार की बात करते हुए जब उन्हें मैंने उन्हें बताया कि मेरा ननिहाल जमालपुर (मुंगेर) है तो उन्होंने जोरदार ठहाका लगाया। छोकर जी की पहली नौकरी जमालपुर के रेल इंजन कारखाने में लगी थी। वे उन गांवों की देर तक चर्चा करते रहे थे जहां से उनका वास्ता रहा था। उनमें मेरे नाना-नानी के लक्ष्मनपुर गाँव की भी चर्चा होती थी। छोकर जी तब जमालपुर में थे जब मैं शायद तीन –चार साल का रहा हूँगा। मित्र और मार्गदर्शक होने के साथ-साथ छोंकर जी मेरे लिए एक परिवारिक आत्मीयता भी रखते थे। एक बार रांची में वे हमारे घर पर रुके थे। वे छंदोंश्री जी से बेहद प्रभावित थे। एक बार जब दिल्ली में उनके घर गया तो किरण छोकर मैम ने बताया कि आपकी पत्नी ने इनका बहुत ध्यान रखा था। इन दिनों कम ही दिल्ली जाना होता, लेकिन जब भी उनके घर गया, मैं पाता कि उनका जीवन बेहद सादा था, लेकिन उनके सपने बहुत बड़े थे।

लोकतंत्र को बेहतर करने में छोकर जी की भूमिका

1999 में जगदीप छोंकर जी, अपने साथी प्रोफेसरों त्रिलोचन शास्त्री, अजित रानाडे के साथ चुनावी उम्मीदवारों की पृष्ठभूमि सार्वजनिक करने की आवश्यकता देखकर एडीआर की स्थापना करते हैं। यहीं से भारत में चुनाव सुधार की नई यात्रा शुरू होती है। 

2000 में एडीआर की ओर से दिल्ली हाईकोर्ट में याचिका दायर की जाती है, जिसमें उम्मीदवारों के आपराधिक, शैक्षणिक और आर्थिक विवरण के खुलासे की माँग की जाती है। हाईकोर्ट मतदान के अधिकार की सुरक्षा हेतु ADR के पक्ष में फैसला देता है। 

2002 में केंद्र सरकार सुप्रीम कोर्ट जाती है। सुप्रीम कोर्ट मामले में ऐतिहासिक निर्णय सुनाता है—अब उम्मीदवारों को आपराधिक मामलों, संपत्ति, शिक्षा आदि का पूरा विवरण शपथपत्र के रूप में देना ज़रूरी है। यह भारत के चुनावी इतिहास में बड़ा सुधार सिद्ध होता है। 

2013 में एडीआर की जनहित याचिकाओं के चलते सुप्रीम कोर्ट ‘नोटा’ विकल्प को स्वीकारता है—अब मतदाता प्रत्याशियों के बजाय 'किसी को नहीं' चुन सकता है। साथ ही, सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक लिली थॉमस फैसला आता है जिसमें दोष सिद्ध जनप्रतिनिधि की तत्काल अयोग्यता का प्रावधान तय होता है। जगदीप छोंकर इस ऐतिहासिक मुकदमेबाजी में नेतृत्वकारी भूमिका में थे। . 

एडीआर और छोकर ने चुनावी बॉन्ड जैसे मुद्दों पर प्रखरता से आगे रखते हैं। एडीआर सुप्रीम कोर्ट में चुनावी बॉन्ड का मुकदमा लड़ता है, जिसके परिणामस्वरूप 2024 में कोर्ट चुनावी बॉन्ड स्कीम को 'असंवैधानिक' ठहराता है। राजनीतिक चंदा की गोपनीयता पर सबसे बड़ी चोट लगती है। विदेशी चन्दा लेने वाले राजनीतिक दलों का निबंधन रद्द करने और प्रतिबंधित करने की लड़ाई वे लड़ते रहे हैं। सूचना अधिकार अधिनियम के दायरे में राजनीतिक दलों को लाने के मामले में भी नेतृत्वकारी भूमिका में रहे।   
View Counter
1,499,950
Views