केवल प्रेम और संवेदना के कथाकार नहीं क्रांतिकारी विचारक थे शरतचंद्र 

सुधीर पाल 



12 जनवरी 1926 की सुबह कोलकाता के साहित्यिक बाज़ार में एक नई किताब चर्चा का विषय बना। नाम था— “पाथेर डाबी (पथ के दावेदार)”। किताब के पहले ही संस्करण की कुछ हज़ार प्रतियाँ दो दिनों में बिक गईं। दुकानों के बाहर छात्र, क्रांतिकारी और साहित्यप्रेमी भीड़ लगाए खड़े थे। ब्रिटिश खुफ़िया विभाग के कान खड़े हो गए। सरकार की मान्यता थी कि यह उपन्यास युवाओं में क्रांति की आग भड़का रहा है।

द स्टेट्समैन (अंग्रेज़ी अख़बार, कलकत्ता) ने लिखा—‘यह पुस्तक युवाओं को हिंसा और विद्रोह के लिए उकसाती है। सरकार को तत्काल कदम उठाना चाहिए। किताब के बाजार में आए एक पखवाड़ा भी नहीं बीता कि तत्कालीन बंगाल सरकार ने इस उपन्यास को प्रतिबंधित कर दिया। प्रतिबंध के बावजूद यह किताब गुप्त रूप से छपती रही और क्रांतिकारियों के बीच पाठ्यपुस्तक बन गई। लाहौर के किरीति पत्र में भगत सिंह ने लिखा कि इस उपन्यास में गुलामी की जड़ों पर चोट करने वाली चेतना है। बंगाल के गुप्त संगठनों में इसे हाथ से कॉपी करके बाँटा जाता था।

भारतीय साहित्य में शरतचंद्र चट्टोपाध्याय को हम आम तौर पर “देवदास” और “परिणीता” जैसे प्रेम और संवेदना के कथाकार के रूप में जानते हैं। पर 1926 का यह उपन्यास उनकी दूसरी छवि को उजागर करता है। एक राजनीतिक चिंतक और क्रांतिकारी चेतना के लेखक के रूप में।

जिस समय शरतचंद्र लोकप्रियता की चरम सीमा पर थी उसी समय उनके जीवन में एक और क्रांति का उदय हुआ। समूचा देश एक नयी करवट ले रहा था। ‘आवारा मसीहा’ में विष्णु प्रभाकर लिखते हैं कि उसी समय राजनीतिक क्षितिज पर तेजी के साथ नयी परिस्थितियाँ पैदा हो रही थीं। ब्रिटिश क्राउन के प्रति वफ़ादारी का प्रतिज्ञा लेने वाली कांग्रेस ने केंचुल उतार फेंकी थी क्योंकि प्रथम महायुद्ध के हार्दिक सहयोग के बदले में उसी क्राउन ने उसे रौलेट एक्ट प्रदान किया था। 

गरम दल की राजनीति की ओर झुकाव 

स्वतंत्रता सेनानी देशबंधु चितरंजन दास मन-प्राण से इस आंदोलन में कूद पड़े थे। शरतचंद्र का देशबंधु के साथ अत्यंत स्नेह था इसलिए वे भी तेजी से उस ओर खिंच आए। देशबंधु दास के साथ उनका जो संपर्क था उसे नीरा साहित्यिक ही नहीं रहने दिया। शरतचंद्र का राजनीतिक झुकाव सदा गरम दल की ओर रहा था। लोकमान्य तिलक के प्रति उनकी सच्ची श्रद्धा थी। 

31 जुलाई 1920 को जब लोकमान्य तिलक का निधन हुआ, कोलकाता के समाचारपत्र आनंद बाजार पत्रिका और बंगाल टाइम्स ने शरतचंद्र का बयान प्रकाशित किया। उसमें लिखा था—“तिलक केवल हमारे ही नहीं थे, वे हम बाईस करोड़ भारतीयों के मलिन ललाट के तिलक थे। आज वह तिलक मिट गया है। हम अनाथ हो गए हैं।” यह बयान शरतचंद्र साहित्यकार का नहीं, बल्कि एक राजनीतिक कार्यकर्ता का बयान था। शरदचंद्र की रचना 'हरिलक्ष्मी' में मंझली बहू शरमाते हुए, हँसते हुए कहती है, तिलक महाराज की तस्वीर देख-देखकर बनने की कोशिश की थी जीजी, पर कुछ बनी नहीं। यह कहते हुए उसने उंगली उठाकर सामने की दीवार पर टंगे हुए भारत के कौस्तुभ लोक मान्य तिलक का चित्र दिखा दिया। (आवारा मसीहा,पृष्ठ 242) 
गांधीजी से संवाद : चर्खे पर बहस

1921 में गांधीजी और शरतचंद्र की मुलाकात हुई। आज अख़बार (हिन्दी) ने इसका ब्यौरा छापा था। गांधीजी ने हँसते हुए पूछा—‘शरत बाबू, आपकी चर्खे में श्रद्धा नहीं है?’

शरतचंद्र ने मुस्कुराकर जवाब दिया— ‘नहीं, रत्ती भर नहीं। मैं चर्खे को नहीं, आपको प्यार करता हूँ।‘ गांधीजी ने मज़ाक में कहा—‘लेकिन आप विश्वास नहीं करते कि चर्खा स्वराज्य दिला सकता है।‘

आवारा मसीहा में विष्णु प्रभाकर लिखते हैं कि शरतचंद्र ने हँसते हुए कहा- जी नहीं, मैं विश्वास नहीं करता। मेरे विचार से स्वराज्य प्राप्ति में सिपाही ही सहायक हो सकते हैं, चरखे नहीं।‘ इससे साफ़ था कि शरत्चन्द्र गांधीजी का सम्मान करते हुए भी उनके औज़ारों से पूरी तरह सहमत नहीं थे।
लेकिन विश्वास हो या न हो, चर्खे के लिए कुछ करने में उन्होंने रखी। छूट गया ऐश्वर्य, छूट गई सिल्क की पोशाक, रह गया बस खद्दर, तेल कचौड़ी, यहाँ तक कि भुने हुए चने खा-खाकर, गाँव-गाँव चर्खे का प्रचार करते वे घूमे। वे स्वयं कातते थे, घर के दूसरे लोग कातते थे, नौकर तक कातते थे और चकमा देते थे। शरत पूछते, "क्यों रे अमुक, काम क्यों नहीं किया ?" (आवारा मसीहा,पृष्ठ 250)

चरखे में उनका विश्वास हो या न हो, प्रारम्भ में असहयोग में शरतचंद्र का पूर्ण विश्वास था। देशबंधु चितरंजन दास के निवास स्थान पर एक दिन उन्होंने गाँधीजी से कहा था, ‘महात्मा जी, आपने असहयोग रूपी एक अभेद्य अस्त्र का आविष्कार किया है। अगर जनता सरकार से सहयोग ना करे तो वह एक दिन में ही समाप्त हो जाए। तब हम एक वर्ष में नहीं चौबीस घंटे में स्वराज्य ला सकते हैं।‘ इस कार्यक्रम में सचमुच उनका बड़ा उत्साह था। विलायती कपड़ों, वस्तुओं और किताबों के बहिष्कार के वे पूर्ण पक्षपाती थे। रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने जब ‘सर’ की उपाधि लौटा दी थी, तो वे बहुत प्रसन्न हुए थे। 

चौरी-चौरा और आंदोलन की “अपमृत्यु”

फरवरी 1922 में जब गांधीजी ने चौरी-चौरा की हिंसा के बाद असहयोग आंदोलन वापस ले लिया, उस समय शरतचंद्र ने फॉरवर्ड पत्रिका में लेख लिखा। उन्होंने लिखा—‘महात्माजी ने भयानक भूल की है। इस अवस्था में आंदोलन रोकने का अर्थ है उसकी अपमृत्यु। जनता का विश्वास एक बार टूट जाए तो पुनर्जीवित नहीं होता।‘ शरतचंद्र लिखते हैं-सोचा था, इस आंदोलन से स्वरजे निश्चय ही मिलेगा, पर महात्मा जी ने उसे आरंभ ही नहीं किया।.... नान वायोलेंस अत्यंत पवित्र विचार है लेकिन स्वतंत्रता की प्राप्ति उससे शतगुना पवित्र है। उनकी यह आलोचना देशबंधु चित्तरंजन दास के विचारों से मिलती-जुलती थी।

पथ के दावेदार: क्रांति का घोषणापत्र

जनवरी 1926 में ‘पथ के दावेदार’ प्रकाशित हुआ। मॉडर्न रिव्यू ने इसे ‘उपन्यास नहीं, बल्कि राजनीतिक घोषणापत्र ’ कहा। उपन्यास का मुख्य पात्र सत्या एक रहस्यमयी, तेजस्वी और प्रेरणादायक युवा है, जो बाहरी रूप से डॉक्टर है, लेकिन भीतर से क्रांति की आग है। वह जाति, वर्ग, नस्ल, पितृसत्ता, गुलामी — सबका विरोध करता है। यह उपन्यास बंगाल से आरंभ होकर पूरे भारत की स्वतंत्रता की छाया बुनता है — और कहता है कि भारत को सिर्फ स्वतंत्रता नहीं चाहिए, उसे नई राह चाहिए — एक नये समाज की राह।

शरतचंद्र का यह उपन्यास 1920 के दशक में लिखा गया, जब देश में गांधीवाद और क्रांतिकारी आंदोलन के बीच वैचारिक खिंचाव था। "पथ के दावेदार" में जो क्रांति है, वह गांधीवादी अहिंसा से भिन्न है। यह उपन्यास ब्रिटिश राज के खिलाफ गोपनीय सशस्त्र संघर्ष को वैध ठहराता है।
इसमें निम्नलिखित राजनीतिक सूत्र स्पष्ट हैं। उपन्यास उपनिवेशवाद का पूर्ण बहिष्कार की वकालत करता है और केवल राजनीतिक नहीं, सांस्कृतिक और मानसिक रूप से भी। नायक सत्या हर प्रकार की सामाजिक भेदभाव के विरुद्ध है। उपन्यास में नारी चेतना का उदय प्रखर ढंग से डीकहता है। उपन्यास की महिला पात्रें साहसी, निर्णायक और आंदोलन की सहभागी हैं। यह राज्यसत्ता के पुनर्गठन की कल्पना करता है। केवल स्वतंत्रता नहीं, सामाजिक क्रांति की कल्पना।

अधूरा उपन्यास और राजनीतिक दृष्टि

राजनीतिक अभिज्ञता का प्रमाण उनके असमाप्त उपन्यास जागरण  से भी मिलता है। लगभग दो वर्ष तक वह वसुमति में छपता रहा था। लेकिन वे उसे पूरा कर पाते तो निश्चय ही यह उपन्यास अत्यन्त महत्त्वपूर्ण होता, इसलिए कि इसमें जो राजनीतिक विचार प्रकट हुए हैं,वे मानो भविष्यवाणी के रूप में हैं। इस उपन्यास में एक स्थान पर नायिका का जमींदार पिता कहता है, ‘प्रजा के मन में भारी परिवर्तन आ गया है। अब यह चाहे  शिक्षा का परिणाम हो, चाहे जमीदारों के अत्याचारों का नतीजा हो, जनता अब अब जमींदारी का नाश चाहती है। ज है। दो रोज़ पहले हो या दो रोज बाद, ज़मींदारी मिटेगी ज़रूर। जमींदारी को विदा होना होगा। तुम किसी भी तरह इसे बचा न सकोगे।‘

पश्चिमी सभ्यता पर दृष्टिकोण

शरतचंद्र ने वसुमति पत्रिका में लेख लिखा था—‘पश्चिम की सभ्यता का मूलमंत्र है स्टैण्डर्ड ऑफ़ लिविंग बढ़ाना। इसका अर्थ है—मैं धनी बनूँ और पड़ोसी निर्धन रह जाए। हमारे लिए सभ्यता का अर्थ है साझा समृद्धि, समानता।‘ यह उनके राजनीतिक चिंतन की बुनियाद थी। वे स्वतंत्रता को केवल अंग्रेज़ों की सत्ता से मुक्ति नहीं, बल्कि सामाजिक और आर्थिक न्याय की नई व्यवस्था मानते थे।
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