झारखंड विस्थापन की भूमि है। यहां की धरती बार-बार खोदी गई, उद्योगों और खदानों ने गांव दर गांव उजाड़ दिए। इंडियन सोशल इंस्टीट्यूट की रिपोर्ट कहती है कि 1951 से 1995 के बीच झारखंड में लगभग 25 लाख लोग विभिन्न परियोजनाओं से विस्थापित हुए। इनमें से 67 प्रतिशत आदिवासी और दलित थे। कोयला खदानों और स्टील कारखानों ने ही लाखों को उजाड़ दिया। सिर्फ बोकारो स्टील प्रोजेक्ट से करीब 70 हजार लोग प्रभावित हुए। संथाल परगना, कोल्हान, छोटानागपुर,पलामू हर जगह की मिट्टी में विस्थापन का दर्द दर्ज है। लेकिन इन आँकड़ों से भी ज्यादा कड़वा सच यह है कि 40 प्रतिशत से भी कम विस्थापितों का सही पुनर्वास हुआ है। बाकी लोग भटकते रहे हैं, कहीं मजदूरी में, कहीं शहरों की झुग्गियों में।
ऐसे में झरखंड सरकार द्वारा विस्थापन एवं पुनर्वास आयोग का गठन एक महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक कदम है। यह कदम राज्य में न्याय, पारदर्शिता, और दीर्घकालिक पुनर्वास नीति का आधार बन सकता है। आयोग आँकड़े जुटाएगा कि कितने लोग विस्थापित हुए, किस परियोजना से, उन्हें क्या मिला और उनकी स्थिति क्या है। पर सबसे बड़ा सवाल है कि क्या यह आयोग सिर्फ रिपोर्ट बनाकर रह जाएगा या फिर झारखंड में विस्थापन और पुनर्वास की वास्तविक समस्या का हल निकालेगा? और उससे भी बड़ा सवाल—जब तक भूमि अधिग्रहण कानून, लैंड बैंक और वनाधिकार कानून की अनदेखी जारी है, तब तक किसी भी आयोग की क्या प्रासंगिकता है? असल चुनौती है कि यह सिर्फ आँकड़ों का पोस्टमार्टम नहीं करे बल्कि न्याय की नई राह साबित हो।
झारखंड के डेमोग्राफी और भौगोलिक बुनावट से मेल खाते अन्य देशों में विकास परियोजनाओ से विस्थापित देशज समुदायों के पुनर्वास के मॉडल से हम आगे की राह निकाल सकते हैं। झारखंड के संदर्भ में वैश्विक अनुभव को आत्मसात करना जरूरी है। इन देशों ने भी देशज समुदायों की त्रासदी झेली है और राह बनाने की कोशिश की है।
कोलंबिया : संघर्ष से पुनर्वास तक
2019 में कोलम्बिया की यात्रा के दौरान लेखक को वहाँ बने आयोग के कामकाज को जानने का मौका मिला। कोलंबिया दशकों तक गृहयुद्ध और सशस्त्र संघर्ष से जूझता रहा। लाखों लोग गाँव-घरों से उजाड़े गए और शरणार्थी बन जीने को मजबूर हुए। 2011 में कोलंबिया की सरकार ने सशस्त्र संघर्ष के पीड़ितों के न्याय, पुनर्वास, क्षतिपूर्ति और पुनरावृत्ति न होने के अधिकारों की गारंटी को सुनिश्चित किया। इसके लिए पीड़ित और भूमि पुनर्स्थापन कानून लागू किया। इसके तहत एक राष्ट्रीय आयोग ने यह दर्ज किया कि कितने लोग आंतरिक रूप से विस्थापित हुए। मूल रूप से इसे दस वर्षों (2011-2021) तक चलने का लक्ष्य था, लेकिन 2021 में इसे एक दशक के लिए और बढ़ा दिया गया। कोलंबिया में गृहयुद्ध और सशस्त्र संघर्ष के 94 लाख पीड़ित थे, जिनमें से चार लाख से ज़्यादा आंतरिक रूप से विस्थापित थे।
आयोग का काम केवल गणना तक सीमित नहीं रहा। इसके आधार पर भूमि वापसी कार्यक्रम शुरू हुए जिनसे छिनी गई ज़मीनें वापस दिलाई गईं। विस्थापित परिवारों के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार से जुड़े विशेष पैकेज लागू किए गए। कोलंबिया का अनुभव दिखाता है कि जब आयोग की सिफारिशों को कानून का बल मिलता है, तभी विस्थापितों का जीवन सुधर पाता है।
दक्षिण अफ्रीका : अन्याय की ऐतिहासिक गवाही
दक्षिण अफ्रीका का ‘ट्रुथ एण्ड रिकॉन्सिलिएशन (टीआरसी)’ केवल राजनीतिक हिंसा की गवाही नहीं था। इसने अपार्थाइड काल में हुए भूमि कब्ज़ों और जबरिया विस्थापन को भी दर्ज किया। आयोग के तहत हजारों आदिवासियों और अश्वेत परिवारों की गवाही ली गई, जिसमें उन्होंने बताया कि कैसे उनकी ज़मीनें जब्त की गईं और उन्हें ग़ुलामी जैसे हालात में धकेला गया।
आयोग की सिफारिश पर सरकार ने लैंड रेस्टिटूशन एक्ट को मज़बूत किया और विस्थापित समुदायों की भूमि वापसी की प्रक्रिया शुरू हुई। यहाँ आयोग ने सत्य को राजनीतिक विमर्श में लाकर असमानता की पहचान करायी। यानी विस्थापन केवल आँकड़े नहीं रहे, बल्कि अन्याय की ऐतिहासिक जिम्मेदारी के रूप में दर्ज हुए।
ब्राज़ील : अमेज़न और आदिवासी हक़
ब्राज़ील में विस्थापन का बड़ा प्रश्न अमेज़न क्षेत्र से जुड़ा था। यहाँ बाँध परियोजनाओं और खनन से बड़ी संख्या में आदिवासी समुदाय प्रभावित हुए। 1980 के दशक में बने आयोगों और लगातार हुई रिपोर्टिंग ने इस पर ध्यान खींचा कि अमेज़न के क़बीलाई समूहों का अस्तित्व संकट में हैं। नतीतजन ब्राज़ील सरकार ने 1988 के अपने संविधान में ही आदिवासी समुदायों को भूमिजन्य अधिकार प्रदान किए।
आयोगों की रिपोर्ट ने यह साफ़ किया कि केवल पुनर्वास से समस्या का हल नहीं होगा बल्कि संपूर्ण इलाक़ों को ‘प्रोटेक्टेड इंडिजिनस ज़ोन’ घोषित करना होगा। यही कारण है कि आज भी अमेज़न क्षेत्र में बड़ी परियोजनाओं पर कानूनी बाध्यताएँ हैं। वार्ता के बिना कोई भूमि अधिग्रहण संभव नहीं। ब्राज़ील का उदाहरण दिखाता है कि विस्थापन नीति तभी टिकाऊ होती है जब वह भूमिगत संसाधनों और सांस्कृतिक जीवन की रक्षा से जुड़ती है। झारखंड पाँचवीं अनुसूचित क्षेत्र के अंतर्गत आता है और कानूनन ग्राम सभा की इजाजत के बगैर जमीन का हस्तांतरण नहीं हो सकता है।
इन उदाहरणों का सबक है कि आयोग तभी सफल है जब उसकी सिफारिशें सलाह नहीं बल्कि कानूनी बाध्यता में ढलती है। वे सिर्फ आँकड़े तक सीमित नहीं रहते बल्कि पुनर्वास पैकेज, भूमि वापसी और संरचनात्मक सुधार का मार्ग बनाते हैं। इनमें पीड़ितों की गवाही और भागीदारी को केंद्रीय महत्व दिया गया।
झारखंड के लिए निहितार्थ
इन वैश्विक अनुभवों को झारखंड पर लागू करें तो स्पष्ट है कि यदि आयोग की रिपोर्ट को केवल परामर्श मान लिया जाएगा तो यह पोस्टमार्टम बोर्ड से आगे नहीं बढ़ पाएगा। आयोग को भूमि वापसी, लैंड बैंक की समीक्षा, और वनाधिकार कानून के प्रवर्तन की ठोस सिफारिशें करनी होंगी। और सबसे बढ़कर सरकार को यह सुनिश्चित करना होगा कि आयोग की सिफारिशें अनिवार्य रूप से लागू हों, जैसे कोलंबिया और ब्राज़ील ने किया। यानी झारखंड का विस्थापन आयोग तभी इतिहास में दर्ज होगा जब वह सिर्फ हकीकत का गिनतीकार न बने बल्कि न्याय और पुनर्वास का वास्तविक औजार साबित हो।
झारखंड सरकार के मुताबिक आयोग का प्रमुख कर्तव्य होगा कि विस्थापित व्यक्तियों/समुदायों का सामाजिक-आर्थिक सर्वे हो तथा एक समग्र डेटाबेस तैयार किया जाए जिसमें उनका इतिहास, विस्थापन का कारण, मुआवजा स्थिति, पुनर्वास का प्रकार आदि शामिल हों ।इससे यह स्पष्ट हो सकेगा कि खनन और अन्य विकास परियोजनाओं से प्रभावित हुए लोग क्या खोते और क्या प्राप्त करते हैं। इससे न्यायसंगत और लक्षित नीति निर्माण संभव होगा।
आयोग उपयुक्त मुआवजा और पुनर्वास की नीति के निर्धारण में सुझाव देगा ताकि प्रभावितों को उचित आर्थिक, सामाजिक और आवासीय सहायता मिल सके। यह सुनिश्चित करेगा कि मुआवजा सिर्फ वित्तीय नहीं बल्कि पुनर्वास-आधारित हो—जैसे कि नई जीवन यापन विधियाँ, रोजगार, भूमि पुनः प्राप्ति, पलायन रोकने हेतु उपाय आदि शामिल हों। परंतु यहाँ दो समस्याएँ हैं—पहला कि आयोग की रिपोर्ट बाध्यकारी नहीं है। यानी सरकार चाहे तो मान ले, चाहे तो फाइल बंद कर दे। और दूसरा कि आयोग के पास कार्यान्वयन की कोई शक्ति नहीं है। यह डॉक्टर की तरह है जो शव का पोस्टमार्टम कर देता है पर इलाज नहीं कर सकता।
संवैधानिक अधिकारों का संरक्षण जरूरी
नियमावली में विधिक रूप से यह प्रावधान हो सकता है कि जो समुदाय एक बार विस्थापित हो चुके हैं, उन्हें पुनः विस्थापित नहीं किया जा सकता है या यदि द्वितीय विस्थापन होता है तो दुगुने मुआवजे का अधिकार होगा। यह प्रावधान 2013 के भू-अर्जन अधिनियम के अनुरूप होगा।
विस्थापन आयोग स्थानीय समुदायों के अधिकारों यथा वनाधिकार, पेसा और पाँचवीं अनुसूची से संबंधित प्रावधानों के संरक्षण की वकालत कर सकता है। यह आदिवासी समुदायों की भूमि, जंगल और पारंपरिक जीवनशैली की रक्षा करेगा तथा पुनर्वास के दौरान उनकी स्वीकृति सुनिश्चित करे तभी इसकी प्रासंगिकता है। यह प्रयास आदिवासियों के स्वशासन, पारंपरिक कानून, वनाधिकार जैसे विषयों को विस्थापन से पूर्व, दौरान और बाद में संवैधानिक संरचना के भीतर लाएगा।
झारखंड में विस्थापन आयोग का गठन एक अच्छी पहल है लेकिन यह अधूरी है। यह आयोग पोस्टमार्टम की तरह आँकड़े जुटाएगा पर असली इलाज तभी संभव है जब भूमि अधिग्रहण की मौजूदा नीति और लैंड बैंक की व्यवस्था खत्म हो। वनाधिकार कानून को सही मायने में लागू किया जाए। ग्राम सभाओं को अंतिम निर्णय का अधिकार मिले। और विस्थापन को सिर्फ मनुष्य तक सीमित न रखकर पूरे इको-सिस्टम का मूल्यांकन किया जाए। विस्थापन आयोग तभी सार्थक होगा जब यह आँकड़ों की कब्रगाह नहीं बल्कि न्याय और पुनर्सृजन की नई राह बने।