अंततः संसद ही तय करेगा एसटी का दर्ज़ा 

सुधीर पाल 



कुड़मी आदिवासी हैं। राज्य में उन्हें पिछड़े वर्ग का हिस्सा माना गया है और अब उनका आंदोलन अनुसूचित जनजाति का दर्जा हासिल करने के लिए है। भारत जैसे विविधताओं वाले देश में जातीय और जनजातीय पहचान सिर्फ़ सामाजिक श्रेणीकरण नहीं, बल्कि अधिकार, संसाधनों की साझेदारी और राजनीतिक प्रतिनिधित्व से गहराई से जुड़ा है। यही कारण है कि आज झारखंड में कुड़मी समुदाय के अनुसूचित जनजाति (एसटी) दर्जे की मांग ने बड़ा विवाद खड़ा कर दिया है। इस आलेख का उद्देश्य कुडमियों की मांग को सही या गलत ठहराने का नहीं है। सवाल यह है कि आखिर किस आधार पर कोई समुदाय अनुसूचित जनजाति घोषित होता है? इसके संवैधानिक प्रावधान क्या हैं? इतिहास में इसे कैसे परिभाषित किया गया? और न्यायालयों का क्या रुख रहा है? 

एक दशक में देश के कई राज्यों में अनुसूचित जनजाति दर्जा पाने के लिए बड़े परिमाण में आंदोलन हुए हैं, जिनमें से कुछ सफल रहे। इस बीच केंद्रीय और राज्य सरकारों ने कई नए समुदायों को अनुसूचित जनजाति की सूची में शामिल भी किया है, लेकिन यह प्रक्रिया अभी भी कई समुदायों के लिए लंबित है और मांग जारी है।  मणिपुर में मेइती समुदाय की भी इसी तरह की मांग पर भारी आंदोलन हुए, जिनमें केंद्र और राज्य सरकार को बार-बार आवाज उठानी पड़ी। 
एसटी समुदायों की सूची बढ़ती रही है 

अलग-अलग राज्यों में चले आंदोलन की वजह से अनुसूचित जनजाति सूची में कई नए समुदायों को एसटी सूची में जोड़ा गया है। उदाहरण के तौर पर छत्तीसगढ़ में भुइंया, भुइयान, भुयां (भारिया भूमिआ समुदाय के पर्यायवाची), धनुहार, धनुवार, किसान, नागसिया, सावरा/सौनर, सौनरा, धनगर, बिंझिया, कोडाकू, गड़बा-गड़बा, भरिया, पांदो को अनुसूचित जनजाति का दर्ज़ा देने के लिए प्रस्ताव पारित हुआ है।अनुमान है कि इससे 12 समुदायों के लगभग एक लाख लोगों को इसका लाभ मिलेगा। 

नारिकोरावन और कुरीविक्करन तमिलनाडु राज्य की खानाबदोश जनजातियाँ हैं, जिन्हें हाल ही में अनुसूचित जनजाति (एसटी) का दर्जा दिया गया है। ये जातियां पारंपरिक रूप से शिकार करने और अन्य छोटे-मोटे कामों में संलग्न थीं। 2023 में नारिकोरावन, कुरीविकरन समुदायों को अनुसूचित जनजाति सूची में शामिल करने की अधिसूचना जारी की गई। 

कर्नाटक में, "बेटा कुरुबा" और "काडु कुरुबा" एक ही वनवासी आदिवासी समुदाय हैं। "काडु कुरुबा" का अर्थ है "जंगल के आदिवासी" और बेट्टा कुरुबा समुदाय के लिए एक पर्यायवाची शब्द के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। यह समुदाय मुख्य रूप से चामराजनगर, कोडागु और मैसूर जिलों में निवास करता है, जो वनोपज और बांस का संग्रह करते हैं। दिसंबर 2022 में संसद ने बेटा-कुरुबा समुदाय को अनुसूचित जनजाति की सूची में शामिल करने के लिए एक विधेयक पारित किया है। 

हट्टी जनजाति हिमाचल प्रदेश के सिरमौर जिले के ट्रांस-गिरि क्षेत्र में रहने वाला एक समुदाय है, जो उत्तराखंड के साथ सीमा साझा करता है। इनका नाम उनके पारंपरिक व्यवसाय "हाट" या स्थानीय बाज़ारों में "हाटों" में व्यापार करने से लिया गया है। हट्टी समुदाय को अगस्त 2023 में अनुसूचित जनजाति का दर्जा दिया गया। वे अपनी पारंपरिक बहुपति प्रथा के लिए जाने जाते हैं, जिसमें एक महिला एक से अधिक भाइयों के साथ विवाह करती है, हालांकि यह अब कम प्रचलित है। समुदाय के सामाजिक और सामुदायिक निर्णय पारंपरिक परिषद "खुंबली" द्वारा लिए जाते हैं।  

केंद्रीय मंत्रालय के अनुसार, 2022 तक 730 से अधिक समुदायों को अनुसूचित जनजाति की सूची में शामिल किया जा चुका है। नए समुदायों को सूची में शामिल करने की प्रक्रिया राज्य सरकारों के प्रस्तावों, केंद्रीय सरकार के मंत्रालय के परीक्षण और राष्ट्रीय आयोग की स्वीकृति के बाद संसद द्वारा संविधान की अनुसूची में संशोधन कर पूरी होती है। ये समुदाय अब केंद्र सरकार द्वारा अनुसूचित जनजाति के अधिकारों और सुविधाओं का लाभ उठा रहे हैं।
कोई समुदाय एसटी कैसे बनता है?

संविधान सभा में अनुसूचित जनजाति की परिभाषा पर लंबा विमर्श हुआ था। डॉ. भीमराव अंबेडकर की मान्यता रही कि जनजाति को कोई परिभाषा देना आसान नहीं है। उन्होंने ज़ोर दिया कि इसे प्रशासनिक सुविधा और ऐतिहासिक पहचान के आधार पर ही तय किया जाए। जवाहरलाल नेहरू और जयपाल सिंह मुंडा के बीच बहस में यह साफ हुआ कि जनजातीय पहचान केवल जातीय प्रश्न नहीं है, बल्कि सांस्कृतिक स्वायत्तता और आत्म-शासन का प्रश्न भी है। अंततः यह तय हुआ कि संविधान में जनजाति की कोई कानूनी परिभाषा नहीं दी जाएगी। बल्कि राष्ट्रपति को शक्ति होगी कि वे किसी समुदाय को अनुसूचित जनजाति घोषित करें।

संवैधानिक प्रावधान के मुताबिक अनुच्छेद 366(25) के अनुसार अनुसूचित जनजाति वे समुदाय हैं जिन्हें अनुच्छेद 342 के अंतर्गत राष्ट्रपति द्वारा घोषित किया गया हो। अनुच्छेद 342 कहता है कि राष्ट्रपति, राज्यपाल से परामर्श कर किसी भी जाति, जनजाति या समूह को अनुसूचित जनजाति घोषित कर सकते हैं। संसद को यह अधिकार है कि वह चाहे तो इस सूची में संशोधन करे (जोड़ना या हटाना)। यानी एसटी सूची में अंतिम निर्णय संसद का होता है।
लेकिन किसी समुदाय को एसटी घोषित करने की प्रक्रिया की शुरुआत राज्य सरकार की सिफारिश से होता है।   राज्य सरकार प्रस्ताव तैयार करती है और आवश्यक शोध/अध्ययन के साथ केंद्र के जनजाति मामलों के मंत्रालय को भेजती है। भारत सरकार का जनजातीय कार्य मंत्रालय प्रस्ताव की जाँच करता है। रजिस्ट्रार जनरल ऑफ इंडिया देखता है कि समुदाय की पहचान; जनगणना और ऐतिहासिक रिकॉर्ड से मेल खाती है या नहीं। इसके बाद राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग अपनी सिफारिश देता है। केंद्र सरकार अपनी मंजूरी देती है और प्रस्ताव को संसद में रखती है। संसद संशोधन विधेयक पारित कर एसटी सूची में समुदाय को जोड़ता है। यानी अंतिम चरण संसद का है। तत्पश्चात राष्ट्रपति द्वारा अधिसूचना जारी की जाती है।  

अनुसूचित जनजाति घोषित होने के मापदंड

संविधान ने अनुसूचित जनजाति की कोई स्पष्ट परिभाषा नहीं दी है। लेकिन 1965 में भारत सरकार की लोकुर कमेटी ने कुछ मानदंड तय किए, जिन्हें आज तक माना जाता है। इन मानदंडों में प्राकृतिक अलगाव कि बात कि गई है यानि  समाज मुख्यधारा से अलग रहकर अपने पारंपरिक रीति-रिवाज बनाए रखे। वह समुदाय भौगोलिक अलगाव यानि दूरदराज़, कठिन भौगोलिक परिस्थितियों में निवास करता हो। उनमें सामाजिक-आर्थिक पिछड़ापन व्याप्त हो। यह पिछड़ापन  शिक्षा, स्वास्थ्य, रोज़गार आदि में मुख्यधारा से पिछड़ापन तथा अन्य समाजों से पिछड़ापन की बात करता है। और एक और महत्वपूर्ण मानदंड है उक्त समुदाय की विशिष्ट संस्कृति, अपनी भाषा, कला, धर्म, देवी-देवता, परंपरा आदि। यह भी देखा जाता है कि मुख्यधारा से उक्त संयदाय का कम संपर्क यानि शेष समाज के साथ कम मेल-जोल। इन मापदंडों को बाध्यकारी न मानकर केवल मार्गदर्शी  माना गया है। अंततः अंतिम फैसला राजनीतिक ही होता है। 

समस्या और चुनौती

चुनावी राजनीति में समुदायों को जोड़ने की होड़ रहती है। संख्या बल और राजनीतिक रुझान के आधार एसटी घोषित किए जाने के लिए राजनीतिक दबाव बनाया जाता है। सच पूछिए तो एसटी घोषित किए जाने के लिए  वैज्ञानिक मानदंड की कमी है। लोकुर समिति के मानदंड लचीले हैं, हर समुदाय अपने हिसाब से इसकी व्याख्या करता है। इससे हमेशा राजनीतिक विवाद होते रहते हैं। एसटी होने कि लड़ाई संसाधनों की साझेदारी से जुड़ी है। नौकरियों के अवसर कम हैं और आजीविका के संसाधनों का लगातार ह्रास हो रहा है। ऐसे में एसटी सूची बढ़ने से मौजूदा जनजातियों में असुरक्षा फैलती है। संवैधानिक प्रक्रिया की जटिलता  अंतिम निर्णय संसद का होता है, लेकिन कई बार राजनीति इसमें हावी हो जाती है।

अनुसूचित जनजाति का दर्जा पाना सिर्फ़ किसी समुदाय की मांग पर नहीं, बल्कि इतिहास, सामाजिक-आर्थिक स्थिति, सांस्कृतिक विशिष्टता और संवैधानिक प्रक्रिया पर आधारित है। संविधान सभा ने इसे जानबूझकर परिभाषित नहीं किया ताकि राज्यों और केंद्र सरकार को लचीलापन मिले। झारखंड का कुड़मी विवाद इसी बड़ी बहस का हिस्सा है। सवाल केवल दर्जे का नहीं, बल्कि समानता और न्याय का भी है। किसे संरक्षण मिले और किस आधार पर, सुप्रीम कोर्ट ने साफ़ कर दिया है कि यह निर्णय सिर्फ़ संसद ही ले सकती है।
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