लद्दाख की बर्फीली वादियों में इस समय सिर्फ़ ठंडक ही नहीं है, बल्कि वहाँ लोकतंत्र और संविधान की भी परीक्षा हो रही है। प्रसिद्ध पर्यावरणविद और शिक्षा सुधारकसोनम वांगचुककी हाल की गिरफ़्तारी ने एक बार फिर पूरे देश का ध्यान इस छोटे से लेकिन रणनीतिक रूप से बेहद अहम क्षेत्र की ओर खींच लिया है। सवाल है कि क्या लद्दाख के लोगों को भारत के भीतर रहते हुए भी अपनी ज़मीन, संसाधन और संस्कृति की रक्षा करने का संवैधानिक हक़ मिल पाएगा?
इस पूरे संघर्ष के केंद्र में हैछठी अनुसूचीकी मांग। लद्दाख की जनता वर्षों से कह रही है कि उनकी विशिष्ट भौगोलिक, सांस्कृतिक और सामाजिक परिस्थितियों को देखते हुए उन्हें वही सुरक्षा मिलनी चाहिए जो पूर्वोत्तर के राज्यों को प्राप्त है। मगर केंद्र सरकार इस मांग से कन्नी काट रही है। सोनम वांगचुक का तर्क है कि बिना छठी अनुसूची के, न तो लद्दाख की भूमि सुरक्षित रहेगी, न खनिज संपदा, न पश्मीना-चरवाहों का भविष्य। संसाधनों पर बाहरी कंपनियों और चीन का कब्ज़ा लोकतांत्रिक राज के लिए बड़ा खतरा है।
छठी अनुसूची: सुरक्षा, शक्ति और स्वायत्तता
2019में अनुच्छेद 370 हटने के बाद जब जम्मू-कश्मीर को दो हिस्सों में बाँटा गया, तो लद्दाख के लिए यह जश्न का मौका था। लोगों को लगा कि अब उन्हें सीधा केंद्र से जुड़ने का लाभ मिलेगा। लेकिन कुछ ही वर्षों में निराशा गहराने लगी। लद्दाख के पासहिल डेवलपमेंट काउंसिलहै, लेकिन उसके पास निर्णय लेने की स्वतंत्रता नहीं है। बजट, नीति और संसाधनों पर अंतिम अधिकार केंद्र सरकार और नौकरशाही के हाथ में है। भाजपा और एनडीए ने अपने चुनावी घोषणा-पत्र में लद्दाख को छठी अनुसूची में शामिल करने का वादा किया था। केंद्र सरकार के तीन मंत्रालय भी इस तर्क से सहमत हैं कि लद्दाख की 97% आबादी आदिवासी है और उसे छठी अनुसूची का हक़ मिलना चाहिए। स्थानीय लोग कहते हैं कि उनकी ज़मीन, खनिज और चरागाह बिना उनकी अनुमति के कंपनियों और सेना को सौंपे जा रहे हैं। यही कारण है कि छठी अनुसूची की मांग तेज़ हुई, ताकिग्राम सभा और स्वायत्त परिषदेंवास्तविक निर्णय ले सकें।
छठी अनुसूची भारतीय संविधान के अनुच्छेद 244(2) और 275(1) के तहत चार पूर्वोत्तर राज्यों को मिला स्वायत्त अधिकार है। छठी अनुसूची क्षेत्र में स्वायत्त जिला परिषदों का प्रावधान हैजो भूमि, जंगल, और संसाधनों पर नियंत्रण का अधिकार रखती है। आदिवासियों की परंपरागत न्याय व्यवस्था और स्थानीय प्रशासन में जनजातीय समुदायों को आत्मनिर्णय का अधिकार है। बाहरी लोगों को भूमि हस्तांतरित करने पर प्रतिबंध का अधिकार छठी अनुसूची के क्षेत्राधिकार में है।खनिज संसाधनों के दोहन पर स्थानीय सहमति अनिवार्य है। यानी वास्तविक निर्णयशक्ति स्थानीय परिषदों के हाथ में सौंपी जाती है। यही व्यवस्था लद्दाख के लोग भी चाहते हैं—लेकिन सरकार और कॉर्पोरेट गठजोड़ को यही बाधा लगती है।
लद्दाख की जनसांख्यिकी : पहचान का संकट
लद्दाख की आबादी लगभग3 लाख 20 हज़ारहै। इसमें46% बौद्ध, 47% मुस्लिम (मुख्यतः शिया और सुन्नी) और शेष अन्य समुदायहैं। इस क्षेत्र में लेह (बौद्ध बहुल) और कारगिल (मुस्लिम बहुल) का विषम सामाजिक गणित है। यह आदिवासी बहुल क्षेत्र है, जहाँ जीवन का आधार प्रकृति और सामुदायिक व्यवस्था है। लेकिन जनसंख्या कम होने के कारण लोगों को डर है कि बाहरी पूँजी और प्रवासियों के दबाव में उनकी संस्कृति और पहचान मिट जाएगी। छठी अनुसूची लागू होने से छोटे समुदायों ब्रोपा, बाल्टो, चांगपा को प्रतिनिधित्व और अधिकार मिलेगा। वर्तमान परिषदों के पास शक्ति सीमित है; भूमि और प्राकृतिक संसाधनों पर सुरक्षित स्वामित्व संभव नहीं। छठी अनुसूची इस पहचान और जनसंख्या संरचना कोसंवैधानिक ढालप्रदान कर सकती है।
चरवाहों और आम लोगों का संकट
लद्दाख की पहचान सिर्फ़ सैनिक चौकियों या पर्यटन स्थलों से नहीं है। यहाँ की असली आत्मा हैं, चरवाहे और स्थानीय किसान। आज उनकी चारागाहें सिकुड़ रही हैं। चीन ने धीरे-धीरे सीमा पर कब्ज़ा कर कई पारंपरिक चराई क्षेत्रों को अपने अधीन कर लिया है। वहीं, अंदरूनी हिस्सों में बड़ी-बड़ी परियोजनाएँ और कंपनियाँ जमीन पर कब्ज़ा कर रही हैं।परिणाम यह हुआ कि सदियों से पालतू याक, भेड़ और बकरियों पर निर्भर रहने वाली आबादी की आजीविका बिखर रही है। प्रसिद्धपश्मीना ऊनका उत्पादन घटने लगा है।
धारा 370 हटने के बाद यहाँ वनाधिकार कानून 2006 के लागू होने का मार्ग खुल गया है। वनाधिकार कानून के तहत यहाँ के चरवाहे वन भूमि पर चराई के परंपरागत अधिकार को कानूनी मान्यता देने के लिए सामुदायिक पट्टा कि मांग कर रहे हैं। सोनम वांगचुक का कहना है कि चराई की अधिकतर जमीनें कंपनियों को लीज़ पर दी जा रही हैं।
भूमि पर चीन के अतिक्रमण की वजह से भी चरवाहे संकट में हैं। आधुनिक प्रोजेक्ट्स के नाम पर भूमि अधिग्रहण, पश्मीना व्यवसाय की तुलना में खनन का दबाव, और सीमा विवाद से स्थानीय आजीविका खतरे में पड़ गई है। पैंगोंग झील, गलवान घाटी और उपग्रा क्षेत्रों में चीन का कब्ज़ा केवल सुरक्षा नहीं, स्थानीय किसानों और चरवाहों के लिए भी संकट है। यहाँ के लोगों को भरोसा है कि छठी अनुसूची से चरवाहों और स्थानीय समुदायों को यह अधिकार मिलेगा कि वे तय कर सकें कौन-सी भूमि किसके उपयोग में आएगी।
खनिज संपदा : सरकार की हिचक का असली कारण?
लद्दाख केवल पर्यटन और पाश्मीना ऊन के लिए ही नहीं, बल्कि अपनीखनिज संपदाके लिए भी जाना जाता है। यहाँ के पहाड़ों मेंलिथियम, यूरेनियम, तांबा, सोना और दुर्लभ खनिज मौजूद हैं। वैश्विक बाज़ार में इनकी कीमत अरबों-खरबों में है। लद्दाख की ज़मीनसौर ऊर्जा और पवन ऊर्जापरियोजनाओं के लिए भी सबसे उपयुक्त मानी जाती है।
लिथियम, जो इलेक्ट्रिक वाहनों और बैटरी उद्योग की रीढ़ है, वैश्विक स्तर पर सोने से भी महँगा साबित हो रहा है। अनुमान है कि लद्दाख के पास लिथियम और रेयर अर्थ मेटल्स का ऐसा भंडार है, जो भारत की ऊर्जा क्रांति में निर्णायक भूमिका निभा सकता है। भारत अभी भी इन खनिजों का बड़ा भाग आयात करता है। यदि इन संसाधनों का उत्खनन / प्रक्रमण स्थानीय स्तर पर हो सके, तो आयात निर्भरता कम होगी; लेकिन पर्यावरण, स्थानीय समुदाय, लागत आदि चुनौतियाँ बहुत बड़ी हैं। कंपनियाँ और बहुराष्ट्रीय खनन घराने इन संसाधनों पर नज़र गड़ाए हुए हैं। यदि छठी अनुसूची लागू हो जाती है तो इन संसाधनों पर सबसे पहले अधिकार स्थानीय जनता और उनकी काउंसिल का होगा। यही कारण है कि सरकार और कॉरपोरेट जगत इस मांग से हिचकता है।
यहाँ कुछ बिंदु हैं जो बताते हैं कि खनिजों और उनकी संभावनाओं की वजह से सरकार (और बड़े उद्योग) क्यों छठी अनुसूची की मांग को टालना या सीमित करना चाहते हैं:
नियंत्रण और राजस्व- यदि खनन की अनुमति, लाइसेंस, आय, कर, रॉयल्टी आदि निर्णय स्थानीय स्वायत्तता परिषदों के हाथ में जाएँगे, तो केंद्र और राज्य सरकारों की आय स्रोत और नियंत्रण कम होंगे।
अन्य उद्योगों का प्रभाव- बड़ी ऊर्जा परियोजनाएँ, पर्यटन, सैन्य आधार, फोन / बैटरी कंपनियाँ, निवेश होल्डर, सभी को खनिज उत्पादन और निर्यात नेटवर्क चाहिए। यदि स्थानीय समुदायों को पूर्ण अनुमति न्यायसंगत स्तर पर मिले, तो लागत, समय, पर्यावरणीय अनुमति आदि की माँग बढ़ेगी।
पर्यावरणीय / सामाजिक लागत- पहाड़ी इलाकों में खनन से पर्यावरण, जल स्रोत, चराई भूमि, पारंपरिक जीवनशैली प्रभावित होती है। स्थानीय विरोध या अभियोजन/सर्वेक्षण की प्रक्रिया लंबी होगी, जिससे निर्णय प्रक्रिया धीमी होगी।
राजनीतिक शक्ति और सत्ता संतुलन- स्थानीय स्वायत्तता सुनिश्चित करने का मतलब राजनीतिक दलों की पहुँच को सीमित करना, वे वोट बैंक, ज़मींदारी, एजेंसियों का उपयोग, प्रशासनिक नियुक्तियाँ आदि का नियंत्रण कम कर सकते हैं।
मणिपुर का संदर्भ: समान मांग, अलग परिप्रेक्ष्य
पूर्वोत्तर के कई इलाकों में भी यही मांग उठ रही है। उदाहरण के लिएमणिपुर। वहाँकुकी और नागा जनजातियाँलगातार कह रही हैं कि उन्हें छठी अनुसूची का संरक्षण दिया जाए। लेकिन सरकार वहाँ भी हिचक रही है।
मणिपुर की स्थिति ने यह साबित कर दिया कि यदि स्थानीय समुदायों को संवैधानिक सुरक्षा नहीं मिलती, तो असंतोष हिंसक संघर्ष में बदल सकता है। यही खतरा लद्दाख में भी दिख रहा है, जहाँ स्थानीय लोग दिल्ली से नियंत्रण नहीं, बल्कि स्थानीय स्वामित्व चाहते हैं।
लोकतंत्र या उपनिवेशवाद?
सोनम वांगचुक का आंदोलन याद दिलाता है कि संविधान केवल केंद्र के लाभ के लिए नहीं बना है, बल्कि हर नागरिक, हर हिमालयी गाँव की आवाज में भी उसकी शक्ति होनी चाहिए। छठी अनुसूची लद्दाख के लिए जरूरी है। इस महत्वपूर्ण क्षेत्र के सांस्कृतिक संरक्षण, आर्थिक स्वायत्तता और न्यायपूर्ण विकास के लिए जरूरी है। लेकिन सरकार का डर कॉर्पोरेट दबाव, सामरिक चिंता और राजनीतिक गणित के बीच फँसा हुआ है। विकास का अर्थ केवल बाह्य कंपनियों के प्रोजेक्ट नहीं, बल्कि स्थानीय लोगों की सहभागिता और अधिकार है।
क्या दिल्ली लोकतंत्र की इस परीक्षा में पास होगी, या फिर लद्दाख की कहानी ऊर्जा क्रांति के खजाने से आगे केवल अविश्वास और हाशिये की बनकर रह जाएगी?