झारखंड में हाल ही में आरंभ किया गया सीओपी (कॉन्फ्रेंस ऑफ पंचायत) जलवायु परिवर्तन और ग्राम लोकतंत्र के संगम का एक अभिनव प्रयोग है। वैश्विक स्तर पर जहाँ चर्चासीओपी (कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टी)बड़े देशों और नीति-निर्माताओं का सम्मेलन होता है, वहीं यहाँ गाँव की ग्राम सभाएँ खुद अपने स्तर पर जलवायु संकट से जूझने के लिए ठोस निर्णय कर रही हैं। झारखंड के 400 से अधिक पंचायतों ने इस पहल की शुरुआत की है, और यह प्रयोग न केवल भारत बल्कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी एक मिसाल बन सकता है।
विश्व स्तर पर जब-जब जलवायु परिवर्तन पर बातचीत होती है, तो सबसे अधिक चर्चासीओपी (कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टी) की होती है। हर साल शक्तिशाली देश और नीति निर्माता इकट्ठा होते हैं, जलवायु संकट पर गंभीर विमर्श करते हैं, संकल्प लेते हैं, वादे करते हैं, परंतु ज़मीनी स्तर पर यह सवाल बार-बार खड़ा होता है कि इन घोषणाओं का असर वास्तव में उन लोगों तक कब और कैसे पहुँचेगा, जो सबसे पहले और सबसे गहरे स्तर पर इस संकट की मार झेल रहे हैं?
झारखंड जैसे राज्य, जहाँ आदिवासी और ग्रामीण समुदाय रहते हैं, इस वैश्विक संकट के सबसे बड़े शिकार हैं। विडंबना यह है कि इन समुदायों का जलवायु संकट पैदा करने में कोई योगदान नहीं है। वे न तो बड़े पैमाने पर औद्योगिक कारखाने चलाते हैं, न ही पेट्रोल-डीजल आधारित उपभोग पर आधारित जीवन जीते हैं। इसके बावजूद, सूखा, बेमौसम बारिश, तेज़ आँधी-तूफ़ान और जंगलों की तबाही सबसे अधिक इन्हीं को झेलनी पड़ती है।ऐसे समय में झारखंड के 400 से अधिक पंचायतों ने एक अनोखी पहल की है—कॉन्फ्रेंस ऑफ पंचायत”, यानीलोक सीओपी। यहाँ गाँव की ग्राम सभाएँ स्वयं यह तय करती हैं कि जलवायु संकट से निपटने के लिए वे अपने जल, जंगल और जमीन का कैसे सतत उपयोग करें।
वैश्विक परिप्रेक्ष्य और स्थानीय पहल
जलवायु परिवर्तन आज पूरे विश्व के सामने सबसे बड़ी चुनौती है। बढ़ते तापमान, अनियमित वर्षा, बाढ़ और सूखा जैसी प्राकृतिक आपदाएँ किसानों, भूमिहीन मजदूरों और आदिवासी समुदायों को सबसे पहले और सबसे गहरे स्तर पर प्रभावित करती हैं। झारखंड के ज्यादातर इलाकों में 90 दिनों से ज्यादा समय से लगातार बारिश हो रही है। लगातार बारिश ने खेती और इससे जुड़ी सारी अर्थव्यवस्था को चौपट कर दिया है। संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन फ्रेमवर्क के अंतर्गत हुए सभी सीओपीसम्मेलनों में गरीब देशों और आदिवासियों को सबसे ज़्यादा प्रभावित लेकिन सबसे कम जिम्मेदार माना गया है।
झारखंड जैसे राज्य में, जहाँ अधिकांश जनसंख्या ग्रामीण और बड़ी संख्या में आदिवासी समुदाय रहते हैं, यह सच्चाई और भी तीखी हो जाती है। यहाँ के गाँवों ने भले ही औद्योगिक कार्बन उत्सर्जन में कोई योगदान न दिया हो, लेकिन खनन, वनों की कटाई और जलवायु असंतुलन के कारण उनकी आजीविका पर गहरा संकट है। पश्चिम सिंहभूम के सादोबासा गाँव के मुंडा सुधीर बिरुली कहते हैं कि कॉन्फ्रेंस ऑफ पंचायत यह साबित करता है कि अगर अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर देशों की सरकारें फैसले लेने में समय लगाती हैं,तो स्थानीय समुदाय बिना इंतजार किए अपने समाधान खुद खोज सकते हैं।
कॉन्फ्रेंस ऑफ पंचायत की संकल्पना
जलवायु परिवर्तन को लेकर झारखंड सहित कई राज्यों में कार्य कर रही संस्था ‘असर’ के क्षेत्रीय निदेशक मुन्ना झ कहते हैं कि जलवायु परिवर्तन केवल एक वैश्विक मुद्दा नहीं है, बल्कि अब एक स्थानीय आपातकाल है। इसके लिए गवर्नेंस के सभी स्तरों पर समन्वित (को-ऑर्डिनेटेड) समाधान की आवश्यकता है।संयुक्त राष्ट्र के कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीसे प्रेरित होकर सीओपी (कॉन्फ्रेंस ऑफ पंचायत) जमीनी स्तर पर समुदायों की आवाज़, सोच और दृष्टिकोण को इकट्ठा कर स्थानीय ज़रूरतों तथा रणनीतियों पर ध्यान केंद्रित करता है। इस पहल का केंद्रीय विचार है कि प्रत्येक पंचायत एक तरह से अपना ‘छोटा सीओपी’बने। ग्राम सभाएँ स्वयं बैठकर जल-जंगल-ज़मीन के उपयोग और उसके संरक्षण पर निर्णय लें। यह सोच लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण और पर्यावरणीय न्याय की दिशा में एक बड़ा प्रयोग है। 400 पंचायतों ने यह तय किया है कि उनके इलाकों में तालाब-कुआँ-जलस्रोतों को पुनर्जीवित करने, जंगलकी सुरक्षा करने और सामुदायिक खेती को प्रोत्साहित करने की योजनाएँ ग्राम स्तर पर तैयार की जाएँगी।ग्राम सभा खुद अपनी “जलवायु कार्ययोजना” बनाएगी।इसमें स्थानीय ज्ञान जैसे बीज संरक्षित करना, परंपरागत जल संरक्षण तकनीकें, और पारंपरिक वनों का प्रबंधन निर्णय की धुरी होंगे।यह पूरी प्रक्रिया नीचे से ऊपर (बाटम ऑफ अप्रोच) की है, जोअंतर्राष्ट्रीय सीओपीकी शीर्ष-से-नीचे (टॉप दोन अप्रोच) पद्धति से अलग है।
आदिवासी गाँव और जलवायु न्याय
झारखंड के आदिवासी गाँव जलवायु न्याय की अवधारणा को अपने क्रियान्वयन से नए आयाम दे रहे हैं।आदिवासियों की जीवन शैली ही प्राकृतिक संसाधनों के सतत उपयोग पर आधारित है। उनका संबंध जंगलों, नदियों और खेतों से केवल आर्थिक नहीं बल्कि सांस्कृतिक और आध्यात्मिक भी है।जलवायु संकट ने वर्षा चक्र को अनियमित बना दिया है, जिससे खरीफ फसलें प्रभावित हुई हैं। छोटे किसान धान की खेती से पलायन करके मजदूरी पर आश्रित हो रहे हैं।इस चुनौती से निबटने के लिए ग्राम सभाएँ साझा बीज भंडार बना रही हैं, ताकि सूखा-सहिष्णु स्थानीय किस्मों को बढ़ावा मिले। इस तरह यह पहल महज योजनाओं का निर्माण नहीं है, बल्कि आदिवासी जीवन पद्धति के आधार पर टिकाऊ विकास की ओर लौटने का प्रयास है।
ग्राम सभा लोकतंत्र की मूल इकाई मानी जाती है। जलवायु परिवर्तन के संदर्भ में जब वही इकाई अपनी स्थानीय आवश्यकताओं और चुनौतियों को समझते हुए निर्णय लेती है, तो यह असली “क्लाइमेट कॉन्फ्रेंस” बन जाती है।जल प्रबंधन के लिए तालाबों और आहर-पइन जैसे स्थानीय जलसंरक्षण साधनों को पुनर्जीवित करने के फैसले लिए जा रहे हैं। जंगल प्रबंधन के लिए सामूहिक रूप से तय किया गया है कि किस जंगल क्षेत्