सारंडा अभयारण्य और ग्रेटर निकोबार विकास परियोजना के बीच विरोधाभासी फैसले पर्यावरण संरक्षण और क्षेत्रीय विकास की जटिल चुनौतियों को दर्शाते हैं। सारंडा और ग्रेटर निकोबार, दोनों ही भारत के पारिस्थितिक ख़ज़ाने हैं। एक पहाड़ी साल का वन, दूसरा सागर का हरित द्वीप। फिर क्यों एक जगह सरकार जंगल बचाने के नाम पर गाँववालों के जीवन पर पहरा बिठाना चाहती है, और दूसरी जगह उसी सरकार ने प्राकृतिक जंगलों कोकंक्रीट के बंदरगाहोंमें बदलने की इजाज़त दे दी? क्या पर्यावरण अब केवल उस जगह तक सीमित है जहाँ खनन नहीं हो सकताऔर ‘विकास’ वहाँ अनिवार्य है जहाँ कॉरपोरेट निवेश दिखता है?
झारखंड के सारंडा जंगल को वन्यजीव अभयारण्य घोषित करने का प्रस्ताव और दूसरी ओर केंद्र सरकार द्वारा ग्रेटर निकोबार द्वीप पर एक विशाल विकास परियोजना की मंज़ूरी, दोनों निर्णय एक ही समय में सामने आए हैं। सारंडा में वन्यजीव अभयारण्य घोषित करने में सुप्रीम कोर्ट हड़बड़ी और ग्रेटर निकोबार में बड़े पैमाने पर विकासकार्यों से होने वाले विनाश पर चुप्पी बताती है कि हमारी नीतियों का तराज़ू अब भी संतुलित नहीं है? दोनों मामलों में ग्राम सभा और आदिवासियों के प्राकृतिक अधिकारों की अनदेखी हुई है, जबकि ये क्षेत्र जैव विविधता और पारिस्थितिकीय दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण हैं।
सारंडा का जंगल: संरक्षण बनाम खनन
पश्चिम सिंहभूम के घने पहाड़ों में फैलासारंडाजंगल, एशिया का सबसे बड़ा सागवान (साल) वन माना जाता है। यहाँ के पेड़ सिर्फ़ जंगल नहीं, जनजातीय जीवन की सांस हैं। महुआ, साल, गूलर, आम, बहेड़ा और हजारों औषधीय पौधे इस भूमि की आत्मा हैं। लेकिन इस आत्मा पर अब ‘संरक्षण’ के नाम से एक नई तलवार लटक रही है। राज्य सरकार ने सारंडा को वन्यजीव अभयारण्य घोषित करने का प्रस्ताव भेजा है। सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया है कि 57,519 हेक्टेयर क्षेत्र को अभयारण्य और 13,603 हेक्टेयर को ‘ससंगदाबुरू संरक्षण रिज़र्व’ घोषित किया जाए। मंशा भले नेक हो, लेकिन इस पर ज़मीन के लोग बेचैन हैं। 56 गाँवों के मुँड़ाओं और ग्राम प्रधानों ने इस प्रस्ताव का विरोध किया है। उनका कहना है कियह जंगल हमारी आजीविका है, हमारी संस्कृति है। अभयारण्य बन गया तो हम कहाँ जाएंगे?
झारखंड के मंत्री समूह को ग्राम सभाओं ने पाँच प्रमुख माँगें सौंपी हैं। ग्रामीणों कि मांग है कि बिना ग्राम सभा की अनुमति के अभयारण्य की घोषणा न की जाए। पारंपरिक पूजा स्थलों की सुरक्षा सुनिश्चित हो। बंद पड़े खनन क्षेत्रों में रोजगार बहाल हो, शिक्षा व स्वास्थ्य सुविधाएँ बढ़ाई जाएँ तथा वन विभाग की कार्रवाई पारदर्शी बने। सारंडा की लड़ाई केवल पर्यावरण की नहीं, स्वामित्व और सम्मानकी भी है। यहाँ का हर पेड़, हर नदी जनजातीय आत्मनिर्भरता का प्रतीक है।
स्थानीय आदिवासी समुदाय अपने को दोराहे पर खड़ा पा रहे हैं। उन्हें डर है कि अभयारण्य बनने से उनकी पारंपरिक भूमि, जंगल उत्पाद, पशुपालन और छोटी खेती सब कुछ छिन जाएगा। 75,000 से ज्यादा लोगों की आजीविका दांव पर है। बार-बार शांतिपूर्ण विरोध, मंत्रियों की गाड़ियों का घेराव, ग्रामसभा की आपत्तियां, यह सब स्पष्ट करती है कि ‘संरक्षण’ भी स्थानीय दृष्टिकोण और ग्रामसभा की मुख्य भूमिका के बगैर जबरन थोपे गए विकास-पर्यावरण विमर्श जितना ही त्रासद हो सकता है।
ग्रेटर निकोबार: समंदर में विकास की सुनामी
दूसरी तरफ़, भारत के दक्षिणतम छोर पर ग्रेटर निकोबार में सरकार ने ‘समग्र विकास परियोजना’ को हरी झंडी दे दी है। यह वही द्वीप है जहाँनिकोबारीऔरशोम्पेनजैसे प्राचीन आदिवासी समुदाय रहते हैं, जिनकी आबादी बमुश्किल कुछ हजार है। यह परियोजना 166 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैले एक विशाल आधारभूत संरचना के निर्माण की योजना है। अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा, गहरे समुद्री बंदरगाह, ऊर्जा संयंत्र, औद्योगिक क्षेत्र और पर्यटन नगर। केंद्र सरकार का लक्ष्य है कि 2050 तक यहाँ की जनसंख्या 6.5 लाख तक पहुँचे।
पर्यावरणविदों के अनुसार, इस योजना से करीब10 लाख पेड़और विशालमैंग्रोव क्षेत्रनष्ट होंगे। गालाथेया बे वाइल्ड लाइफ सैनचुरी, जहाँ दुर्लभलेदर बैक कछुएअंडे देते हैं, उसे ‘डिनोटिफाई’ यानी रद्द कर दिया गया। निकोबार की आदिवासी परिषद ने साफ कहा —‘हमसे परामर्श नहीं किया गया। यह हमारी भूमि है, हमारा जीवन है।‘ परियोजना के लिए घोषित ‘ट्राइबल रिजर्व एरिया’ को घटा दिया गया है। फ्रांस के अख़बार‘ले मोंडे’ ने इस परियोजना को‘पारिस्थितिक संहार’ कहा है, जबकि भारतीय वैज्ञानिकों ने आरोप लगाया है कि उन्हें सरकारी लाइन के अनुरूप रिपोर्ट देने के लिए दबाव में लाया गया।
सरकार का मत है कि इससे द्वीप तथा देश के समुद्री कारोबार, सुरक्षा और कनेक्टिविटी में जबर्दस्त बदलाव आएगा।विदेशी निवेश बढ़ेगा और लोगों को रोजगार मिलेगा। दूसरी ओर सोनिया गांधी जैसी वरिष्ठ नेता, पर्यावरण वैज्ञानिक और आदिवासी अधिकार कार्यकर्ता इसे अद्वितीय पारिस्थितिकी तंत्र के पर्यावरणीय विध्वंस का संकेत मानते हैं।10 लाख से अधिक पेड़ों की कटाई और हजारों निकोबारी लोगों के उजड़ने की त्रासदी इस आपदा–संवेदनशील इलाके में प्रलय का आमंत्रण है। अचरज यह कि वृक्ष कटाई की भरपाई के नाम पर हरियाणा में वनीकरण की योजना बनाई गई है, जो यहां की जैव विविधता से कोसों भिन्न है।
जलवायु संकट के इस दौर में, जब द्वीप वर्षों तक सुनामी और भूकंपों की मार झेल चुके हैं, ऐसे क्षेत्र में इतने बड़े पैमाने पर भूमि–जल और समुद्री इकोसिस्टम का ध्वंस, ग्रामसभा और स्थानीय जनजातियों से बिना समुचित सलाह-मशविरा, न सिर्फ संविधान और सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों की अनदेखी है, बल्कि सतत विकास की आत्मा का उपहास भी है। शेखर सिंह आयोग की रिपोर्ट, न्यायालय के आदेश और अंतरराष्ट्रीय मसौदों के बावजूद, ग्रेटर निकोबार प्रोजेक्ट सबसे कमजोर समुदायों पर सबसे भारी पड़ेगा।
वनाधिकार अधिनियम और ग्राम सभा की भूमिका
वनाधिकार अधिनियम, 2006 अनुसूचित जनजातियों और अन्य परंपरागत वनवासियों को वन भूमि पर उनके व्यक्तिगत और सामुदायिक अधिकारों की मान्यता देता है। यह अधिनियम ग्राम सभा को वनाधिकारों की प्रकृति और सीमा निर्धारित करने की प्रक्रिया में नेतृत्व प्रदान करता है। ग्राम सभा के पास चराई, मछली पकड़ना, जल निकायों के संरक्षण और खनिज पट्टों को मंजूरी देने या न देने का अधिकार भी होता है। पेसा अधिनियम द्वारा ग्राम सभा को स्थानीय प्राकृतिक संसाधनों, सांस्कृतिक संरक्षण, विवाद समाधान और विकास कार्यों में खुद निर्णय लेने का अधिकार है। परन्तु सारंडा और ग्रेटर निकोबार दोनों ही मामलों में यह देखा गया है कि आदिवासी ग्राम सभा की इस भूमिका को नजरअंदाज किया गया है, जिससे उनका नैसर्गिक और सांस्कृतिक अधिकार संकट में हैं।
यह कानून स्पष्ट करता है कि बिना ग्रामसभा की लिखित अनुमति न तो जंगल काटा जा सकता है, न जमीन अधिग्रहित, न ही लोगों का विस्थापन संभव है। लेकिन, हालिया वर्षों में संशोधित वन संरक्षण अधिनियम, कारपोरेट–अनुकूल नियमों और न्यायिक आदेशों की अवहेलना करते हुए, सरकारें कंपनी हितों के लिए आदिवासी ग्रामसभाओं की स्वायत्तता को लगातार कमजोर कर रही हैं। ओडिशा, छत्तीसगढ़, झारखंड से लेकर अंडमान–निकोबार तक सैकड़ों ग्रामसभाएं वर्षों से अपने हक के लिए संघर्षरत हैं।
सारंडा–निकोबार दोनों ही उदाहरण दिखाते हैं कि सरकारी—कॉर्पोरेट गठजोड़ के आगे ग्रामसभा, पंचायत, स्थानीय संस्थाएं और कानून की स्पष्ट व्यवस्थाएं बेमानी साबित होती जा रही हैं। किसको जमीन चाहिए, किसकी आजीविका बर्बाद होगी, किसकी संस्कृति खत्म होगी—यह सब जाने बिना और सीधे प्रभावितों से विमर्श के बिना ही विकास कार्यों के फैसले लिए जा रहे हैं।
वनाधिकार मामलों में अदालत स्वयं कई बार कह चुकी है कि बिना पूर्व ग्रामसभा स्वीकृति के कोई अधिग्रहण / वृक्ष कटाई अमान्य है। लेकिन वास्तविकता यह है कि पर्यावरणीय मूल्यांकन, ग्रामसभा बैठकें, पीड़ितों का पक्ष—सभी प्रक्रिया महज औपचारिकता बन कर रह गई हैं। बार-बार कानूनों का अतिक्रमण और निर्णय–परिणामों में आदिवासी स्वायत्तता की अनदेखी इसका परिचायक है।
संरक्षण और न्याय का विरोधाभास कैसे पाटा जाए
समुदाय आधारित संरक्षण मॉडल को अपनाने का वक्त आ गया है।अभयारण्य बनने पर स्थानीय समुदाय को सह-प्रबंधन का अधिकार देना चाहिए। कौन से हिस्से में प्रतिबंध हों, कौन से हिस्से संचयी उपयोग के लिए खुले, यह ग्राम सभा के मार्फत समुदाय तय करे। आजीविका विकल्पों को बढ़ावा देना जरूरी है। — इसमें पारिस्थितिकी पर्यटन, गैर-विनाशकारी वन उत्पाद, हस्तशिल्प इत्यादि को शामिल किया जा सकता है।
विकास को पारिस्थितिकी अनुकूल रूप देने की संवैधानिक गारंटी को सुनिश्चित करना जरूरी है।ग्रेटर निकोबार जैसी परियोजनाओं में ‘माइक्रो-नेटवर्किंग दृष्टिकोण’ अपनाया जाए यानि छोटे पैमाने की विकास इकाइयाँ, कम घनत्वऔर सीमित क्षेत्र क्षरण का ध्यान रखा जाए। तटवर्ती क्षेत्र, संवेदनशील वन क्षेत्र, प्रवाल क्षेत्र आदि कोनो-गो क्षेत्रों के रूप में घोषित करना चाहिए। भारी उपकरणों, भूमि स्वच्छ, हाईड्रोकार्बन परियोजनाओं को आगे न बढ़ाया जाए। नाव-आधारित अर्थव्यवस्था (ब्लू इकोनोमी) पर जोर देना — सतत मत्स्यपालन, समुद्री संरक्षण इत्यादि कि पहल कि जानी चाहिए।
पारदर्शी और भागीदारी आधारित निर्णय प्रक्रिया सुनिश्चित हो।जन-परामर्श का चरण वास्तविक और प्रभावी होना चाहिए, न कि केवल औपचारिकता। अध्ययन रिपोर्ट, पर्यावरण एवं सामाजिक प्रभाव रिपोर्ट सार्वजनिक होनी चाहिए, और उसमें समुदायों की टिप्पणियाँ शामिल होनी चाहिए। प्रभावित समुदायों को स्पष्ट मुआवजे, पुनर्वास और विकलांगता विकल्प सुनिश्चित होना चाहिए।
मानवाधिकार एवं संवैधानिक न्याय की रक्षा निर्णय के केंद्र में होना चाहिए।किसी भी निर्णय में वनाधिकारका पूर्ण अनुपालन हो अधिकारों का मान्यता, विवाद निवारण, ग्राम सभाकी सहमति, ये सब संवैधानिक और कानूनी प्रश्न हैं और सरकारों की जिम्मेदारी है कि वो इसका अनुपालन करे। यदि प्रस्तावित विकास भूमि पहले से ट्राइबल रिजर्व या प्रोटेकटेड श्रेणी में थी, तो उसकी डिनोटिफिकेशन प्रक्रिया और कारणों की स्पष्ट व्याख्या होनी चाहिए। न्यायालय और पर्यावरण पीठों की निगरानी सुनिश्चित होनी चाहिए।
विकास योजनाएँ और संरक्षित क्षेत्र दोनों कोक्लाइमेट रेजिलिएंटहोना चाहिए जैसे, बाढ़, समुद्री दबाव, तूफ़ान, भूकम्प आदि से लचीलापन। पारिस्थितिकी सेवाओं के मूल्य को आर्थिक रूप से आंकना और निर्णयों में शामिल करना।
सारंडा और ग्रेटर निकोबार, दोनों ही देश के पर्यावरण धरोहर हैं। लेकिन हमारे फैसले और नीतियाँ यह तय करती हैं कि ये धरोहर नष्ट हों या सुरक्षित रहें। सारंडा में यदि अभयारण्य घोषित किया जाए और समुदाय को बाहर कर दिया जाए तो वह न्यायोचित नहीं होगा। उसी प्रकार, ग्रेटर निकोबार में यदि विकास अभयारण्य और जैव विविधता को नज़रअंदाज करते हुए हो तो वह अनियंत्रित और घातक हो सकता है। हमें ऐसे निर्णय लेने चाहिए जहाँसंरक्षण और विकास दोनों का संतुलनहो, और जहांआदिवासी और स्थानीय समुदायों की सहमति, उनकी स्वायत्तता और आजीविकाको अनदेखा न किया जाए। नीति-निर्माता, वन विभाग, पर्यावरण विशेषज्ञ और न्यायालयों को मिलकर एक मार्ग तैयार करना चाहिए जिसमें विकास का अर्थ लूट या नुकसान न हो, बल्कि संवेदनशील न्याय से हो।
(लेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं।)