भारत के जंगल सिर्फ हरियाली नहीं, बल्किमनुष्य और प्रकृति के साझा जीवन की कहानीहैं। इन्हीं जंगलों में सदियों से बसेआदिवासी और अन्य वनाश्रित समुदायअब एक नए संकट से जूझ रहे हैं —“घर” बनाने का अधिकार। हाल ही मेंसुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को नोटिसजारी किया है। सवाल यह है कि — “क्या वन भूमि पर पारंपरिक रूप से बसे समुदायों को अपने घर पक्का करने का अधिकार है?” यह प्रश्न केवल कानून की व्याख्या नहीं, बल्किमानवीय गरिमा, संवैधानिक अधिकार और विकास की परिभाषासे जुड़ा हुआ है।
देश के करोड़ों आदिवासी और अन्य वनाश्रित समुदाय जंगलों में पीढ़ियों से अपने घर बनाए हुए हैं। उनके लिए जंगल सिर्फ रहने की जगह नहीं, बल्कि उनकी पहचान, संस्कृति, आजीविका और भविष्य का आधार है। लेकिन अब इसी जंगल की जमीन पर बने घरों की किस्मत और उन घरों में रहने वालों का भविष्य नए कानूनी आदेशों व सरकारी फरमानों के जाल में उलझ गया है। सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से पूछा कि जंगलों पर रह रहे लोगों के घरों का क्या होगा, तो बहस ने नया मोड़ ले लिया।
दो कानूनों की टकराहट का मामला
कई राज्यों में वन विभाग ने यह कहते हुए जंगल की जमीन पर घर निर्माण पर आपत्ति जता रही है किवन भूमि पर पक्का मकान बनाना वन संरक्षण अधिनियम, 1980 का उल्लंघन है। विभाग का तर्क है कि पक्के घर स्थायी संरचना की श्रेणी में आते हैं, जो वन भूमि के उपयोग में परिवर्तन के समान है। दूसरी ओर, प्रभावित समुदायों का कहना है कि वे उसी जमीन परपीढ़ियों से रह रहे हैं, औरवनाधिकार अधिनियम, 2006 उन्हें इस भूमि पर न केवल रहने, बल्कि खेती, जल, वन और अन्य आजीविका अधिकार भी देता है। वनाधिकार कानून, 2006 में व्यक्तिगत पट्टा का अधिकार है। वन भूमि पर निवासरत परिवार अपना आवेदन ग्राम सभा के माध्यम से प्रस्तुत कर सकते हैं। जांच के बाद उन्हें 4 एकड़ तक व्यक्तिगत खेती योग्य भूमि तथा घर का पट्टा मिल सकता है। कानून की व्याख्या में स्पष्ट है कि परिवार अपने पट्टे के क्षेत्र में घर बना सकते हैं। वनाधिकार कानून में परंपरागत रूप से प्रयुक्त जल, जंगल, जमीन के सामुदायिक अधिकार भी दिए जाने का प्रावधान है। वनाधिकार अधिनियम, 2006 की धारा 3(1)(a) साफ कहता है कि वन भूमि पर जो व्यक्ति पारंपरिक रूप से कब्जे में रह रहा है, उसे आवासीय उपयोग और खेती का अधिकार प्राप्त होगा। यानिजो परिवार जंगल में पीढ़ियों से रह रहे हैं, उन्हेंउस भूमि पर घर बनाने, खेत जोतने और संसाधनों का उपयोग करने का पूरा अधिकारहै। वन संरक्षण कानून, 1980 के तहत वनभूमि की सुरक्षा सर्वोपरि रखी गई है।इसके तहत पक्के निर्माण, वाणिज्यिक गतिविधि, और गैर-वन उपयोग सीमित किए गए हैं। वन विभाग अक्सर यह तर्क देता है कि मकान निर्माण से जंगल की पारिस्थितिकी को खतरा है। वन विभाग का तर्क है कि “पक्के घर” जंगल को नुकसान पहुंचाते हैं। लेकिन विशेषज्ञ मानते हैं किजंगल का असली नुकसान तब होता है जब वहां खनन, सड़क या उद्योग आते हैं। जंगल में बसे लोगों के घर पर्यावरण के लिए खतरा नहीं, बल्किसहअस्तित्व का उदाहरण हैं।
इसलिए नीति को “निषेध” नहीं, बल्किसंतुलनकी दिशा में जाना चाहिए। सरकार की इन नीतियों में विरोधाभास की स्थिति है। एक ओर वनाधिकार कानून घर निर्माण को मान्यता देता है, वहीं दूसरी ओर वन विभाग इसे चुनौती देता है। अमूमन जंगल की जमीन पर घरों का निर्माण परंपरागत सामग्री—मिट्टी, लकड़ी, घास—से ही होता आया है। लेकिन जलवायु परिवर्तन, असमय बर्षा, चक्रवात, आग, बाघ-भालू का खतरा ...इन सबसे सुरक्षा के लिए मजबूत, टिकाऊ, मौसम-बंद मकान जरूरी हैं। यही वैश्विक मानवाधिकार का मानक है—'हर व्यक्ति को गर्मी-सर्दी-बरसात से बचाव देने वाला घर मिलना चाहिए'। विशेषज्ञ मानते हैं, स्थानीय पारिस्थितिकी के अनुकूल डिज़ाइन अपनाकर, गांवों में पक्के और सुरक्षित आवास बनाए जा सकते हैं—जंगल व वन्य जीवों की सुरक्षा से समझौता किए बिना।
आदिवासियों व अन्य वनाश्रित समुदायों के आवास संबंधी अधिकारों की रक्षा हेतु सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को नोटिस जारी कर कानूनी स्थिति स्पष्ट करने को कहा है। न्यायालय इस मुद्दे को संविधान के अनुच्छेद 21 (जीवन और सम्मानजनक आवास का अधिकार), वनाधिकार कानून तथा पर्यावरण संरक्षण के मध्य सामंजस्य स्थापित करने की दृष्टि से देख रहा है।
वन संरक्षण बनाम आवासाधिकार
भारत ने संयुक्त राष्ट्र केसतत विकास लक्ष्य को अपनाया है। सतत विकास लक्ष्य 11 सभी के लिए सुरक्षित, किफायती और टिकाऊ आवास की व्यवस्था सुनिश्चित करता है। साथ ही, सतत विकास लक्ष्य 13 यह भी बताता है कि आवास ऐसी संरचना होनी चाहिए जोजलवायु अनुकूलहो यानी जंगलों और पर्यावरण के साथ संतुलन में। लेकिन जब वन विभाग ग्रामीणों को पक्का घर बनाने से रोकता है, तो यहसतत विकास लक्ष्य 11 और सतत विकास लक्ष्य 13 दोनों का उल्लंघनहै।
विश्व मानवाधिकार घोषणापत्र के अनुच्छेद 25 के अनुसार, प्रत्येक व्यक्ति को सुरक्षित आवास का अधिकार है। जलवायु परिवर्तन, बाढ़, जंगल की आग आदि से बचाव हेतु मौसम अनुकूल पक्का आवास आवश्यक है। सतत विकास लक्ष्य, विश्व मानवाधिकार घोषणापत्र और भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत पक्का मकान सभी नागरिकों का मूल अधिकार है, जिसमें वनाश्रित समुदाय भी शामिल हैं।
राष्ट्रीय आवास नीति के तहत भारत सरकार ने ‘प्रधानमंत्री आवास योजना’ एवं झारखंड सरकार ने ‘अबुआ आवास योजना’ द्वारा सभी नागरिकों को गरिमापूर्ण, मौसम अनुकूल आवास उपलब्ध कराने के प्रति प्रतिबद्धता जतायी है। इन योजनाओं के तहत गरीब, भूमिहीन तथा ग्रामीण नागरिकों को पक्का मकान उपलब्ध कराने हेतु अनुदान व वित्तीय समर्थन दिया जा है।
एक अनुमान के मुताबिक अकेले झारखंड में पाँच हजार से व्यक्तिगत वनाधिकार पट्टे धारकों को प्रधान मंत्री आवास योजना और अबुआ आवास योजना से जोड़ा गया है। पट्टे धारकों को आवास निर्माण के लिए राशि दी गई है। कई जगहों से शिकायतें मिलती रही है कि वन विभाग पीएम आवास और अबुआ आवास के तहत निर्माण कार्यों में बाधा डालता है।
अधिकांश वनाश्रित समुदाय अर्ध-स्थायी या अस्थायी झोपड़ी में रहते हैं, जिससे वे बारिश, जाड़ा, गर्मी आदि प्राकृतिक आपदाओं के प्रति अत्यंत संवेदनशील रहते हैं। सरकारी आवास योजना स्थायी एवं सुरक्षित आवास उपलब्ध कराती है, किंतु वन भूमि पर मकान बनाने को वन विभाग अवैध घोषित कर देता है। आदिवासी कार्यकर्ता तथा सामाजिक संगठन तर्क देते हैं कि सरकारी आवास नीति व वन विभाग की मनोदशा पूर्णतः विरोधाभासी और अवैधानिक हैं।
सुप्रीम कोर्ट का हस्तक्षेप: एक नई उम्मीद
सुप्रीम कोर्ट की पहल ने एक आवश्यक संवाद को जन्म दिया है, जिसमें सरकार, वन विभाग और नागरिक समाज को समन्वय कर इस अधिकार संरचना को पुनर्स्थापित करने का अवसर मिला है। ज्यों-ज्यों सतत विकास लक्ष्य एवं मानवाधिकार विमर्श मजबूत हो रहा है, सरकार को स्पष्ट दिशानिर्देश, कानूनी संशोधन तथा समावेशी नीति बनाकर वनाश्रित समुदायों को गरिमामय आवास का अधिकार देना होगा, जिससे भारत की संवैधानिक आत्मा एवं अंतरराष्ट्रीय दायित्वों का सम्मान हो सके।
सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से पूछा है किक्या वनाधिकारके तहत दिए गए व्यक्तिगत अधिकारों में घर निर्माण भी शामिल है? यदि शामिल है, तो फिरराज्य सरकारें या वन विभागउन पर रोक कैसे लगा सकते हैं? यह प्रश्न इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि यह सीधेसंविधान के अनुच्छेद 21 (जीवन के अधिकार)से जुड़ता है, जिसमें‘जीने का अधिकार’ के अंतर्गत ‘सम्मानजनक आवास’ का अधिकार भी शामिलमाना गया है।
मौजूदा विवाद ने नीति-निर्माताओं, सुप्रीम कोर्ट, सामाजिक संगठनों व ग्रामीण समुदायों को सोचने पर मजबूर किया है। सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से स्पष्ट दिशानिर्देश मांगे हैं—क्या वन अधिकार पट्टा धारकों को पक्का मकान बनाने दिया जाएगा? क्या वन संरक्षण कानून का आशय यही था कि लोग हमेशा छप्पर या फूस की झोपड़ी में रहें? या फिर संविधान और अंतरराष्ट्रीय प्रतिवद्धताओं को ध्यान में रखकर गरिमापूर्ण जीवन के हक को प्राथमिकता मिले?
समाधान की राह
इस मामले में स्पष्ट दिशानिर्देश की जरूरत है। वनाधिकारकी धारा 3(1)(a) को आधार बनाकर यह स्पष्ट किया जाए कि मान्यता प्राप्त वन भूमि पर घर बनाना वैध है। विभागीय समन्वय पर काम करने की जरूरत है। वन और ग्रामीण विकास विभाग मिलकरएक संयुक्त नीतिबनाएं, ताकि आवास योजनाएं बिना बाधा के लागू हों। सतत आवास मॉडल के तहत स्थानीय सामग्री, पारंपरिक डिजाइन और जलवायु-अनुकूल तकनीक से बने घरों को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। अधिकारियों का प्रशिक्षण जरूरी है। प्रशासनिक स्तर पर वनाधिकार और वन संरक्षण अधिनियमकी समझ विकसित की जाएताकि अधिकारों का दमन अज्ञानतावश न हो।
आखिर में...
घर केवल ईंट और सीमेंट की दीवार नहीं बल्किसुरक्षा, सम्मान और अस्तित्वकी अभिव्यक्ति है। भारत के वनवासी जब अपने जंगल में घर बनाते हैं, तो वेप्रकृति से दूरी नहीं, बल्कि अपने रिश्ते की मजबूतीको व्यक्त करते हैं। इसलिए उन्हें “अतिक्रमणकारी” कहनाअन्याय और अज्ञानता दोनोंहै। जंगल की जमीन पर घर बनाना 'अतिक्रमण’ का मामला नहीं, बल्कि मानवीय गरिमा, संवैधानिक अधिकार और समावेशी नीतियों का विमर्श है। सुप्रीम कोर्ट का यह नोटिस केवल एक कानूनी सवाल नहीं, बल्कि यह तय करेगा कि भारत का विकास मॉडल अधिकारों के साथ चलेगा या अधिकारों के ऊपर। भारत के संविधान ने हर नागरिक को जीने के साथ–साथ सम्मान के साथ रहने का हक दिया है। यह हक जंगल में रहने वाले हर नागरिक—हर परिवार—को भी उतना ही है, जितना किसी और को। नया रास्ता ढूंढ़ना अब सिर्फ सरकार की जिम्मेदारी नहीं, न्यायपालिका और पूरे समाज का साझा दायित्व है।