एसएफ़सी की अनुशंसा का अनुपालन: बेदम स्थानीय स्वशासन को चार का दम

सुधीर पाल 



झारखंड सरकार ने हाल ही में एक ऐसा निर्णय लिया है जो स्थानीय स्वशासन और लोकतंत्र की जड़ों को मज़बूत करने की दिशा में मील का पत्थर साबित हो सकता है। राज्य वित्त आयोग की अनुशंसाओं के अनुरूप अब राज्य के कुल राजस्व का चार प्रतिशत हिस्सा सीधे स्थानीय निकायों यानि ग्राम पंचायतों और शहरी संस्थाओं को दिया जाएगा।

यह पहली बार है जब झारखंड ने अपने राजस्व का एक निश्चित अंश पंचायतों और नगर निकायों को सौंपने की ठोस व्यवस्था की है। यह केवल धनराशि का हस्तांतरण नहीं है, बल्कि लोकतंत्र में सत्ता की हिस्सेदारी  की भावना को मूर्त रूप देने का प्रयास है।भारतीय संविधान में निहित स्थानीय स्वशासन की भावना केवल चुनाव तक सीमित नहीं है। यह जनता के संसाधनों पर जनता के निर्णय का अधिकार है। राज्य वित्त आयोग की भूमिका निर्णय लेने के जनता के अधिकार को आर्थिक शक्ति में बदलने का उपकरण है।

झारखंड का यह निर्णय यदि राजनीतिक इच्छाशक्ति और प्रशासनिक पारदर्शिता के साथ आगे बढ़ता है, तो यह न केवल पंचायतों की वित्तीय स्थिति सुधारेगा बल्कि ग्रामीण लोकतंत्र में नई ऊर्जा भी भर देगा।चार प्रतिशत राजस्व का यह हिस्सा शायद राज्य के कुल बजट में छोटा लगे, पर यह ग्रामसभा के लिए आवाज़ और अधिकार दोनों का प्रतीक बन सकता है। वही आवाज़ जो संविधान की प्रस्तावना में “हम भारत के लोग” कहती है।

झारखंड का यह निर्णय कि राज्य के कुल राजस्व का चार प्रतिशत हिस्सा स्थानीय निकायों को दिया जाएगा,  एक लंबे समय से महसूस की जा रही कमी को पूरा करता है। झारखंड की लगभग 4,500 पंचायतें और दर्जनों नगर निकाय बुनियादी सेवाओं, पेयजल, सड़क और सामाजिक सुरक्षा जैसी जिम्मेदारियाँ निभा रहीं हैं, परंतु उनकी वित्तीय स्थिति अब तक राज्य की मर्ज़ी पर निर्भर रही है।नई पहल से न केवल ग्राम पंचायतों को योजनाएँ बनाने का अवसर मिलेगा, बल्कि उन्हें अपने निर्णयों को अमल में लाने की क्षमता भी मिलेगी। अनुमान है कि राज्य की पंचायती राज संस्थाओं को हर साल लगभग 900 करोड़ रुपए मिलेंगे। इसका 70 फ़ीसदी हिस्सा ग्राम पंचायत को जाएगा जबकि पंचायत समिति और जिला परिषद की हिस्सेदारी क्रमश: 15-15 फ़ीसदी की होगी।  

राज्य वित्त आयोग की ऐतिहासिक भूमिका

भारत में 73वें और 74वें संविधान संशोधनों (1992) के माध्यम से स्थानीय स्वशासन को संवैधानिक मान्यता दी गई। इन संशोधनों ने पंचायतों और नगर निकायों को तीसरे स्तर की सरकार के रूप में स्थापित किया।  एक ऐसा स्तर जो न केवल लोगों के सबसे करीब है, बल्कि लोकतंत्र का असली चेहरा भी है।

इन्हीं संशोधनों के तहत संविधान के अनुच्छेद 243-आई और 243-वाई में राज्य वित्त आयोग की स्थापना का प्रावधान किया गया। इसका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना था कि राज्यों के राजस्व में स्थानीय निकायों का न्यायसंगत हिस्सा हो।राज्य वित्त आयोग को यह जिम्मेदारी दी गई कि वह पाँच साल में एक बार यह समीक्षा करे कि राज्य और स्थानीय निकायों के बीच कर, शुल्क और अनुदान का बँटवारा किस आधार पर हो, ताकि स्थानीय संस्थाएँ वित्तीय रूप से सक्षम बन सकें।

राज्य वित्त आयोग का उद्देश्य सिर्फ़ “पैसे बाँटना” नहीं है — बल्कि यह स्थानीय सरकारों की आर्थिक स्वायत्तता सुनिश्चित करने, उनकी अपनी आय बढ़ाने के रास्ते सुझाने और राज्य के बजटीय ढाँचे में विकेंद्रीकरण की भावना स्थापित करने का संवैधानिक माध्यम है।
भारत के कई राज्यों ने इस दिशा में उल्लेखनीय पहल की। केरल ने अपने “पीपुल्स प्लान” अभियान के तहत राज्य की योजना निधि का लगभग 35% हिस्सा स्थानीय निकायों को सौंप दिया। परिणामस्वरूप पंचायतें अपनी स्थानीय आवश्यकताओं के मुताबिक़ योजनाएँ बनाने लगीं। जल-संरक्षण, शिक्षा, स्वास्थ्य और महिला सशक्तिकरण जैसे क्षेत्रों में स्थानीय स्तर पर उल्लेखनीय सुधार देखने को मिला।
कर्नाटक ने भी राज्य वित्त आयोग की सिफारिशों के अनुरूप पंचायतों को वित्तीय अधिकारों के साथ प्रशिक्षण और लेखा-पारदर्शिता की व्यवस्था दी। वहाँ पंचायतों ने अपने स्तर पर कराधान और सेवा शुल्क की प्रणाली विकसित की, जिससे स्थानीय आय बढ़ी और योजनाओं का बेहतर क्रियान्वयन हुआ।

वास्तव में, राज्य वित्त आयोग संविधान की उस आत्मा का विस्तार है जिसे डॉ. भीमराव अंबेडकर ने “विकेंद्रीकरण की आत्मा” कहा था। यानी सत्ता और संसाधन दोनों का बँटवारा नीचे तक पहुँचना चाहिए।

स्थानीय निकायों की आर्थिक निर्भरता का संकट

झारखंड में पंचायती राज संस्थाएँ 2010 में पहली बार अस्तित्व में आईं। यानी यह राज्य उस श्रेणी में आता है जहाँ स्थानीय शासन की नींव अपेक्षाकृत नई है। पिछले डेढ़ दशक में पंचायतों ने शिक्षा, स्वास्थ्य, मनरेगा, आंगनवाड़ी, जल और सड़क जैसी अनेक जिम्मेदारियाँ निभाई हैं।

परंतु सच्चाई यह भी है कि उनकी वित्तीय स्थिति अत्यंत कमजोर रही है। पंचायतों को अपने निर्णयों और प्राथमिकताओं के अनुरूप योजनाएँ चलाने की आर्थिक क्षमता नहीं रही। वे राज्य सरकार या विभागीय अनुदानों या केन्द्रीय वित्त आयोग पर निर्भर रहीं, जिनमें विलंब, जटिल प्रक्रियाएँ और राजनीतिक हस्तक्षेप आम थे।

झारखंड राज्य वित्त आयोग की रिपोर्टों में बार-बार यह बात सामने आई कि यदि स्थानीय स्वशासन को वास्तविक शक्ति देनी है तो राजस्व का एक सुनिश्चित हिस्सा पंचायतों को सीधे हस्तांतरित किया जाना चाहिए। सरकार ने अब जाकर उस दिशा में निर्णायक कदम बढ़ाया है।

‘नीचे से ऊपर’ शासन का आधार

राजनीतिक और प्रशासनिक विकेंद्रीकरण के बिना आर्थिक विकेंद्रीकरण अधूरा रहता है। यह बात बार-बार अनुभव की गई है कि अगर पंचायतों को पैसा नहीं मिलेगा, तो वे न तो योजना बना सकेंगी, न ही विकास की गति तय कर सकेंगी।राज्य के कुल राजस्व का 5% हिस्सा पंचायतों और नगर निकायों को देना, इस असंतुलन को ठीक करने की कोशिश है।

स्थानीय निकायों को नियमित और सुनिश्चित राजस्व का हिस्सा मिलने से वे अपनी योजनाओं को राज्य अनुदान या विभागीय अनुमति पर निर्भर हुए बिना लागू कर सकेंगी। इससे स्थानीय समस्याओं के समाधान की प्रक्रिया तेज़ और लचीली होगी।यदि इस निधि के साथ स्पष्ट लेखांकन और जन-सुनवाई की व्यवस्था भी बने, तो ग्रामसभा की भूमिका मजबूत होगी। पंचायतें अपने खर्च का ब्यौरा जनता के सामने रखेंगी — यह पारदर्शिता लोकतंत्र की असली आत्मा है।

ग्राम स्तर पर होने वाले छोटे-छोटे सार्वजनिक कामों से स्थानीय श्रमिकों को रोजगार मिलेगा, सामग्री की खपत बढ़ेगी और ग्रामीण अर्थव्यवस्था में गतिशीलता आएगी।जब गांव का बजट गांव ही बनाएगा, तो योजनाएँ “ऊपर से नीचे” नहीं बल्कि “नीचे से ऊपर” आएँगी। ग्रामसभा के निर्णय में महिलाएँ, युवजन और कमजोर वर्ग भी बराबर की भूमिका निभा सकेंगे।

राजस्व के साथ-साथ अगर विभागीय जिम्मेदारियाँ भी पंचायतों को सौंपी जाएँ जैसे जल-प्रबंधन, प्राथमिक शिक्षा, आंगनवाड़ी, सामाजिक सुरक्षा आदितो प्रशासनिक केंद्रीकरण घटेगा और जवाबदेही निचले स्तर पर आएगी।


इसका अर्थ यह है कि अब ग्रामसभा अपने गांव की प्राथमिकताओं के अनुरूप योजनाएँ बना सकेगी। किसे सड़क चाहिए, कहाँ तालाब की मरम्मत करनी है, किस मोहल्ले में स्ट्रीट लाइट लगनी है, इसका फैसला अब गांव खुद करेगा।यह वास्तव में ‘जनता के पैसे पर जनता का हक़’ सुनिश्चित करने की दिशा में एक ठोस कदम है।

अन्य राज्यों के अनुभव

केरल ने 1996 में “पीपुल्स प्लान” अभियान शुरू किया था। इस अभियान के तहत राज्य की योजना निधि का 35 से 40 प्रतिशत हिस्सा स्थानीय निकायों को दे दिया गया।परिणाम चौंकाने वाले थे। पंचायतें और नगर पालिकाएँ अपनी स्थानीय प्राथमिकताओं के अनुरूप योजनाएँ बनाने लगीं। गाँव-गाँव में सामाजिक विकास की नई लहर आई। स्थानीय लोगों ने योजना प्रक्रिया में हिस्सा लिया। स्वास्थ्य, शिक्षा और महिला सशक्तिकरण के क्षेत्र में केरल ने जो उपलब्धियाँ हासिल कीं, उसकी नींव इसी विकेंद्रीकरण में थी।

कर्नाटक ने राज्य वित्त आयोग की सिफारिशों को लागू करने के साथ-साथ पंचायतों के लिए वित्तीय प्रबंधन और ऑडिट की नई प्रणाली शुरू की। स्थानीय निकायों को अपने स्तर पर कर लगाने, उपयोग शुल्क तय करने और राजस्व संग्रह करने की स्वतंत्रता दी गई।राज्य ने पंचायत अधिकारियों और चुने हुए प्रतिनिधियों के लिए निरंतर प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाए। परिणामस्वरूप पंचायतें न केवल आत्मनिर्भर हुईं बल्कि पारदर्शी भी बनीं।

राजस्थान और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में राज्य वित्त आयोग बने, पर उनकी सिफारिशें कई बार धूल खाती रहीं। निधियों का समय पर हस्तांतरण नहीं हुआ। तमिलनाडु ने हालांकि आयोग की सिफारिशों को नीति में बदलने की कोशिश की, और पंचायतों के लिए ‘परफॉर्मेंस लिंक्ड’ अनुदान प्रणाली विकसित की।इन सभी अनुभवों से यही निष्कर्ष निकलता है कि विकेंद्रीकरण तभी प्रभावी होता है जब धनराशि नियमित, पारदर्शी और जवाबदेह ढंग से स्थानीय निकायों तक पहुँचे।

आगे का रास्ता

यह निर्णय तभी प्रभावी होगा जब राज्य सरकार निम्नलिखित कदम समानांतर रूप से उठाए। राजस्व बँटवारे का स्पष्ट सूत्र गढ़ने की जरूरत है। अभी पंचायतों की आबादी पर 90 फ़ीसदी तथा क्षेत्रफल पर 10 फ़ीसदी राशि के बंटवारे का फार्मूला है। इस प्रचलित फॉर्मूले से अनुसूचित क्षेत्र के ग्राम पंचायतों को सामान्य क्षेत्र की ग्राम पंचायतों की तुलना में कम राशि उपलब्ध होती है। अनुसूचित क्षेत्र में सैकड़ों पंचायत ऐसे हैं जहां आबादी 3000 के आसपास है। जबकि पंचायत का क्षेत्रफल या भौगोलिक फैलाव काफी है। राज्य वित्त आयोग को यह तय करना चाहिए कि यह 4 % हिस्सा किस आधार पर बांटा जाएगा — जनसंख्या, क्षेत्रफल, पिछड़ेपन का सूचकांक, या भौगोलिक स्थिति के अनुसार।

सरकारी संस्थाओं में समय पर पैसे का हस्तांतरण हमेशा से एक बड़ी चुनौती रही है। पंचायतों को निधि तिमाही या छमाही आधार पर समय पर मिलनी चाहिए। देरी इस योजना की विश्वसनीयता पर चोट करेगी।स्थानीय निकायों को वित्तीय प्रबंधन, लेखांकन, और योजना-निर्माण पर प्रशिक्षित किया जाना चाहिए ताकि वे धन का सही उपयोग कर सकें।

ग्रामसभा स्तर पर सामाजिक लेखा परीक्षा और सार्वजनिक बजट बैठकें अनिवार्य हों, ताकि हर नागरिक जान सके कि पंचायत का पैसा कहाँ और कैसे खर्च हुआ।राजस्व के साथ कार्यों और अधिकारों का हस्तांतरण भी ज़रूरी है ताकि पंचायतों के पास केवल “धन” ही नहीं बल्कि “निर्णय लेने की शक्ति” भी हो।


(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
 
View Counter
1,499,950
Views