बिहार के मतदाताओं और सारंडा के जंगलवासियों के बीच सैकड़ों किलोमीटर का फासला है, पर दोनों के अनुभव एक जैसे हैं। दोनों जगह नागरिकों ने यही कहा—हमें सुना नहीं गया। बिहार में मतदाता अपनी लोकतांत्रिक पहचान खोज रहा है, और सारंडा में आदिवासी अपना अस्तित्व बचाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट और प्रशासन ने अपने-अपने स्तर पर आदेश दिए, लेकिन जनता को अभी भी न्याय“दिख” नहीं रहा। बिहार में नाम हटाने का कारण जनता को स्पष्ट रूप से नहीं बताया गया, और सारंडा में ग्राम सभा की सहमति के बिना निर्णय लिया गया। दोनों ही मामलों में न्याय की प्रक्रिया पारदर्शी नहीं रही।
लोकतंत्र की नींव में दरारें
सुप्रीम कोर्ट ने पहले तो यह माना कि बड़ी संख्या में नाम कटना चिंता का विषय है, और बिहार राज्य विधिक सेवा प्राधिकरण को हटाए गए मतदाताओं की मदद के लिए कहा । परंतु 13 अक्टूबर 2025 को कोर्ट ने याचिका को खारिज करते हुए कहा कि राहत के लिए याचिकाकर्ता चुनाव आयोग के पास जाएँ —यानी जिस संस्था पर अनियमितताओं का आरोप था, उसी के पास न्याय के लिए जाने का सुझाव दिया गया।
याचिकाकर्ताओं का तर्क था कि यह प्रक्रिया संविधान के अनुच्छेद 14, 21, 324, 325 और 326 का उल्लंघन है । उनका कहना था कि मतदाता की पहचान के लिए आयोग द्वारा निर्धारित 11 दस्तावेज़ों की सूची अव्यावहारिक है और लाखों गरीब व प्रवासी मतदाता इसके कारण सूची से बाहर हो जाते हैं। सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला लोकतांत्रिक अधिकारों की सुरक्षा को लेकर गंभीर प्रश्न उठाता है, क्या यह न्याय केवल प्रक्रिया का पालन है या वास्तव में अधिकारों की रक्षा का उपक्रम?
भारत के संविधान का अनुच्छेद 324 चुनाव आयोग को व्यापक शक्तियाँ देता है लेकिन साथ ही यह अपेक्षा भी रखता है कि आयोग “स्वतंत्र और निष्पक्ष” तरीके से काम करेगा। चुनाव केवल वोट डालने का क्रियाकलाप नहीं है; यह नागरिकों के “राजनीतिक अस्तित्व” का अधिकार है। यदि नागरिक की मतदाता सूची से नाम ही ग़ायब कर दिया जाए, तो यह उसके संवैधानिक अधिकार पर सीधा हमला है। ब्रिटिश न्यायविद लॉर्ड ह्युवर्ट ने कहा था—न्याय केवल होना नहीं चाहिए, बल्कि दिखना भी चाहिए। भारत के नागरिकों का विश्वास न्यायपालिका की पारदर्शिता पर टिका है। जब सर्वोच्च न्यायालय नागरिकों को उसी संस्था के पास लौटाता है, जिस पर आरोप है, तो यह विश्वास डगमगा जाता है। लोकतंत्र केवल संस्थाओं का ढाँचा नहीं है; यह विश्वास की संरचना है। और यह विश्वास तभी बचता है जब न्याय निष्पक्षदिखताभी हो।
लोकतंत्र केवल वोट डालने का अधिकार नहीं, बल्कि इस अधिकार के भरोसे की सुरक्षा भी है। मतदाता सूची से नाम हटना सिर्फ प्रशासनिक गलती नहीं, बल्कि नागरिकता के अधिकार पर चोट है। बिहार में विपक्षी दलों और नागरिक संगठनों ने कहा कि इससे लोकतंत्र की विश्वसनीयता पर असर पड़ा है। अगर अदालत ने आयोग को पारदर्शिता का आदेश दिया, तो उसे लागू होते भी दिखना चाहिए। हर स्तर पर जनता को यह महसूस होना चाहिए कि उसका वोट सुरक्षित है।“न्याय” का अर्थ केवल निर्णय देना नहीं है, बल्कि लोगों के मन में यह विश्वास जगाना भी है कि उनके साथ समानता का व्यवहार हुआ। बिहार का मामला यही सवाल उठाता है—क्या लोकतंत्र के सबसे बड़े पर्व, चुनाव में, न्यायदिखरहा है?
सारंडा अभयारण्य और आदिवासी अधिकार
दूसरा बड़ा विवाद झारखंड के पश्चिमी सिंहभूम जिले के सारंडा वन क्षेत्र को अभयारण्य घोषित करने को लेकर है। सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकार को निर्देश दिया था कि एक सप्ताह के भीतर 31,465 हेक्टेयर क्षेत्र को सारंडा वाइल्डलाइफ सेंचुरी घोषित किया जाए । इस फैसले पर झारखंड मंत्रिमंडल ने 14 अक्टूबर को मुहर तो लगा दी, परंतु ग्राम सभाओं से सहमति नहीं ली गई । सारंडा वन क्षेत्र में कुल 52 गांवहैं। इसमें 42 राजस्व गांव और 10 वन ग्राम है। हालांकि कुछ रिपोर्ट्स में 56 गांवोंका उल्लेख भी मिलता है , जो संभवतः आसपास के प्रभावित क्षेत्रों को शामिल करके बताया गया है। सारंडा वन क्षेत्र में निवास करने वाले लोगों की कुल जनसंख्या 2011 करीब 1,25,000 थी। यहाँ लगभग 10,000 आदिवासी परिवारनिवास करते हैं। अभयारण्य की घोषणा में शामिल मुख्य वन क्षेत्र अंकुआ, सामता, करमपाड़ा, कुदलीबाग, तिरिलपोशीआरक्षित वन क्षेत्र हैं ।
पश्चिमी सिंहभूम जिले में हो सबसे बड़ा आदिवासी समुदाय है। इसकी आबादी 51.52% है। मुंडा जनजाति 9.33%, उरांव: 2.15%, भुइंया 1.36%, संताल: 1.01% एवं अन्य छोटी जनजातियां है। ये मुख्यतःवन उत्पादन संग्रहऔरकृषिपर निर्भर हैं। सिंचाई सुविधा सीमित हैं, वर्षा आधारित कृषिहै। लौह अयस्क खननमें सीमित स्थानीय रोजगार है। गौण वन उत्पादों में साल पत्ता, महुआ, शहद, साबाई घास आदि का संग्रह होता है। यह डेटा दर्शाता है कि सारंडा अभयारण्य घोषणा से एक विशाल आदिवासी जनसंख्या प्रभावित होगी, जिनकी आजीविका और सामाजिक-सांस्कृतिक पहचान इसी वन क्षेत्र से जुड़ी हुई है।
वनाधिकार कानून 2006 और पेसा कानून 1996, दोनों ही स्पष्ट रूप से कहते हैं कि किसी भी वन क्षेत्र को पुनर्वर्गीकृत (जैसे अभयारण्य या आरक्षित वन) करने से पहले संबंधित ग्राम सभाओं की पूर्व सहमति आवश्यक है। लेकिन सारंडा में ऐसा नहीं हुआ। वनाधिकार कानून के तहत वनवासियों को वन भूमि पर व्यक्तिगत और सामुदायिक अधिकार दिए जाते हैं, जिसमें "संरक्षण, पुनर्जीवन और प्रबंधन" का अधिकार शामिल है। इस अधिकार के बिना किसी क्षेत्र को वन्यजीव अभयारण्य बनाना कानून के मूलभाव का उल्लंघन है। स्थानीय 10 वनग्रामों को वनाधिकारके तहत राजस्व गाँव घोषित कर आवश्यक बुनियादी सुविधाएँ यथा सड़क, स्कूल, स्वास्थ्य केंद्र देने का कानूनी प्रावधान था, जो आज तक लागू नहीं हुआ। इसके उलटबिना ग्राम सभा की सहमति के पूरा क्षेत्र अभयारण्य घोषित कर दिया गया। इसका सीधा असर लोगों के आजीविका अधिकारों पर पड़ा है, अब वे न तो लकड़ी-बाँस ला सकते हैं, न खेती का दायरा बढ़ा सकते हैं, न मवेशी चराने की स्वतंत्रता पहले जैसी है। लोग कहते हैं कि हम जंगल को बचाने वाले हैं, उसे नष्ट करने वाले नहीं। लेकिन अब हमें ही घुसपैठिया कहा जा रहा है। झारखंड सरकार के मुख्यमंत्री व मंत्रियों ने कहा है कि ग्रामवासियों की भावना का ध्यान रखा जाएगा लेकिन आंदोलनरत जनता कह रही है किग्राम सभा की अनुमति के बिना यह अधिसूचना पेसा और FRA दोनों कानूनों का उल्लंघन है। विरोध में ग्रामीण 25 अक्टूबर को कोल्हान अंचल में आर्थिक नाकेबंदी की योजना बना रहे हैं।
सारंडा के लोग यह नहीं कह रहे कि जंगल अभयारण्य न बने। वे बस यह कह रहे हैं कि हमसे पूछिए तो सही। उनका कहना है कि संरक्षण की परिभाषा केवल सरकारी अधिसूचना नहीं, बल्कि समुदाय के सह-अस्तित्व से बनती है। जिन जंगलों को उन्होंने सदियों से बचाया, आज वही जंगल उनके खिलाफ़ दीवार बन गया है। अंतर्राष्ट्रीय पर्यावरण संगठन-आईयूसीएन का दिशानिर्देश है कि संरक्षित क्षेत्रों को वहाँ बसे देशज समुदायों के अधिकारों का सम्मान करना और उनकी सहमति लेना अनिवार्य है। लेकिन सारंडा में यह सिद्धांत कागज़ पर ही रह गया।
न्याय “दिखाया” जाना चाहिए
लोकतान्त्रिक व्यवस्था का मूलाधार पारदर्शिता है।न्यायालय या चुनाव आयोग न केवल आदेश देबल्कि सार्वजनिक रूप से विस्तृत विवरण, कारण, प्रभावित लोगों की सूची, आपत्तियों व तर्कों को प्रकाशित करें। प्रभावित लोगों, ग्राम सभा, आदिवासी समुदायों आदि को सुनने की प्रक्रिया अनिवार्य होनी चाहिए। घोषित निर्णयों से पूर्व सार्वजनिक सलाह-समय, आपत्तियों की सुनवाई, पुनरीक्षण और पारदर्शी संवाद होना चाहिए। कमजोर और प्रभावित वर्गों को कानूनी सहायता, पैरा लीगल वॉलंटियर्स और न्याय प्रक्रिया तक पहुंच सुनिश्चित होनी चाहिए। जैसे कि एसआईआर मामले में कोर्ट ने जिला विधिक प्राधिकरणको निर्देश दिए।वनाधिकार कानून और पेसाके प्रावधानों का सक्रिय पालन होना चाहिए।
पर्यावरण और मानवाधिकार के बीच संतुलन जरूरी है। वन संरक्षण तभी न्यायोचित होगा जब स्थानीय आबादी की आजीविका, संस्कृति, तरीके सुरक्षित हों। यदि खनन या उद्योग क्षेत्र बाहर रखे जाते हैं, तो मुआवजा, वैकल्पिक रोजगार और सामाजिक योजनाएं हों। सरकारी योजनाओं, आदेशों का नियमित मॉनिटरिंग हो। रिपोर्ट, ग्राम स्तर की समीक्षा, त्रुटियों का समय रहते सुधार प्रक्रिया का हिस्सा हो। यदि आदेशों का उल्लंघन हो रहा हो, नागरिकों को सीधे शिकायत-न्यायालय मार्ग उपलब्ध होना चाहिए। लोकतंत्र का एक स्वर यह है कि अगर न्याय नहीं दिखता है, जनता को शांतिपूर्ण प्रदर्शन, सामाजिक आंदोलन, जनसुनवाई, मीडिया अभियान आदि का अधिकार है।
दोनों मामलों का साझा संदेश
चाहे बिहार में मतदाता सूची से नाम काटने का मामला हो या सारंडा में ग्राम सभाओं की उपेक्षा का, इन दोनों में न्याय का वह स्वरूप नहीं दिखता जो नागरिक भागीदारी और संवैधानिक नैतिकता का आधार है। बिहार में न्याय का दरवाज़ा खुला लेकिन राहत नहीं मिली। सारंडा में अधिकारों का कानून बनालेकिन पालन नहीं हुआ। दोनों जगह यह सवाल उभरता है —क्या न्याय केवल कागज़ी दायरे तक सीमित रह जाएगा? क्या जनता के भरोसे की बुनियाद कमजोर नहीं हो रही?