फ़र्ज कीजिए कि झारखंड के किसी जंगल में ग्राम सभा की मीटिंग की। गाँव के लोग चर्चा कर रहे हैं कि अब उनके जंगल का “कार्बन” भी बिकेगा। न लकड़ी, न बाँस, अब तो पेड़ों में जमा कार्बन भी एक संपत्ति बन चुका है, जिसे कार्बन क्रेडिट कहा जा रहा है। सुनने में भले तकनीकी लगे पर असल में यह प्रकृति के निजीकरण की नई कहानी है। इसे कई लोग जलवायु परिवर्तन से निपटने का आधुनिक उपाय मान रहे हैं, तो कुछ इसे पूंजी का नया जाल कह रहे हैं। सवाल यह है कि जब वायुमंडल में कार्बन के व्यापार की बात हो रही है, तो झारखंड के सारंडा जैसे वनक्षेत्र, जो आदिवासी जीवन, संस्कृति और पारिस्थितिकी के केंद्र हैं, वहाँ क्या होगा? क्या यह योजना सचमुच हरित विकास की दिशा में एक कदम है या जंगलों पर एक नया कब्ज़ा?
यह हवा का कारोबार है। सरल शब्दों में कहें तो कार्बन क्रेडिट का मतलब है कार्बन उत्सर्जन का अधिकार खरीदना या बेचना। दुनिया भर में कंपनियाँ ग्रीनहाउस गैसें छोड़ती हैं। संयुक्त राष्ट्र की पहल पर यह तय हुआ कि हर देश और कंपनी को कुछ सीमा तक ही कार्बन उत्सर्जन की अनुमति होगी। अगर कोई संस्था अपने हिस्से से कम उत्सर्जन करती है, तो उसे कार्बन क्रेडिट मिलेगा। ये क्रेडिट वह दूसरी कंपनियों को बेच सकती है, जो अधिक प्रदूषण फैलाती हैं। यानी एक कंपनी पेड़ लगाकर कार्बन घटाने का दावा करती है, जबकि दूसरी कंपनी कोयला जलाकर कारखाना चलाती है फिर पहली कंपनी से क्रेडिट खरीदकर अपनी छवि स्वच्छ बना लेती है। इसे कार्बन ऑफसेटिंग कहा जाता है। पर असल में यह पर्यावरण संरक्षण नहीं, बल्कि प्रदूषण का व्यापार है।
कार्बन व्यापार की कानूनी स्थिति
भारत सरकार ने ऊर्जा संरक्षण अधिनियम 2001 में संशोधन कर कार्बन क्रेडिट ट्रेडिंग योजना लाने का अधिकार खुद को दे दिया है। अब वे सभी निजी कंपनियाँ या संस्थाएँ जो कार्बन व्यापार करना चाहेंगी, उन्हें इसी कानून के तहत पंजीकृत होना होगा।
इस योजना के तहत ये कंपनियाँ सीधे ग्राम सभाओं या वन निवासी समुदायों से कार्बन क्रेडिट खरीद सकेंगी।
अर्थात्, अब आदिवासियों और वनआश्रित समुदायों के जंगल, उनकी जैव विविधता, उनका पारंपरिक संरक्षण ज्ञान—सब एक वाणिज्यिक संसाधन बन सकते हैं।
सरकार ने समानांतर रूप से ग्रीन क्रेडिट प्रोग्राम भी प्रस्तावित किया है, जिसके तहत पेड़ लगाने, जल संरक्षण या जैव विविधता बढ़ाने के कार्यों के बदले कंपनियों को ग्रीन पॉइंट्स मिलेंगे—जिन्हें वे व्यापार में बदल सकेंगी। यहाँ सबसे गंभीर बात यह है कि इन योजनाओं में वन अधिकार कानून, 2006 और पेसा कानून, 1996 का कहीं उल्लेख नहीं है। यानी ग्राम सभा की संवैधानिक भूमिका को व्यापारिक मॉडल में बदल दिया गया है।
झारखंड में कार्बन-भंडार और सामाजिक परिदृश्य
झारखंड राज्य के वन क्षेत्र में कार्बन स्टॉक के संदर्भ में एक अध्ययन में अनुमान लगाया है कि झारखंड की जंगलों में लगभग 222.88 मिलियन टन कार्बन संग्रहीत है। वन विभाग तथा अन्य स्रोतों में कहा गया है कि राज्य के जंगल अनुमानित रूप से 246 मिलियन टन कार्बन चार-पूल यथा जमीन की सतह पर, भूमिगत, मृत लकड़ी एवं मिट्टी में स्टोर करते हैं। झारखंड में जंगल सिर्फ लकड़ी, बाँस या वन उत्पाद का स्रोत नहीं बल्कि एक विशाल कार्बन-भंडार बन चुका है। इस परिप्रेक्ष्य में सारंडा विशेष महत्व रखता है।
कार्बन क्रेडिट-व्यापार का एक पक्ष सकारात्मक है। उदाहरण के लिए हाल में खबरें आई हैं कि झारखंड सरकार ने “बिरसा हरित ग्राम योजना” के तहत बंजर भूमि पर फल-और इमारती वृक्ष रोपने को ग्रामीणों को प्रेरित किया है। और इसे ‘कार्बन फाइनेंस’ से जोड़ा गया है। इस योजना के तहत 18 जिलों में 30,000 से अधिक लाभार्थियों को शामिल किया गया है। एक-एक एकड़ में फल-वृक्ष लगाने वालों को अगले 20 वर्षों तक अतिरिक्त आय प्राप्त करने का अवसर दिखाया गए है। यहाँ यह बात महत्वपूर्ण है कि यदि सही तरीके से लागू हो जाए, तो आदिवासी-वनवासी समुदायों को वृक्षारोपण द्वारा आय का नया स्रोत मिल सकता है और निरंतर लाभ मिल सकता है।
वहीं, आदिवासी-वनवासी समुदायों के लिए विशेष रूप से यह सवाल खड़ा होता है कि क्या उन्हें इसके निर्णय-प्रक्रिया में पूरी भागीदारी मिलेगी? वनाधिकार कानून, 2006 और पेसा कानून, 1996 के माध्यम से झारखंड में आदिवासी स्वशासन की कानूनी संरचना स्थापित है। लेकिन इन कानूनों में कार्बन क्रेडिट-व्यापार जैसे तंत्रों का उल्लेख नहीं है। यही कारण है कि जहाँ कार्बन बाजार की अग्रिम योजनाएँ बन रही हैं, वहाँ जंगल-आश्रित समुदायों के अधिकारों-स्वशासन पर गहरी चिंताएँ उठ रही हैं।
आदिवासी समुदायों पर प्रभाव
कार्बन क्रेडिट मॉडल में जब वन ग्राम सभाओं को कार्बन उत्पादक बनाया जाता है, तो उनके जंगलों की निगरानी उपग्रहों और एजेंसियों द्वारा की जाती है। इससे कई खतरे पैदा होते हैं। ग्राम सभा की सामूहिक भूमि पर कंपनियाँ “कार्बन अधिकार” खरीद लेती हैं। इससे भूमि का मालिकाना अस्पष्ट हो जाता है। ग्राम सभा का अधिकार केवल हस्ताक्षर या सहमति तक सीमित रह जाता है और वो निर्णय प्रक्रिया से बाहर हो जाते हैं। जंगल केवल कार्बन स्टॉक बन जाते हैं, आस्था और जीवन का हिस्सा नहीं। जंगल आधारित पारंपरिक संस्कृति मर जाती है।
यह आर्थिक असमानता पैदा करता है। परियोजनाओं से मिलने वाला लाभ ग्राम सभा तक नहीं पहुँचता; बिचौलिये और एजेंसियाँ मोटा हिस्सा ले जाती हैं। झारखंड में वनाधिकार कानून के तहत 2023 तक लगभग 3 लाख व्यक्तिगत और सामुदायिक दावे लंबित हैं। जब तक ये अधिकार मान्यता नहीं पाते, तब तक किसी भी कार्बन व्यापार का मतलब है बिना स्वामित्व के संपत्ति बेचना।
यदि यहाँ कार्बन क्रेडिट-व्यापार का तेजी से प्रवेश हो जाए तो यह चार प्रमुख तरीके से असर कर सकता है। पहला, जंगल-भूमि पर नियंत्रण का प्रश्न: कार्बन क्रेडिट-परियोजनाएँ अक्सर तय करती हैं कि एक इलाके में कितने वृक्ष रोपे जाएँ, कितनी अवधि तक रखे जाएँ। उस इलाके पर ग्राम सभा का पारंपरिक नियंत्रण, वनवासी-प्रबंधन का इतिहास और सहज उपयोग का अधिकार धीरे-धीरे कम हो सकता है।
दूसरा, लाभ-वितरण का असमान स्वरूप: परियोजनाओं के सामान्य ढाँचे में बड़े निवेशक, निजी कंपनियाँ और सलाह-प्रदाता संस्थाएँ वर्चस्व पा सकती हैं, जबकि जंगल-आश्रित समुदायों को सिर्फ न्यूनतम हिस्सा मिल सकता है।
तीसरा, स्वशासन एवं ग्राम सभा-हित की कमी: यदि ग्राम सभाओं को निर्णय-प्रक्रिया में सक्रिय नहीं रखा गया, तो वनाधिकार एवं पेसा के तहत उन्हें मिला अधिकार प्रोजेक्ट एग्रीमेंट के नाम पर कमजोर हो सकता है।
चौथा, पर्यावरणीय वास्तविकता एवं प्रमाणीकरण का अंतर: कई प्रारंभिक अनुभवों में देखा गया है कि वृक्ष रोपने या जंगल संरक्षण दिखाने के कार्यक्रम वास्तव में जमकर नहीं चलते हैं या लंबी अवधि तक नहीं टिकते हैं, जिससे समुदायों को आश्वासन नहीं मिल पाता कि उन्हें भविष्य में सच्चा लाभ मिलेगा।
इसका एक और पहलू है कि जंगलों का संरक्षण और वनवासी समुदायों का अस्तित्व केवल कार्बन संख्या में नहीं आंका जा सकता। उदाहरण के लिए, वनाधिकार कानून का उद्देश्य सिर्फ कार्बन संग्रहण नहीं था बल्कि स्थानीय सामाजिक-संस्कृतिक वनप्रबंधन, पारंपरिक ज्ञान, जीविका-स्रोत आदि को सुरक्षित करना था। यदि कार्बन क्रेडिट-व्यापार में केवल कार्बन अंक को महत्व मिलेगा और जीवन-माध्यम, सांस्कृतिक अधिकार एवं स्वशासन को नजरंदाज किया गया, तो समुदायों की नैसर्गिक जीवन शैली पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है।
सारंडा-क्षेत्र : खतरा बढ़ता हुआ
झारखंड के पश्चिमी सिंहभूम जिले में फैला सारंडा का जंगल, जिसे एशिया का सबसे बड़ा साल वन कहा जाता है, सिर्फ पेड़ों का समूह नहीं—यह हो, बिरहोर, मुंडा और अन्य जनजातियों की जीविका, आस्था और पहचान का केंद्र है। करीब 820 वर्ग किलोमीटर में फैला यह वन क्षेत्र लौह अयस्क से समृद्ध है। टाटा, एस्सार, अरसेलर मित्तल जैसी बड़ी कंपनियाँ वर्षों से यहीं खनन करती रही हैं।
हाल ही में सारंडा को वन्यजीव अभयारण्य घोषित करने की प्रक्रिया शुरू की गई है। सरकार कहती है कि इससे जैव विविधता बचेगी, हाथियों के कॉरिडोर सुरक्षित होंगे, और पर्यावरण को लाभ होगा। पर जब इस निर्णय को कार्बन व्यापार के साथ जोड़ा जाए, तो इसके पीछे का बाज़ारी चेहरा साफ दिखता है।
कानूनी रूप से अभयारण्य बनने के बाद स्थानीय लोगों के प्रवेश और उपयोग अधिकार सीमित हो जाते हैं। वन संसाधनों (लकड़ी, पत्ता, महुआ, आदि) पर ग्राम सभा की परंपरागत भूमिका खत्म हो जाती है। कार्बन स्टॉक की निगरानी और लाभ साझा करने का अधिकार सरकार या निजी एजेंसी के पास चला जाता है। इसका अर्थ यह है कि सारंडा के लोग, जो सदियों से जंगल के रखवाले रहे हैं, अब उसी जंगल में अतिक्रमणकारी माने जाएंगे।
हवा का मालिक कौन?
कार्बन क्रेडिट की दुनिया हमें यकीन दिलाती है कि हवा एक वस्तु है, जिसे बेचा या खरीदा जा सकता है। पर हम यह जाते हैं कि प्रकृति किसी कंपनी का उत्पाद नहीं बल्कि समाज की साझा धरोहर है। आदिवासी और वन आश्रित समुदाय सदियों से कार्बन को संग्रहित करते आ रहे हैं, बिना किसी सौदे, बिना किसी क्रेडिट के।
उनका जीवन ही कार्बन न्यूट्रल है। लेकिन अब उसी समुदाय को कार्बन व्यापार के नाम पर एक नए आर्थिक जाल में फँसाया जा रहा है। जलवायु न्याय तभी संभव है, जब जंगल के असली मालिक उसकी हवा पर भी अपने अधिकार रखें।
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)