ऊन उत्पादन किसी भी राज्य ही नहीं, देश की अर्थव्यवस्था को ऊंचाइयों पर ले जाने का बहुत बड़ा साधन हो सकता है।लेकिन यह दुर्भाग्य है कि भारत में इस ओर ज्यादा ध्यान नहीं दिया गया। ऊन के लिए भेड़ पालन की जरूरत है और यह झारखंड का सौभाग्य है कि यहां भेड़ों की संख्या बहुतायत है। अगर राज्य सरकार ही नहीं केन्द्र सरकार इस ओर ध्यान दे तो यह उद्योग झारखंड और देश दोनों का आर्थिक सम्बल बन सकता है। ऊन उत्पादन का अर्थव्यवस्था में क्या महत्व है, इसका सबसे बेहतरीन उदाहरण ऑस्ट्रेलिया है। - संपादक
बाईबल में दर्ज परिघटना के अनुसार उस प्रांत में चरवाहे खेतों में रहा करते थे। वे रात को अपने झुण्ड पर पहरा देते थे। प्रभु का दूत उनके पास आ खड़ा हो गया। ईश्वर की महिमा उनके चारों ओर चमक उठी और वे बहुत अधिक डर गए। दूत ने उनसे कहा डरिए नहीं। मैं आप को सभी लोगों के लिए बड़े आनंद का सुसमाचार सुनाता हूँ। आज दाऊद के नगर में आपके मुक्तिदाता प्रभु मसीह का जन्म हुआ है। अर्थात पशुपालन का इतिहास अतिप्राचीन काल से रहा है। आज झारखंड के संदर्भ में इसे समझना चाहें तो गढ़वा, पलामू और चतरा इलाके में 50-60 हजार परिवार भेड़ पालन कर अपनी जीविका चलाते हैं। लेकिन दुर्भाग्यवश इनकी सुधि न ईसाई धर्मावलंबी के नीति निर्माता लेते हैं और न ही झारखंड सरकार। दुष्परिणाम ये है कि इस पेशे से जुड़ा समुदाय तेजी से अपना पुश्तैनी पेशा त्याग दूसरी संभावनाओं को अपना रहे हैं।
भेड़पालन मामलों के जानकार शरत् सिंह बताते हैं कि अविभाजित बिहार के समय 1996 में भेड़ों की कुल संख्या लगभग 6 लाख थी। जो वर्त्तमान झारखण्ड में 2019 में 8 करोड़ के लगभग भेड़ हैं। देश में उत्तर प्रदेश एक ऐसा राज्य है जहां भेड़ों की संख्या काफी तेजी से घट रही है। देश के टॉप 10 राज्यों में भी झारखण्ड शामिल नहीं है।
अशोक पाल जो स्वयं पाल समुदाय से ताल्लुक रखते हैं, बताते हैं कि भेड़ एक ऐसा जानवर है जो हमेशा नये चरगाह में ही जीवित रह सकती है। यहां पलामू, गढवा के भेड़पालक पड़ोसी राज्य बिहार, उत्तर प्रदेश और छत्तीसगढ़ तक भेड़ चराने जाते हैं। भेड़ चरवाहे सालों-साल तक अपने घरों से बाहर ही रहते हैं। घर के सदस्यों के साथ उस चरवाहा का तब आगमन होता है, जब घर में कोई विशेष धार्मिक सामाजिक आयोजन किया जाता है। कैलाश पाल के शब्दों में कई ऐसे परिवार हैं, जिनका जीविकोपार्जन पूरी तरह भेड़पालन पर निर्भर है। गढ़वा के भेड़पालक छत्तीसगढ़ के रायगढ़ तक प्रत्येक वर्ष भेड़ चराने जाते हैं और मार्च तक वापस आते हैं। भेड़ की कीमत आज लगभग 7500 रूपये प्रति भेड़ है।
रमुना के राजेश्वर पाल कहते हैं 2019 में कई ऐसी घटनाएँ घटी जिसके कारण भेड़पालन पर संकट बढ़ गया है। समय परिवर्त्तन और समस्या बढ़ने के कारण लोग भेड़ों की संख्या कम कर रहे है। भेड़ चोरी की घटनाएँ बढ़ी हैं। यहां तक कि इस वर्ष 2 भेड़पालकों की हत्या भी कर दी गई। उन्होंने यह भी कहा कि भेड़पालकों को सरकार के स्तर से ससमय दवा भी उपलब्ध नहीं कराया जाता है। पहले 5 लीटर का अल्बेण्डाजोल वितरण किया जाता था, वह कारगर था। आजकल जो दवा चरवाहों को वितरित की जा रही है, वह दवा पहले की तरह कारगर नहीं है। सरकार भेड़पालकों का जीवन बीमा की सुविधा दे सकती थी।
पाल महासंघ के पूर्व गढ़वा जिला अध्यक्ष सुभाष पाल बताते हैं यह समाज भेड़पालन के साथ ही भेड़ों के ऊन से कम्बल बनाने का व्यवसाय करती है। पहले चरवाहों को मध्य प्रदेश तक अपनी भेड़ों को चराने की छूट थी। भेड़ों के मल से भूमि की उर्वरा शक्ति बढ़ती है इसलिए भी लोगों को इस व्यवसाय का सम्मान करना चाहिए। पहले गढ़वा के बाजार में भेड़ों के खरीद-विक्री का व्यापक कारोबार होता था। इसे प्रोत्साहन देते हुए एक सक्रिय समिति गठित कर उसके माध्यम से व्यापक कारोबार की बात हो सकती है। कम्बल निर्माण के लिए गांवों के स्तर पर हैण्डलूम चलाने के कारोबर शुरू कर स्थानीय लोगों को रोजगार मुहैया कराई जा सकती है। भेड़ चरवाहों के समूहों द्वारा तैयार कम्बल की सरकारी खरीद कर उसे जरूरतमंदों को वितरण कर पाल समाज के लोगों को सरकार सम्मान कर सकती है। आज विडम्बना ये है कि भेड़ों के ऊन की कीमत नहीं रहने के कारण चरवाहे उसे काटकर यूँ ही बेकार छोड़ देते हैं।
करमदेव पाल कहते हैं कि बिहार सरकार के समय नबीनगर में ऊन विस्तार केन्द्र था। उसका लाभ गढ़वा-पलामू के पाल समुदाय को मिलता था। वहाँ से दवा, कैंची इत्यादि जरूरत के सामग्रियों की सरकारी वितरण की व्यवस्था थी। उस जमाने में मध्यप्रदेश में 10 रूपये प्रति सैकड़ें भेड़ चराने का शुल्क लगता था। भेडें चकवड़, डिठोर, कनवद आदि कंटीली झाड़ियों के पत्ते ही खाया करते हैं। अन्य पेड़ों को वे बर्बाद नहीं करते। नबीनगर में भेड़ों में होने वाली बिमारियों की देखभाल के लिए विशेष चिकित्सकों की सरकारी बहाली होती थी। भेड़ों में खुरहा नामक बीमारी होती थी उसकी भी निःशुल्क दवाइयां वितरित की जाती थी। भेड़ पालकों को खड़िया नमक वितरित की जाती थी, वह भी बन्द हो गया। वर्त्तमान में जो नमक दी जाती है वह भेड़ों के स्वास्थ्य के लिए ठीक नहीं है।
क्रिसमस जैसे बड़े त्योहार के अवसर पर यह अत्यंत महत्वपूर्ण है कि इतिहास कालों से जो समुदाय खुद वजूद आज तक बरकरार रख पाई है, उन्हें संरक्षित करने और सम्मान देने की आवश्यकता है। जलवायु परिवर्त्तन और बाजारवाद ने अन्य कमजोर समुदायों की भांति इस समुदाय के पेशे को भी प्रभावित किया है। लेकिन सरकार अपनी संवैधानिक जवाबदेही से किनारा नहीं कर सकती है। यदि राज्य में अंतर विभाग समेकित रूप से तालमेल करते हुए जल, जंगल और जमीन का समुदाय के देशज ज्ञान के साथ संरक्षण और संवर्धन करेंगे तो निश्चय ही इस एक बेहत्तर कल की उम्मीद की जा सकती है।