बेरोजगारी और भुखमरी के कगार पर गड़रिया समाज, सरकार सहारा दे तो दौड़ने भी लगेगा राज्य



घुमंतू समाज के अधिकारों पर पलामू में राष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित

29 दिसम्बर को गांधी समृति टाउन हॉल डालटनगंज, पलामू, में आयोजि किया गया। इस सम्मेलन को आयोजित करने का मुख्य उद्देश्य घुमंतु समाज गडरिया की समस्याओं से राज्य और केन्द्र सरकार को अवगत कराना था और उनके निदान की मांग करना था। सम्मेलन में मुख्य वक्ता :के तौर पर सुधीर पाल (जनजातीय कार्य मंत्रालय भारत सरकार की घुमंतु जातियों की कमिटि सदस्य) ने अपनी तथा अपने समाज की बात रखी। घुमंतु भेड़ पालक संघ के राष्ट्रीय सम्मेलन में वक्ताओं ने इन मुख्य बिन्दुओं को उठाया:-
1. घुमंतु भेड़ पालक परिवार को राष्ट्रीय स्तर पर अनुसूचित जन जाति के श्रेणी में शामिल कराना।
2. घुमतु भेड पालको के लिए राज्य स्तर पर ऊनी कम्बल बोर्ड का गठन कराना।
3. घुम मेरा पालक परिवारों की संख्या जिस जिला में दस हजार है वहां पर घुमंतु आवासीय छात्रावास का निर्माण कराना।
4. घुमंतु भेड पालको के भेड़ो का बीमा एवं चरवाहों को प्राथमिक उपचार का प्रशिक्षण सरकार द्वारा कराना।
5. घुमंतु भेड़ पालक परिवार के युवक-युतियों को हस्तकरघा विभाग के द्वारा कम्बल, चादर, तौलिया, साल, टोपी एवं कपड़ा बनाने का प्रशिक्षण दिलाना।
6. भेड पालन व्यवसाय को केन्द्र एवं राज्य सरकार के पशुपालन विभाग के महत्वकांक्षी योजना से जोड़वाना जैसे 90% अनुदान पर मिलते है उसी प्रकार भेड़ पालको को भेड़ दिलवाना।
7. भेड़ पालको के भेड़े के बालो की सरकारी स्तर पर MSP देकर खरीदारी कराना।
8. केन्द्र और राज्य सरकार द्वारा प्रतिवर्ष कम्बल का आति किया जाता है उस में भेड़ पालको द्वारा निर्मित कम्बल प्राथमिकता के आधार पर क्रय
कराना।
9. घुमंतु भेड़ पालक के प्रत्येक गांव में सहकारिता विभाग के द्वारा घुमंतु भेड पालक सहकारी सहयोग समिति का निर्माण कराकर लोगों को स्वरोजगार से जोड़ना ।
10. घुमंतु भेड़ पालको का भेड़े की संख्या यदि जिलों में पच्चास हजार से अधिक है तो वहां पर मिनी कम्बल फिनिसिंग प्लांट का निर्माण कराना।
11. केन्द्र और राज्य सरकार द्वारा संचालित भेड़ प्रज्जन्न केंद्र में भेड़ो की नस्लों में सुधार कराने पर संघर्ष करना एवं भेड़ प्रज्जन्न केंद्र में चतुर्थ वर्गीय कर्मचारी में मेड पालको के लिए पद आरक्षित कराना।
12. भेड़ पालको के भेड़ो को मौसमी बीमारी से बचाने हेतु प्रतिवर्ष जून के महिने में निःशुल्क टीकाकरण कराना।
13. भेड़ पालको भेड़ चराने हेतू वन भूमि पर अधिकार दिलाना।
14. भेड़ पालको को भेड़ चराते समय एटरोसिटी होने पर एसी-एसटी के तरह इनको भी कानूनी व आर्थिक सहायता दिलाना।
15. घुमंतु भेड़ पालक को FRA कानून के तहत राष्ट्रीय स्तर पर वनभूमि पर जिविकोपार्जन हेतु भूमि का पट्टा दिलाना।
16. भेड का पोटी एवं मूत्र में Urgonic ऊरवरा शक्ति प्रचुर मात्र में पाया जाता है इसका भी खरीदारी कृषी विभाग द्वारा कराना। 17. मेड़ का दूध व घी में औषधीय गुण पाया जाता है, इस पर अनुसंधान कराकर पैटेन्ट दवा बनवाने में सरकार अवगत करवाना ।

गड़रिया समाज के बारे में

गड़रिया, जिन्हें बघेल, पाल, धनगर, होलकर कुरुबा बाघेला, गाडरी, गायरी, या गैरी के नाम से भी जाना जाता है, एक ओबीसी जाति है जो पारंपरिक रूप से पशुधन, विशेष रूप से भेड़ प्रजनन में पेशेवर रूप से शामिल थी। यह जाति मुख्य रूप से भारत के सभी राज्यों में पायी जाती है। सभी राज्यों में इन्हें अलग-अलग नामों से जाना जाता है।
अगर बात झारखंड के सदर्भ की करें तो यह राज्य की ऐसी जाति है जिसमें देश की अर्थव्यवस्था को बदलने का सामर्थ्य है, लेकिन राज्य में न सिर्फ यह जाति उपेक्षा का दंश झेल रही है, बल्कि उनके मूल और पारम्परिक उद्योग को भी नकार दिया गया है।   
आज स्थिति यह है कि झारखंड के विभिन्न क्षेत्रों में निवास करने वाले करीब डेढ़ लाख गड़रिया समाज के लोग बेरोजगारी और भूखमरी का दंश झेलने को विवश हैं। इनका मूल व्यवसाय भेड़ पालन और उन का निर्माण था। ये भेड़ का घी निकाल कर बेचा करते थे, मगर अब इनका यह पुस्तैनी पेशा करीब-करीब समाप्त हो चुका है। इसके कारण इनके समक्ष आर्थिक संकट उत्पन्न हो गई है। विडम्बना यह देखिये कि राज्य में आजीविका के लिए अनेकों प्रकार की योजनाएं कार्यान्वित हैं, कृषि क्षेत्र की भी कई योजनाएं हैं। लेकिन भेड़ पालन और ऊन उद्योग स्थापित करने वाली कोई भी योजना न तो चल रही है, और न ही सरकार की योजनाओं की लिस्ट में है। गड़रिया लोग सरकार से अपने लिए संचालित सरकारी योजनाओं से जोड़ने और रोजगार उपलब्ध कराने की मांग वर्षों से कर रहे हैं। इनका कहना है कि पहले भेड़ के ऊन से बने कंबलों की अच्छी मांग थी, मगर आहिस्ता-आहिस्ता मार्केट से ये बाहर हो गया।

पलामू में जुटा गड़रिया समाज, रखी अपनी बात

जलवायु न्याय कार्यकर्ता घुमंतू समाज के अधिकारों पर एक सम्मेलन पलामू में आयोजित किया गया। जिसमें राज्यभर से गड़रिया समाज के कई विशिष्ट लोग एकत्र हुए। सम्मेलन में एक वक्ता रविपाल ने कार्यक्रम के समापन पर अपनी बात रखते हुए कहा कि दशकों पहले भेड़ के ऊन से बने कंबल की अच्छी मांग थी। हर घर में लोग करीब-करीब इससे बने कंबल ही इस्तेमाल करते थे। मगर बदलते समय के साथ भेड़ के ऊन से बने कंबलों की मांग घट गयी और इसकी जगह मखमली कंबलों की बिक्री एवं मांग बढ़ गयी। इसके कारण इनका रोजगार पूरी तरह से खत्म हो गया। चतरा से आये संदीप ने कहा कि भेड़ पालन कर ऊन बनाते थे। आज लोग हाथों से बनाये गये कंबलों की खरीदारी नहीं करते हैं। जिससे गड़ेरिया समाज के सामने जीवन-बसर करने में काफी परेशानी हो गई है। तीन दशकों से भेड़ पालकों के लिए किसी प्रकार के रोजगार की व्यवस्था नहीं की गई है। भेड़ पालकों को पशु विभाग से सरकारी योजना का लाभ मिलना चाहिए था।

गड़ेरिया समाज की प्रमुख समस्या

झारखंड में भेड़ पालकों को ओबीसी कैटेगरी में रखा गया है। ये लोग घुमंतू परिवार में आते हैं। पूरे वर्ष घर के बाहर होते हैं। कोई एक निश्चित स्थायी पता नहीं है। ये लोग प्रकृति से हमेशा जुड़े हुए रहते हैं, और प्रकृति का संरक्षण भी करते हैं। सरकार और समाज दोनों तरफ से परेशान किए जा रहे हैं। इनका भेड़ पालने का मुख्य स्रोत जंगल है। जंगल में भेड़ें चरेंगी तभी इनका जीवन-बसर हो सकता है, लेकिन आज तेजी से जंगल कट रहे हैं। ग्रामीण क्षेत्रो में जो रैयती जमीन है। आज वहां भी भेड़ चराने में मना किया जा रहा है। इसलिए भेड़ पालने का काम मुश्किल हो गया है। राज्य के पलामू,गढ़वा जिलों में 1500 परिवार भेड़ पालन करके अपना जीवन बसर कर रहे हैं। पाल जाति में कुछ लोगों का शैक्षणिक विकास हुआ है।

सरकार से संरक्षण मिले तो विकास सम्भव 

यहां यह ध्यान दिला दें किसरकार की ओर से गौ पालन, मछली पालन, मुर्गी पालन समेत अन्य पशु पालकों के लिए योजनाएं लायी जाती हैं, लेकिन सरकार भेड़ पालन करने वालों लिए अबतक कोई योजना नहीं लाई है, इससे भेड़ पालक नाराज हैं। इन्हें प्रशिक्षण देने के लिए सरकार के पास कोई योजना नहीं है। पलामू, गढ़वा जिलों से 25 हजार किलो ऊन निकालते हैं और उसे कचरे में फेंक दिया जाता है। ऊन बनाने की प्रक्रिया है। उसे सहयोग करने के लिए अब तक कोई सरकारी संस्था या कोआॅपरिटिव बैंक सामने नही आये हैं। लोग अपने चरखे से धागा बनाते थे। वह परंपरा आज भी जिंदा है। परंपरागत भेड़ पालकों का जीवन अब संकट से गुजर रहा है।
घुमंतू समाज के अधिकारों पर एक सम्मेलन मौके पर घनश्याम संवाद, छंदु ,अनुप्रिया, सौरम कुमार ,संदीप, बीरेद्र , बिहार से शिवनाथ पाल, अभिमन्यु भगत, सुधीर पाल समेत सैकड़ो लोग शामिल थे। सम्मेलन में सभी ने अपने बहुमूल्य विचार भी रखे।

चारागाह और पशुपालकों के अंतर्राष्ट्रीय वर्ष का महत्व

संयुक्त राष्ट्र की महासभा (यूएनजीए) ने 15 मार्च, 2022 को 2026 को चारागाह और चरवाहों के अंतर्राष्ट्रीय वर्ष (आईवाईआरपी) के रूप में घोषित किया।
UNGA 2030 एजेंडा के साथ सतत विकास के लिए अपने सभी रूपों और आयामों में गरीबी उन्मूलन के लिए पुष्टि करता है, जिसमें आर्थिक, सामाजिक और पर्यावरणीय एक संतुलित और एकीकृत तरीके से तीन आयामों में सतत विकास प्राप्त करने के लिए अत्यधिक गरीबी शामिल है। यह स्वीकार करता है कि "पशुपालन एक गतिशील और परिवर्तनकारी आजीविका है जो विविध पारिस्थितिक तंत्रों, संस्कृतियों, पहचान, पारंपरिक ज्ञान और प्रकृति के साथ सह-अस्तित्व के ऐतिहासिक अनुभव से जुड़ी है। आर्थिक विकास में योगदान देने और लचीली आजीविका के लिए टिकाऊ भूमि और पशुचारण महत्वपूर्ण हैं UNGA ने FAO को 2026 में IYRP के कार्यान्वयन को सुविधाजनक बनाने के लिए कहा। चारागाह दुनिया की पृथ्वी की सतह के आधे से अधिक हिस्से को कवर करते हैं (वैज्ञानिक वर्तमान में 54% का अनुमान लगाते हैं) और इस प्रकार यह हमारा सबसे बड़ा पारिस्थितिकी तंत्र है, लेकिन यह सबसे अधिक खतरे में है और सबसे कम संरक्षित है। दुनिया भर में, चारागाह करोड़ों चरवाहों की आजीविका और खाद्य सुरक्षा का समर्थन करती है, जो न केवल अपने लिए बल्कि लाखों अन्य लोगों के लिए भी पशुधन उत्पाद प्रदान करते हैं। चरवाहे अपने पशुओं का उपयोग अक्सर विरल और अल्पकालिक वनस्पतियों को परिवर्तित करने के लिए करते हैं जो घरेलू और निर्यात दोनों बाजारों के लिए उच्च गुणवत्ता वाले प्रोटीन के साथ सस्ते, स्वस्थ भोजन में मनुष्यों द्वारा उपभोग किया जा सकता है। इस प्रकार वे वैश्विक पोषण और खाद्य सुरक्षा में योगदान करते हैं।
भारत में, सवाना घास के मैदान पारिस्थितिक तंत्र विभिन्न बायोम (पश्चिमी घाटों में उच्च ऊंचाई वाले शोला, निचले प्रायद्वीप, हिमालयी पठार आदि) को कवर करते हैं और देश के भौगोलिक क्षेत्र के 17% हिस्से पर कब्जा करते हैं। भारत में सवाना घास के मैदान 13 मिलियन चरवाहों का समर्थन करते हैं जो 46 विभिन्न खानाबदोश और बसे हुए देहाती समुदायों से संबंधित हैं, राष्ट्रीय सकल घरेलू उत्पाद में 3% का योगदान करते हैं और 70% ग्रामीण आबादी के लिए रोजगार और आजीविका प्रदान करते हैं जबकि NBAGR द्वारा 2021 में 202 पंजीकृत नस्लों में से 75 पशुधन नस्लों का संरक्षण करते हैं। 1960 के दशक के दौरान पर्वतीय क्षेत्र के अधिकांश सवाना घास के मैदानों को नीलगिरी और पाइस वृक्षारोपण में परिवर्तित कर दिया गया था। राजस्व विभाग के नियंत्रणाधीन ग्राम की सामान्य भूमि का उपयोग चराई के लिए किया जाता है, जिसे वनीकरण या बुनियादी ढांचे के विकास के लिए लक्षित किया जाता है। इन भूमियों को गलती से बंजर भूमि और बंजर प्रकार की श्रेणी के तहत वर्गीकृत किया गया जलवायु परिवर्तन है और वृक्षारोपण या अक्षय ऊर्जा परियोजनाओं जैसे सौर और पवन खेतों के रूप में शमन परियोजनाओं के लिए लक्षित है। इसके कारण सरकार की एक रिपोर्ट (पांडे, 2019) के अनुसार घास के मैदानों का कुल क्षेत्रफल 2005 में 18 मिलियन हेक्टेयर (mha) से घटकर 2015 में 12.3 mha हो गया है। कच्छ में बन्नी घास के मैदानों या जंगलों में पारंपरिक चराई क्षेत्र तक पहुंच स्थानीय पशुधन पर निर्भर समुदाय के लिए कानूनी रूप से प्रतिबंधित है और पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं के माध्यम से पर्यावरण या जैव विविधता के संरक्षण में उनके योगदान को बड़े पैमाने पर समझौता किया जा रहा है।

सम्मेलन में इनकी रही उपस्थिति

★ विजय सिंह पाल (अखिल विश्व राष्ट्रीय ओबीसी, एसी-एसटी महारामा भारत) ★ मा० युगल किशोर पाल (जनसंग्राम मोर्चा झारखण्ड
★ नेम सिंह बघेल (संस्थापक पाल महासभा गुजरात)
★ उदय राम पाल (लेव निवृत उप सहायक निदेशक पशुपालन व जेवरी हरियाणा
★ सतपाल (महरिया वेलफेयर सोसाइटी पंजाब)
मुख्य अतिथि :-  श्रीमोती श्रीपाल जी (राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिल भारतीय गड़रिया महासभा भारत)
मुख्य वक्ता :- सुधीर पाल (जनजातीय कार्य मंत्रालय भारत सरकार की घुमंतु जातियों की कमिटि सदस्य)
विशिष्ट अतिथि :-
● सवाराम देवासी (टाईक विकास समिति राजस्थान)
● महिन्द्र सिंह पाल (टिया वेलफेयर सोसाइटी पंजाब) 
● सत्य पाल (सेवानिवृत रेलवे इंस्पेक्टर हरियाणा)
● श्रीकांत पाल (ताजपुर, उत्तर प्रदेश) • मा० शोभा पाल (राष्ट्रीय सदस्य अखिल पाल महासभा, भारत) 
● मा० धर्मेन्द्र पाल (राष्ट्रीय सदस्य अखिल पाल महासभा, भारत) 
● कुन्दन भगत (समाजिक चिंतक देवपर
● पारस पाल (समाजसेवी, पलामू)
● भाजु पाल (संयोजक या समाज, सरगुजा संभाग छत्ती
● बैजनाथ पाल (टिया समाज सरगुजा संभाग छत्तीसगढ़)
● शिव पाल (टिया समाज जिला सरगुजा, छत्तीसगढ़)
● ललन पाल (हरिया समाज, जिला बलरामपुर, छत्ती
● प्रतिभा पाल (बरिया पाल महासभा मध्यप्रदेश)
● शीला पाल ( पाल महासभा जिला-उनी मध्यप्रदेश
● डा० दिनेश पाल (छपरा, बिहार)
● सर्वजीत पाल (बक्सर, बिहार)
● राजेश पाल (पाल एकता संघ औरंगाबाद, बिहार)
● डा० संतोष पाल (त्सा पदाधिकारी, पलामू)
● रामेश्वर भगत (बतरा, झारखण्ड )
● मा० सुखवीर पाल (युवा अध्यक्ष पाल महासंघ जिला-अक्षा, झारखण्ड)
● मा० सुमित पाल (सरंक्षक पाल महासंघ जिला-अढ़वा, झारखण्ड)
● रामनाथ पाल (प्रवक्ता पाल महासंघ जिला-गढ़वा सारखण्ड)
● राजेन्द्र पाल (वार्ड पार्षद नगर पंचायत हुसैनाबाद, पलामू) 
● कमला देवी (मुखिया जोगा पंचायत पलामू)
● संजू देवी (मुखिया कुटम् पंचायत पलामू)
● भूषण पाल (मुखिया स्तनाग पंचायत पलामू)
● टी.पी. पाल, फौजी साहब (इटियाडीह )
● सुरेन्द्र पाल (कण्डा पासू)
● अशर्फी पाल (बरडीहा, जिला-)
● विनोद पाल (खोगा, पलामू)
● आलोक पाल (होलंगा, पलामू)
● परदिव पाल (फुलिया, पलामू)
● उमेश पाल (मुरुमावु, पलामू)
● सुनिल पाल (पंचायत समिति, पलामू)
● मुन्ना पाल (पंचायत समति, पलामू)
● सीताराम पाल पासू
● रमेश पाल जे.ई. (बाना, पासू)
● मंगर पाल (बपमानवा, पलामू)
● रमेश पाल (मुरमाउला रेहला, पलामू) 
● बुद्धदेव पाल (लोवरया, गढ़वा)
राजदेव पाल (खुनापासू
● विद्यापती पाल (खुदवा पलामू)
● सूर्यदेव पाल (बघावा, खुदवा पलामू)
● उग्रेश्वर पाल (सुदना पलामू)
● सुरेन्द्र पाल (कौड़िया, पलामू) 
● लालमण पाल (कौड़िया, पलामू)
● चन्द्रदीप पाल (भुवा, पलामू)
● राजेन्द्र पाल (कुन्दरी, पलामू)
● विजय पाल (लालगढ़ पलामू)
● अजय पाल (रामजाबी बिधा, पलामू)
● सत्येन्द्र पाल (पूर्व लेई. बेटिया, पलामू)
● संजय पाल (तुम्बेटा, पलामू)
● नरेश पाल (बसवा, पलामू)
अध्यक्षता व मंच संचालक :- रवि पाल (अध्यक्ष घुमंतु भेड़ पालक संघ झारखण्ड)
 
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