श्रद्धाजंलि श्रद्धासुमन  - झारखंड के सपूत बोनीफास लकड़ा थे संविधान सभा के सदस्य, आदिवासियों के अधिकारों को संविधान में दिलायी जगह

रतन तिर्की



आमतौर पर आदिवासी का अर्थ पिछड़ा मान लिया जाता है. झारखंड के इतिहास पर गौर करेंगे, तो पायेंगे कई ऐसे आदिवासी नेता हुए, जिन्होंने आजादी की लड़ाई में तो भूमिका निभायी ही. स्वतंत्र भारत में लिखे गये संविधान में कुछ ऐसे प्रावधान करवाये, जिसने हमारे संविधान को मजबूती प्रदान की. शोषित, पीड़ित और पिछड़े लोगों के अधिकार देने की बात की. ऐसे ही एक शख्स थे बोनाफीस लकड़ा. लोहरदगा में जन्मे झारखंड के इस सपूत के बारे में आप भी पढ़ें.
-आदिवासी हितों की आवाज की थीके प्रावधान कराये थे शामिल
-छोटानागपुर व संताल को स्वायत्त क्षेत्र बनाने की मांग की थी
-अलग राज्य की मांग को लेकर आजाद भारत में जेल भी गये थे
संविधान सभा के सदस्य बोनीफास लकड़ा (चार मार्च 1898-आठ दिसंबर 1976) ने छोटानागपुर व संताल परगना (वर्तमान झारखंड) के आदिवासियों के लिए सुरक्षा प्रावधानों को संविधान में शामिल करवाने में अहम भूमिका निभायी़ उन्होंने संविधान सभा में छोटानागपुर प्रमंडल (रांची, हजारीबाग, पलामू, मानभूम, सिंहभूम) व संताल परगना को मिलाकर स्वायत्त क्षेत्र बनाने, इसे केंद्रशासित राज्य का दर्जा देने, सिर्फ आदिवासी कल्याण मंत्री की नियुक्ति, जनजातीय परामर्शदातृ परिषद (टीएसी) के गठन की समयसीमा तय करने, पांचवीं अनुसूची क्षेत्र में सभी सरकारी नियुक्तियों पर ट्राईबल एडवाइजरी कमेटी (टीएसी) की सलाह व उसके अनुमोदन, विशेष कोष से अनुसूचित क्षेत्रों के समग्र विकास की योजनाएं लागू करने और झारखंडी संस्कृति की रक्षा की पुरजोर वकालत की थी़ उन्होंने जयपाल सिंह मुंडा के साथ खुलकर अपने विचार रखे़ संविधान निर्माण के लिए 13 दिसंबर, 1946 को डॉ भीमराव आंबेडकर की अध्यक्षता में संविधान सभा का गठन हुआ. इसमें देशभर से 299 चयनित सदस्य थे. बोनीफास लकड़ा भी उनमें से एक थे.
1937 में विधानसभा के लिए रांची सामान्य सीट से चुने गये
बोनीफास लकड़ा ने वर्ष 1937 में रांची में वकालत शुरू की. उन्होंने शोषित-पीड़ित आदिवासियों को न्याय दिलाने की लड़ाई लड़ी़ इसी साल रांची सामान्य सीट से कैथोलिक सभा के प्रत्याशी के रूप में विधायक (बिहार प्रोविंसियल असेंब्ली के सदस्य) चुने गये, जबकि यहां की अनुसूचित जनजाति की आरक्षित सीट कांग्रेस के खाते में गयी़ वह 1946 से 1951 तक बिहार सरकार में एमएलसी व पार्लियामेंट सेक्रेटरी भी रहे़.
इससे पूर्व उन्होंने बिशप वान होप एसजे के साथ मिलकर 1932-1933 में ईसाई संगठन, कैथोलिक सभा का गठन किया और निर्विरोध इसके संस्थापक अध्यक्ष चुने गये़ इस सभा ने राज्य पुनर्गठन आयोग के समक्ष अलग राज्य, शिड्यूल एरिया व शिड्यूल ट्राइबल कमीशन की मांग की थी़ वह आदिवासी उन्नति समाज के सक्रिय सदस्य भी रहे़ जयपाल सिंह मुंडा, बंदीराम उरांव, पॉल दयाल, इग्नेस बेक, जूलियस तिग्गा, हरमन लकड़ा, थियोडोर सुरीन व ठेबले उरांव आदि के साथ वह 1939 में गठित आदिवासी महासभा के संस्थापक सदस्य थे़ अलग झारखंड राज्य की मांग को लेकर बिरसा सेवा दल के आंदोलन के क्रम में वह 1966 से 1968 तक जेल में रहे.
लोहरदगा के दोबा गांव में हुआ था जन्म बोनीफास लकड़ा का जन्म लोहरदगा जिले के कुड़ू प्रखंड के दोबार गांव में चार मार्च, 1898 में हुआ था़ वे अपने माता-पिता के इकलौते पुत्र थे़ उनकी प्रारंभिक शिक्षा गांव में ही हुई. बाद में उनके पिता सिलास लकड़ा व मां संतोषी ने उनका दाखिला रांची के संत जॉन स्कूल में कराया़ यहां से 1918 में मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद उनका दाखिला ओड़िशा के रावेंसा कॉलेज में कराया गया. ओड़िशा से इंटर की पढ़ाई पूरी करने के बाद बोनीफास ने पटना विश्वविद्यालय से बीए व एमए की डिग्री ली. यहीं से कानून की भी पढ़ाई पूरी की. उन्होंने सबौर कृषि महाविद्यालय में कृषि स्नातक का कोर्स पूरा किया, जिसके बाद रांची के संत जॉन स्कूल में कुछ समय तक शिक्षक के रूप में कार्य किया़ कुछ वर्षों तक आकाशवाणी, रांची से भी जुड़े रहे.
संत जेवियर्स कॉलेज, रांची व होली फैमिली अस्पताल, मांडर को सरकारी अनुदान दिलाने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही़ अपने जीवन के अंतिम पड़ाव में वह अपने पैतृक गांव चले गये और खेती-बारी से जुड़ गये़ अचानक अस्वस्थ होने पर उन्हें रांची लाया गया, जहां पीस रोड स्थित उनके आवास में 78 वर्ष की आयु में उनका निधन हो गया.
(नोट : यह आलेख स्व बोनीफास लकड़ा के पुत्र विजय लकड़ा (स्टेट बैंक के सेवानिवृत्त पदाधिकारी) व अजय लकड़ा (सेंट्रल एक्साइज के सेवानिवृत्त अस्टिटेंट कमिश्नर) से बातचीत पर अाधारित है. बोनीफास लकड़ा के सबसे बड़े पुत्र ब्रूनो लकड़ा का निधन हो चुका है, जो मेकन में सीनियर डिजाइन इंजीनियर थे)
 
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