के टी शाह की पुण्य तिथि 14 मार्च पर विशेष
जब देश की आजादी के अग्र पंक्ति के ज्यादातर नेता वेस्टर्न कलर में रंग गये थे और भारत के विकास की बुनियाद के लिए संसाधनों के हर-हाल में दोहन को उचित ठहरा रहे थे, के. टी. शाह आज के भारत को देख रहे थे। लगभग आठ दशक पहले ही के.टी.शाह को दिख गया था कि यदि नीतियों पर नियंत्रण नहीं हुआ तो संसाधनों की लूट ही विकास का मॉडेल हो जाएगा। नैसर्गिक संसाधनों को लेकर कॉर्पोरेट बनाम कम्युनिटी का संघर्ष दावानल का रूप ले लेगा। यह उनकी दूर दृष्टि थी। आज जब यह आलेख आप पढ़ रहे हैं देश के एक करोड़ से ज्यादा लोग जमीन और जंगल पर अपने परंपरागत अधिकार, अस्तित्व और आजीविका के लिए कॉर्पोरेट और सरकार के गठजोड़ से दो-दो हाथ कर रहे है। लैंड कान्फ्लिक्ट वाच की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक खनन,पावर और संसाधनों के दोहन के लिए करीब 900 प्रोजेक्ट प्रस्तावित हैं। इन परियोजनाओं को लगभग 50 हजार हेक्टेयर जमीन चाहिए। परियोजयाओं में लगभग चौंतीस लाख करोड़ का निवेश प्रस्तावित है। परियोजनाओं से लाखों प्रभावित तो होंगे ही लेकिन राज्य को क्या मिलेगा, लोगों को क्या मिलेगा,आजीविका कितनी मिलेगी, इसको कोई गारंटी नहीं है। के. टी. शाह की सजग और सचेत आँखें में इन्डस्ट्रीयल क्रांति के साथ समुदायों के हाशिये पर धकेले जाने की प्रक्रिया कैद रही थी।
यही कारण था कि जब 22 नवंबर 1948 को संविधान सभा ने संविधान के प्रारूप के अनुच्छेद 31 में प्रस्तावित संशोधन पर बहस हो रही थी, वे कमजोर संशोधनों को खारिज करने की वकालत कर रहे थे। संविधान सभा के बहस में भाग लेते हुए उन्होंने कहा-
“जैसा कि सभी जानते हैं, खदानें और खनिज संपदा समाप्त होने वाली, बर्बाद होने वाली संपत्ति हैं। दुर्भाग्य से, इन्हें समुदाय द्वारा बहुत ही किफायती और मितव्ययी तरीके से उपयोग किए जाने के लिए सुरक्षित और उचित रूप से संरक्षित रखने के बजाय, व्यक्तिगत लाभ-चाहने वाले रियायत-धारकों और निजी एकाधिकारियों को सौंप दिया गया है, ताकि हम उनके शोषण पर कोई नियंत्रण न रख सकें। संसाधनों का दोहन लगभग लुटेरों की तरह हो रहा है ताकि वे अपने लिए अधिकतम लाभ प्राप्त कर सकें, भले ही खदानें समाप्त हो जाएं या सदियों से संग्रहित संपदा समाप्त हो जाए।
इसलिए, मेरा सुझाव है कि हम इन खदानों और खनिज संपदा के उपयोग में निजी लाभ चाहने वालों के दीर्घकालिक हितों को शामिल न होने दें, क्योंकि इन खदानों और खनिज संपदा के उचित उपयोग पर न केवल हमारी औद्योगिक स्थिति निर्भर करती है, न केवल इस देश के औद्योगिकीकरण की हमारी सभी महत्वाकांक्षाएं, आशाएं और सपने निर्भर करते हैं, बल्कि इससे भी अधिक, राष्ट्र की रक्षा और सुरक्षा भी निर्भर करती है। इसलिए, मैं दोहराता हूं, यह समुदाय और उसकी आने वाली पीढ़ियों के खिलाफ अन्याय होगा यदि आप इस समय भी यह नहीं समझते हैं कि देश की खनिज संपदा को निजी हाथों में नहीं छोड़ा जा सकता है। यह सही समय है कि हम इस संविधान में बहुत स्पष्ट रूप से यह निर्धारित करें कि इन संसाधनों का अंतिम स्वामित्व, प्रत्यक्ष प्रबंधन, संचालन और विकास केवल राज्य या राज्य के एजेंटों, राज्य के प्रतिनिधियों या राज्य के निकायों , जैसे कि प्रांतों, नगर पालिकाओं या वैधानिक निगमों के हाथों में हो सकता है। मेरे विचार के समर्थन में यहाँ एक और तर्क भी दिया जा सकता है।“
प्रोफेसर के.टी. शाह ने प्रस्ताव दिया कि संविधान के प्रारूप के अनुच्छेद 31 के खंड (ii) को, जो वर्तमान संविधान के अनुच्छेद 39(बी) के अनुरूप है, इस प्रकार प्रतिस्थापित किया जाए: “अनुच्छेद 31 के खंड (ii) के स्थान पर निम्नलिखित प्रतिस्थापित किया जाए: ‘(ii) कि देश के प्राकृतिक संसाधनों का स्वामित्व, नियंत्रण और प्रबंधन, चाहे वे खदानें और खनिज संपदा, वन, नदियां और बहते जल हों या देश के तट पर समुद्र हों, सामूहिक रूप से देश के स्वामित्व में होंगे और उसका दोहन और विकास समुदाय की ओर से राज्य द्वारा किया जाएगा। इन संसाधनों का प्रतिनिधित्व केंद्रीय या प्रांतीय सरकार या स्थानीय शासन प्राधिकरण या वैधानिक निगम द्वारा किया जाएगा, जैसा कि प्रत्येक मामले में संसद के अधिनियम द्वारा प्रदान किया जा सकता है। ”
प्रोफेसर शाह ने माना कि ये संसाधन ‘प्रकृति के उपहार’ हैं और सामूहिक रूप से सभी लोगों के होने चाहिए। उन्होंने कहा कि यदि उन्हें विकसित किया जाना है तो समुदाय के लिए और समुदाय की ओर से होना चाहिए। इसे शामिल करने के लिए माईं इसलिए नहीं कह रहा हूँ ताकि पूंजीपतियों और देश के बड़े लोगों को खदानों और खनिजों पर काम करने का अवसर न मिले। यह केवल एक निर्देशक सिद्धांत है। क्या हम इसे अपना लक्ष्य नहीं बनाए रखेंगे कि उत्पादन के सभी साधन और प्रकृति के उपहार जो इस विशाल देश के हैं, वे राज्य या समुदाय के हों? मुझे खेद है, महोदय! पूंजीपतियों ने यह डर पैदा किया है कि अगर आप इस तरह की बात करेंगे तो वे उत्पादन करना बंद कर देंगे।
आगे शाह कहते हैं कि अधिकांश मित्र पूंजीपतियों द्वारा उठाए गए डर से विचलित नहीं होंगे क्योंकि उनका उत्पादन समुदाय के कल्याण के लिए नहीं है। यह पूंजीपतियों के कल्याण के लिए है। वे मुनाफे के लिए उत्पादन करते हैं। इस सदन के माननीय सदस्य मुझसे बेहतर जानते हैं कि जब तक वे लाभ कमाते रहेंगे, तब तक वे उत्पादन करते रहेंगे उसके बाद वे उत्पादन नहीं करेंगे। इसलिए हमें विचलित नहीं होना चाहिए। … महोदय, इस अध्याय में और विशेष रूप से इस लेख में क्या हम यह सुझाव नहीं देने जा रहे हैं कि अंततः हमें उनका राष्ट्रीयकरण करना होगा, क्या हम यह सुझाव नहीं देने जा रहे हैं कि यह राष्ट्र का उद्देश्य है, राष्ट्र का लक्ष्य है? प्रोफेसर शाह का मानना था कि खदानों, खनिज संपदा और उनके प्रस्तावित संशोधन में वर्णित अन्य प्राकृतिक संसाधनों जैसे प्राकृतिक संसाधनों का अंतिम स्वामित्व, प्रत्यक्ष प्रबंधन, संचालन और विकास केवल राज्य के हाथों में होना चाहिए।
संविधान सभा में प्रोफेसर शाह की बातें अनसुनी रही और उनके प्रस्तावों की अनदेखी की गयी। आसन पर बैठे अंबेडकर ने कहा- “मैं प्रोफेसर शाह के संशोधन पर विचार करने के लिए पूरी तरह तैयार होता यदि उन्होंने दिखाया होता कि अपने स्वयं के खंडों को प्रतिस्थापित करके वे जो करना चाहते थे, वह वर्तमान भाषा के तहत संभव नहीं था। जहां तक मैं देख पा रहा हूं, मुझे लगता है कि मसौदे की भाषा बहुत व्यापक है और इसमें प्रोफेसर शाह के विशेष प्रस्ताव भी शामिल हैं। इसलिए मैं उन खंडों के लिए इन सीमित विशेष खंडों को प्रतिस्थापित करने की आवश्यकता नहीं देखता। मैं उनके दूसरे और तीसरे संशोधन का विरोध करता हूं।"
अंततः प्रावधान को संशोधित करने के प्रस्ताव पर मतदान हुआ। प्रावधान को प्रतिस्थापित करने के प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया गया और इस प्रकार इसे अपने वर्तमान स्वरूप में पेश किया गया। अनुच्छेद 39(बी) इस प्रकार है: "राज्य, विशेष रूप से, अपनी नीति को सुरक्षित करने की दिशा में निर्देशित करेगा-(बी) समुदाय के भौतिक संसाधनों का स्वामित्व और नियंत्रण इस प्रकार वितरित किया जाए कि आम भलाई के लिए सर्वोत्तम संभव हो।" प्रोफेसर शाह के बाध्यकारी प्रावधानों के प्रस्ताव के उलट इसे राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों का हिस्सा बनाकर छोड़ दिया गया। संसाधनों पर सबकी समान पहुँच और समता मूलक बंटवारे का नैसर्गिक प्रावधानों की संविधान में ही भ्रूण हत्या कर दी गयी।
यह कहना भोलापन होगा कि प्रोफेसर शाह के प्रस्तावों को संविधान में जगह देने से असमानता का पहाड़ ही खड़ा नहीं होता। यहाँ नेहरू को याद करना समीचीन प्रतीत होता है। नेहरू भले सत्ता के शीर्ष पर थे लेकिन उन्हें अपनी सीमाएं मालूम थी। उन्होनें स्वयं लिखा है कि कांग्रेस समाजवादी व्यवस्था लागू नहीं कर सकती? नहीं, कांग्रेस मंत्रियों को इतना अधिकार अवसर नहीं है। कांग्रेस की प्रवृत्ति भी उस ओर नहीं है। कांग्रेस की विचारधारा पूंजीपति वर्ग से प्रभावित है। उसका स्वप्न विदेशी पूंजीपतियों की जगह देशी पूंजीपतियों का प्रभुत्व है। कांग्रेस के अधिकांश लोग समाजवादी विचारधारा से परिचित ही नहीं। उनकी रुझान समाजवाद की और कैसे हो सकती है!
ध्यान रहे कि नागरिक अवज्ञा आंदोलन के निलंबित होने के बाद से ही गांधीवादी भी कांग्रेस पर अपना खोया हुआ नियंत्रण वापस पाने के लिए पूंजीवादी समर्थन और उनकी वित्तीय मदद पाने के लिए उत्सुक थे। इस मोड़ पर पूंजीपतियों के प्रमुख हित कांग्रेस को संवैधानिक राजनीति की सीमाओं के भीतर रखना और उसके समाजवादी पंखों को काटना था। इसके लिए वे कांग्रेस की आंतरिक राजनीति में दखल देने के लिए भी तैयार थे। 1936 में बंबई के इक्कीस व्यापारियों द्वारा हस्ताक्षरित ‘बॉम्बे घोषणापत्र’ में नेहरू के समाजवादी आदर्शों के प्रचार की खुली निंदा की गई थी, जिन्हें निजी संपत्ति और देश की शांति और समृद्धि के लिए हानिकारक माना जाता था। हालाँकि इसने व्यापारिक समुदाय के किसी अन्य वर्ग से समर्थन नहीं जुटाया, लेकिन इसने कांग्रेस के भीतर उदारवादियों के हाथ मज़बूत किए, जिन्होंने नेहरू पर अपने समाजवादी बयानों को कम करने का दबाव डाला।
संविधान सभा में प्रोफेसर शाह ने जिसका अंदेशा किया था, जिस असमानता को राई समझ उसे खतम करने की गुहार लगाई थी, संविधान के लागू होने के 75 साल बाद असमानता का वह राई हिमालय पहाड़ हो गया है। विश्व असमानता रिपोर्ट 2022 के मुताबिक भारत विश्व के सबसे असमान देशों में से एक है। देश की शीर्ष 10% आबादी के पास कुल राष्ट्रीय संपत्ति का 77% भाग है। भारतीय आबादी के सबसे समृद्ध 1% के पास देश की 53% संपत्ति मौजूद है, जबकि आबादी का आधा गरीब हिस्सा राष्ट्रीय संपत्ति के मात्र 4.1% के लिये संघर्षरत है। आय असमानता की हालत है कि शीर्ष 10% और शीर्ष 1% आबादी के पास कुल राष्ट्रीय आय का क्रमशः 57% और 22% हिस्सा है, जबकि निचले 50% की हिस्सेदारी घटकर 13% रह गई है। गरीबों पर कर का बोझ ज्यादा है। देश में कुल वस्तु एवं सेवा कर (GST) का लगभग 64% निचली 50% आबादी से प्राप्त होता है, जबकि इसमें शीर्ष 10% का योगदान मात्र 4% है। स्वास्थ्य सेवा तक पहुँच लगातार मुश्किल होता जा रहा है। कई आम भारतीयों को आवश्यक स्वास्थ्य देखभाल नहीं मिल पाता है। उनमें से 63 मिलियन (लगभग प्रति सेकंड दो लोग) हर वर्ष स्वास्थ्य देखभाल की लागत के कारण गरीबी में धकेल दिये जाते हैं। भारत की लगभग 74% आबादी स्वस्थ आहार ग्रहण कर सकने की वहनीयता नहीं रखती जबकि 39% को पर्याप्त पोषक तत्व प्राप्त नहीं होता। क्या सरकार की नीतियाँ संविधान के प्रावधानों के तहत असमानताओं का गणराज्य खड़ा करती रही है।
समाजवादी विचारक और संविधान निर्माता
भारत के संविधान निर्माण में जिन महान व्यक्तित्वों ने योगदान दिया, उनमें प्रोफेसर के. टी. शाह (K.T. Shah) एक प्रमुख नाम हैं। वे एक अर्थशास्त्री, समाजवादी विचारक, शिक्षाविद् और संविधान सभा के सदस्य थे। उन्होंने भारतीय संविधान के प्रारूप को अधिक समाजवादी और जनकल्याणकारी बनाने के लिए महत्वपूर्ण प्रस्ताव रखे। केदारनाथ टी. शाह का जन्म भारत के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान हुआ था। वे एक प्रतिभाशाली छात्र थे और उन्होंने अर्थशास्त्र और विधि की शिक्षा प्राप्त की। उनकी विद्वता और समाजवादी झुकाव ने उन्हें एक ऐसे चिंतक के रूप में स्थापित किया, जो आर्थिक न्याय और सामाजिक समानता को प्राथमिकता देते थे। के. टी. शाह समाजवादी विचारधारा से प्रेरित थे। वे इस बात पर जोर देते थे कि भारत को एक समाजवादी राज्य होना चाहिए, जहाँ संसाधनों का वितरण समान रूप से हो और सरकार का उद्देश्य जनता के कल्याण को सर्वोच्च प्राथमिकता देना हो। वे महात्मा गांधी और नेहरू के आर्थिक विचारों से भी प्रभावित थे, लेकिन उन्होंने अपने समाजवादी दृष्टिकोण को और अधिक स्पष्ट रूप से संविधान सभा में प्रस्तुत किया। के. टी. शाह का मानना था कि आर्थिक समानता और संसाधनों का न्यायसंगत वितरण ही किसी भी राष्ट्र की प्रगति का मूल आधार होना चाहिए। उन्होंने सरकारी नियंत्रण और नियोजित अर्थव्यवस्था का समर्थन किया, जिससे गरीब और हाशिए पर खड़े लोगों को आर्थिक लाभ मिल सके। वे बड़े उद्योगों के राष्ट्रीयकरण के पक्षधर थे और चाहते थे कि सरकार समाजवादी मॉडल को अपनाए। शाह अनुच्छेद 1 में धर्मनिरपेक्ष, संघीय और समाजवादी को शामिल करना चाहते थे और इसके लिए दो बार संशोधन पेश किए, डॉ. अंबेडकर ने मसौदा समिति की बैठक में दोनों संशोधनों को खारिज कर दिया। लेकिन शाह को तब सही साबित किया गया जब 42वें संशोधन द्वारा धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी शब्दों को प्रस्तावना में शामिल किया गया।
शाह और एच.वी. कामथ ने प्रस्ताव रखा कि मंत्रियों को पदभार ग्रहण करने से पहले अपने हितों, अधिकारों और संपत्तियों की घोषणा करने के लिए बाध्य होना चाहिए। इस प्रस्ताव का उद्देश्य राजनीति में भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाना था। अंबेडकर ने 31 दिसंबर, 1948 को संविधान सभा में अपने उत्तर में कहा कि केवल प्रकटीकरण पर्याप्त नहीं है और "हमारे पास प्रशासन की शुद्धता को लागू करने के लिए एक बेहतर मंजूरी है, और वह है विधान सभा में जुटाई गई और केंद्रित जनमत"। एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स बनाम यूनियन ऑफ इंडिया केस (2000) में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने संसद और राज्य विधानसभाओं के लिए चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवारों के लिए स्व-शपथ पत्र दाखिल करना अनिवार्य कर दिया था, जिसमें अन्य बातों के साथ-साथ उनकी वित्तीय पृष्ठभूमि के बारे में पूरी जानकारी भी शामिल थी। इस प्रकार, शाह के प्रस्ताव को बाद में काफी हद तक स्वीकार कर लिया गया।
संविधान सभा में भूमिका
शाह भारतीय संविधान सभा के सदस्य थे और उन्होंने कई महत्वपूर्ण संशोधन प्रस्ताव रखे। इनमें से प्रमुख थे:
1. समाजवाद को संविधान में शामिल करने की माँग: के. टी. शाह ने यह प्रस्ताव रखा कि संविधान के उद्देशिका (Preamble) में 'समाजवादी' शब्द को स्पष्ट रूप से जोड़ा जाए। हालाँकि, यह संशोधन उस समय स्वीकार नहीं किया गया, लेकिन बाद में 42वें संविधान संशोधन (1976) के माध्यम से 'समाजवादी' शब्द को संविधान में जोड़ा गया।
2. राष्ट्रपति का चुनाव प्रत्यक्ष प्रणाली से कराने की माँग: शाह ने यह तर्क दिया कि राष्ट्रपति को प्रत्यक्ष मतदान द्वारा चुना जाना चाहिए, जिससे सरकार में जनता की सीधी भागीदारी हो। हालाँकि, संविधान सभा ने अप्रत्यक्ष प्रणाली को अपनाने का निर्णय लिया।
3. स्वतंत्र न्यायपालिका की स्थापना: उन्होंने न्यायपालिका की स्वतंत्रता की वकालत की और कहा कि न्यायपालिका को पूरी तरह से राजनीतिक दबाव से मुक्त रहना चाहिए। यह विचार अंततः भारतीय न्यायिक प्रणाली की प्रमुख विशेषताओं में शामिल हुआ।
अर्थशास्त्र और आर्थिक नीतियों पर विचार
1. नियोजित अर्थव्यवस्था का समर्थन
के. टी. शाह ने नियोजित अर्थव्यवस्था की आवश्यकता पर बल दिया। वे मानते थे कि बाजार आधारित अर्थव्यवस्था में असमानता बढ़ती है, और यदि सरकार अर्थव्यवस्था को नियंत्रित करे, तो संसाधनों का न्यायसंगत वितरण संभव होगा। उनका विचार था कि सरकार को प्रमुख उद्योगों, बैंकों और खनिज संपत्तियों पर नियंत्रण रखना चाहिए ताकि समाज के सभी वर्गों को इनका लाभ मिल सके।
2. राष्ट्रीयकरण और सार्वजनिक क्षेत्र की भूमिका
शाह का मानना था कि बड़े उद्योगों और बुनियादी ढांचे से जुड़े क्षेत्रों का राष्ट्रीयकरण किया जाना चाहिए। उनका तर्क था कि निजी क्षेत्र केवल लाभ कमाने पर ध्यान देता है, जिससे समाज के गरीब और वंचित वर्गों को नुकसान होता है। इसलिए, उन्होंने सार्वजनिक क्षेत्र को बढ़ावा देने की बात कही।
3. आर्थिक समानता और कर नीति
के. टी. शाह का विचार था कि आर्थिक समानता केवल नीतियों के माध्यम से ही लाई जा सकती है। उन्होंने प्रगतिशील कर प्रणाली (Progressive Taxation) का समर्थन किया, जिसमें उच्च आय वर्ग पर अधिक कर लगाया जाए और गरीबों को कर में छूट मिले। उनका मानना था कि धन का पुनर्वितरण (Redistribution of Wealth) ही समाजवादी अर्थव्यवस्था की नींव है।
4. श्रमिक अधिकार और न्यूनतम मजदूरी
शाह श्रमिकों के अधिकारों के बड़े समर्थक थे। उन्होंने न्यूनतम मजदूरी, श्रमिक संघों की स्वतंत्रता और काम के बेहतर माहौल की वकालत की। उनका मानना था कि श्रमिकों को बेहतर वेतन और सुविधाएँ मिलेंगी, तो उत्पादकता भी बढ़ेगी और समाज में आर्थिक संतुलन बना रहेगा।
5. कृषि और भूमि सुधार
शाह कृषि क्षेत्र में भूमि सुधारों के बड़े समर्थक थे। उन्होंने सुझाव दिया कि भूमि का पुनर्वितरण किया जाए और जमींदारी प्रथा को समाप्त किया जाए ताकि किसानों को उनकी मेहनत का पूरा लाभ मिले। वे मानते थे कि छोटे किसानों और भूमिहीन मजदूरों को सरकार की ओर से आर्थिक सहायता मिलनी चाहिए।
प्रोफेसर शाह की मृत्यु के बाद ईपीडब्लू (इकनॉमिक एंड पोलिटिकल वीकली) के संपादक ने अपने मित्र पर एक आलेख लिखा था। संपादक ने लिखा कि मृत्यु से कुछ दिन पहले उनसे मुलाकात हुई थी- प्रोफेसर शाह ने मुझे बरामदा दिखाते हुए बताया कि वे टाइपराइटर पर काम करते थे, डॉक्टरों ने उन्हें आराम करने और दिल पर जोर न डालने की सलाह दी है। चीन पर उनकी पुस्तक प्रेस में छपने के लिए तैयार थी। इसलिए स्वाभाविक रूप से चीन हमारी बातचीत का पहला विषय था। चीन में उन्हें केवल भाषा की अज्ञानता ने ही परेशान नहीं किया था बल्कि चीन के सोचने का तरीका भी। उस समय चीन में माओ का शासन था। प्रोफेसर शाह चीन के मुक्ति आंदोलन की पृष्ठभूमि की सराहना करते थे, माओ की प्रशंसा करते थे। चीन के मुक्ति आंदोलन को वे देश के भीतर की सामंती जकड़न से बाहर लाने की मुहिम के तौर पर देखते थे। आंदोलन मुख्य रूप से हमारे मामले की तरह किसी विदेशी विजेता के खिलाफ निर्देशित नहीं था। इससे बहुत कुछ समझ में आता है।
ईपीडब्लू के संपादक लिखते हैं कि प्रोफेसर ने दशकों पहले गंभीरता से सुझाव दिया था कि हमारे टर्नपाइस में मौजूद सोने और चांदी का उपयोग देश के आर्थिक पुनर्निर्माण के लिए किया जाना चाहिए। शाह ने गंभीरता से कहा, "विनिमय बैंकों या मौद्रिक समस्याओं के बारे में क्यों चिंता करें।" हम एक ऐसी अर्थव्यवस्था का निर्माण करेंगे जो मार्क्स की कल्पना से परे होगी। हम विनिमय को पूरी तरह से खत्म कर देंगे!
हालाँकि, संविधान सभा में उनके कई प्रस्तावों को अस्वीकृत कर दिया गया था, लेकिन उनका योगदान महत्वपूर्ण रहा। उनके विचारों का प्रभाव भारतीय राजनीति और आर्थिक नीतियों पर पड़ा। आज भी जब हम भारतीय संविधान की समाजवादी और कल्याणकारी अवधारणा को देखते हैं, तो के. टी. शाह जैसे विचारकों की भूमिका को नहीं भुलाया जा सकता। के. टी. शाह भारत के उन विचारकों में से थे, जिन्होंने आर्थिक और सामाजिक समानता के लिए अपने जीवन को समर्पित कर दिया। वे केवल एक संविधान विशेषज्ञ ही नहीं, बल्कि एक प्रखर समाजवादी चिंतक भी थे। उनका योगदान भारतीय लोकतंत्र और संविधान के मूलभूत सिद्धांतों को मजबूत करने में अहम रहा। उनके अर्थशास्त्रीय विचार आज भी प्रासंगिक हैं और भारत की आर्थिक नीतियों में उनकी झलक देखी जा सकती है।