भारतीय समाज की संरचना अत्यंत जटिल और बहुपरत है। इसमें वर्चस्व की प्रवृत्तियाँ केवल सत्ता और अर्थव्यवस्था के ज़रिए नहीं, बल्कि गहरी सांस्कृतिक प्रक्रियाओं के माध्यम से आकार लेती रही हैं।
यह वर्चस्व संस्कारों के रूप में व्यक्तियों के मानस में इस प्रकार गढ़ा गया है कि वह प्राकृतिक और अपरिवर्तनीय सच जैसा प्रतीत होने लगता है। संस्कृति के ज़रिए वर्चस्व जब जीवनशैली का अंग बनता है, तो उसका प्रतिरोध करना अत्यंत कठिन हो जाता है।
यही कारण है कि भारतीय समाज में वर्चस्व की संरचनाएँ युगों-युगों तक बनी रहीं और बदलती परिस्थितियों में भी अपने मूल स्वरूप को बचाए रख सकीं। वर्चस्व के स्थायित्व को समझने के लिए इतिहासकारों और समाजशास्त्रियों को केवल राजनीतिक घटनाओं तक सीमित नहीं रहना चाहिए। साहित्य और सांस्कृतिक साक्ष्य इस दिशा में महत्वपूर्ण संकेतक हैं। वे यह उजागर करते हैं कि कैसे विचारधाराएँ, विश्वास प्रणालियाँ, लोक परंपराएँ और धार्मिक व्यवस्थाएँ एक वर्चस्वकारी सामाजिक व्यवस्था को वैधता प्रदान करती हैं और उसे दीर्घजीविता प्रदान करती हैं।
संस्कार और संस्कृति के स्तर पर जो वर्चस्व स्थापित होता है, वह बहुधा अदृश्य होता है, क्योंकि वह व्यक्ति के अस्तित्व का हिस्सा बन जाता है। इसलिए संस्कृति और साहित्य का साक्ष्य वर्चस्व की पड़ताल का एक अनिवार्य साधन बन जाता है।
आर्थिक-राजनीतिक संरचना बदलने पर भी ब्राह्मणवादी वर्चस्व?
रणेंद्र का आलेख इस विमर्श को एक नई गंभीरता प्रदान करता है। वे उस बुनियादी प्रश्न को उठाते हैं जो आमतौर पर हाशिए पर डाल दिया जाता है : जब इतिहास में आर्थिक संरचना और विचारधाराएँ, संस्थाएँ निरंतर परिवर्तित होती रही हैं, तो फिर ब्राह्मणवादी वर्चस्व क्यों स्थायी बना रहा? इस सवाल का उत्तर रणेंद्र केवल घटनाओं या राजनैतिक परिवर्तनों में नहीं तलाशते। वे समाजशास्त्र और मानवविज्ञान के विमर्शों का सहारा लेते हैं — जैसे संस्कृति के भीतर वर्चस्व के निर्माण और पुनरुत्पादन की प्रक्रिया को समझने के लिए।
उनका निष्कर्ष अत्यंत विचारोत्तेजक है कि भारतीय समाज ने "विपरीत युग्मों" (binaries) — आर्य बनाम अनार्य, पहली बनाम दूसरी परंपरा, अनेकता में एकता बनाम एकता में अनेकता — का उपयोग करते हुए वर्चस्व को बनाए रखा। ये द्वंद्वात्मक युग्म वर्चस्व को गहरा बनाने में सहायक रहे, क्योंकि विरोध को समाहित कर लिया गया, न कि नष्ट किया गया। विपरीत तत्वों को अपनाकर उन्हें अपने पक्ष में मोड़ने की यह रणनीति वर्चस्व की स्थायित्व शक्ति को बढ़ाती रही।
गुप्त-उत्तरगुप्त काल : वर्चस्व के सांस्कृतिक पुनर्गठन की एक मिसाल
गुप्त और उत्तरगुप्त काल भारतीय इतिहास में एक निर्णायक मोड़ है। इस समय वैदिक धर्म, जो यज्ञ-बलि आधारित था, धीरे-धीरे बहुदेववादी और मूर्तिपूजक पौराणिक धर्म में रूपांतरित होता है। यह बदलाव मात्र धार्मिक न होकर सांस्कृतिक और सामाजिक भी था।
पर-संस्कृतिग्रहण की प्रक्रिया के माध्यम से आदिवासी और लोक परंपराओं को आत्मसात किया गया।
आदिवासी देवताओं, प्रकृति पूजा, लोक अनुष्ठानों को ब्राह्मणवादी परंपरा के भीतर समाहित कर लिया गया, लेकिन एक संशोधित अर्थ के साथ। यह एक ऐसी प्रक्रिया थी, जिसमें एक ओर विविधता का समावेश था, दूसरी ओर वर्चस्व का पुनःस्थापन। रणेंद्र का विश्लेषण इस प्रक्रिया को गहरे स्तर पर उजागर करता है। वह दिखाते हैं कि यह समावेशीकरण आदिवासी या लोक संस्कृति की रक्षा का प्रयास नहीं था, बल्कि एक ऐसी रणनीति थी जिसमें लोक आस्थाएँ ब्राह्मणवादी ढांचे में बंधी गईं। देवी-देवताओं का स्वरूप बदला गया, पूजा विधियों को व्यवस्थित किया गया, और अंततः आदिवासी अस्मिता का क्षरण हुआ।
आदिवासियों के इतिहास लेखन में धोखाधड़ी
यह विषय केवल इतिहास और संस्कृति तक सीमित नहीं है, बल्कि यह भारतीय समाज के अकादमिक विमर्श में एक स्थायी मुद्दा बन चुका है। करीब ढ़ाई साल पहले तत्कालीन जनजातीय कल्याण मंत्री अर्जुन मुंडा के साथ मैं राष्ट्रीय जनजातीय संस्थान के एक कार्यक्रम में हमदोनों मंच साझा कर रहे थे, तो उन्होंने आदिवासियों के छोटे गणराज्यों को इतिहास में शामिल किए जाने को वर्चस्व की राजनीतिक संस्कृति बताई थी। अर्जुन मुंडा ने यह भी बताया था कि कैसे भाषायी आधार पर राज्यों के गठन में आदिवासियों की वाचिक परंपराओं को हाशिये पर धकेलने के लिए 'टूल्स' के रूप में इस्तेमाल किया गया।
यह टिप्पणी महत्वपूर्ण है क्योंकि यह उस व्यापक सामाजिक और सांस्कृतिक उपेक्षा को उजागर करती है जो आदिवासियों के इतिहास और पहचान को लेकर रही है। सत्तर के दशक में एक प्रसिद्ध जर्नल ने आदिवासियों के इतिहास लेखन में "अकादमिक धोखाधड़ी" की बात की थी। यह न केवल उनके इतिहास को तिरस्कार देने का मामला था, बल्कि यह ऐतिहासिक दृष्टिकोण की अपर्याप्तता और पक्षपाती दृष्टिकोण को भी प्रकट करता था।
रणेंद्र के गहन अध्ययन ने इस विषय को और अधिक गहराई से देखने की आवश्यकता को महसूस कराया है।
उनकी खोज यह बताती है कि कैसे आदिवासियों की परंपरा, इतिहास और पहचान को ऐतिहासिक दस्तावेजों और अकादमिक विमर्श से बाहर रखा गया, जिससे वर्चस्व की संरचनाओं को और मजबूत किया गया।
वर्चस्व का आधुनिक संदर्भ
यह विमर्श केवल अतीत तक सीमित नहीं है। आज भी भारतीय समाज में सांस्कृतिक वर्चस्व की प्रक्रिया विभिन्न रूपों में जारी है। लोक संस्कृति, जनजातीय परंपराएँ और उपेक्षित समुदायों की विशिष्टता को प्रायः मुख्यधारा की संस्कृति में इस तरह समाहित किया जाता है कि उनकी अलग पहचान मिट जाती है।
यह समावेशन दिखने में उदार प्रतीत होता है, लेकिन असल में वह वर्चस्व की निरंतरता का एक नया रूप होता है।
रणेंद्र के विश्लेषण से यह स्पष्ट होता है कि वर्चस्व केवल सत्ता के बल से नहीं, बल्कि संस्कृति और मानस के स्तर पर कार्यरत रहता है। यह वर्चस्व अपने विरोधियों को आत्मसात कर, संशोधित कर, और कभी-कभी उनका स्वरूप ही बदल कर अपनी स्थिति मजबूत करता है।
जरूरी है वर्चस्व की सांस्कृतिक पड़ताल
भारतीय समाज को समझने के लिए हमें वर्चस्व की इन अदृश्य सांस्कृतिक संरचनाओं को पहचानना होगा।
हमें यह देखना होगा कि कैसे संस्कार, धार्मिक विश्वास, सांस्कृतिक प्रतीक और लोकाचार वर्चस्व के वाहक बनते हैं।
केवल सत्ता परिवर्तन से समाज में गहरी बदलाव नहीं आता — जब तक संस्कार और संस्कृति के स्तर पर वर्चस्व के स्रोतों को चुनौती नहीं दी जाती, तब तक यथास्थिति बनी रहती है। ‘आलोचना’ के आंक 76 में प्रकाशित रणेंद्र का आलेख "भारत के इतिहास में बाइनरी और वर्चस्व" इस दिशा में एक महत्वपूर्ण हस्तक्षेप है। यह हमें आम इतिहासबोध से आगे ले जाकर संस्कृति और वर्चस्व के अंतर्संबंधों को गहराई से समझने के लिए प्रेरित करता है। विशेषतः उन पाठकों के लिए जो भारतीय इतिहास, आदिवासी संस्कृति और सामाजिक न्याय में रुचि रखते हैं, यह आलेख एक अनिवार्य पाठ बन जाता है।