अब समय आ गया है जब हम 'ग्राम संसद' की कल्पना को एक व्यवहारिक, संवैधानिक और ठोस आकार दें। ग्राम संसद केवल ग्राम सभा की नई नामावली नहीं है, बल्कि यह एक नई राजनीतिक चेतना का स्वरूप है। इसका आशय उस विधायी इकाई से है जो गाँव की जनता द्वारा संचालित हो, जो नीतियों के निर्माण में संलग्न हो, जो पंचायत को उत्तरदायी बनाए, और जो यह सुनिश्चित करे कि गाँव की सरकार वास्तव में गाँव के हाथ में हो।
तीन मई को रांची में आयोजित एक राष्ट्रीय कार्यक्रम में पंचायत प्रतिनिधियों की आम शिकायत थी कि उनके कार्य क्षेत्र में नौकरशाही और सांसद-विधायकों का बड़ा हस्तक्षेप रहता है। वे नहीं चाहते हैं कि पंचायतें स्वतंत्र निर्णय ले या स्वतंत्र ढंग से काम करे। पंचायत प्रतिनिधियों की शिकायतें गैर-वाजिब नहीं है। बतौर वक्ता मुझे हमेशा महसूस हुआ है कि इसकी जड़ें संवैधानिक संशोधनों में है।
73वें संवैधानिक संशोधन को तीन दशक से अधिक समय हो चुका है। इस संशोधन ने लोकतंत्र की जड़ों को गाँव तक पहुँचाने की कोशिश की थी, जिससे पंचायती राज संस्थाओं को संविधानिक मान्यता मिली। लेकिन आज, इतने वर्षों बाद भी यह कहना कठिन नहीं कि पंचायतें आज भी एक अधूरी कल्पना की तरह हैं—स्वशासन की बजाय वे राज्य सरकारों की एक परत बनकर रह गई हैं। ऐसे में यह बहस आवश्यक हो चली है कि क्या ‘ग्राम संसद’ के बिना पंचायती राज व्यवस्था अपनी असली भूमिका निभा सकती है? तीन मई को रांची में आयोजित एक राष्ट्रीय कार्यक्रम में पंचायत प्रतिनिधियों की पीड़ा और काम नहीं कर पाने की हताशा ने मुझे इस दिशा में सोचने को बाध्य किया है।
1992 में जब भारत सरकार ने 73वां संविधान संशोधन पारित कर पंचायतों को संवैधानिक मान्यता दी, तो यह एक ऐतिहासिक क्षण था। यह केवल सत्ता के विकेन्द्रीकरण का कानूनी दस्तावेज नहीं था, बल्कि यह भारत के लोकतंत्र को गहराई देने की दिशा में एक क्रांतिकारी कदम था। इसमें पहली बार ग्राम सभा को भी संवैधानिक स्तर पर स्वीकार किया गया और कहा गया कि गाँव की जनता सर्वोच्च है। लेकिन यह धारणा व्यवहार में कितनी सशक्त हो सकी, यह आज की पंचायतों की स्थिति से ही स्पष्ट हो जाता है।
आज पंचायतें न तो नीति निर्धारण में स्वतंत्र हैं, न योजना निर्माण में। राज्य सरकारों द्वारा ऊपर से योजनाएं बनाई जाती हैं, उनका बजट भी तय किया जाता है, अमला भी वहीं से आता है और कार्यान्वयन की प्रक्रिया भी प्रायः अफसरशाही के हवाले होती है। पंचायतें महज एक वितरक इकाई बनकर रह गई हैं, एक डाकिया, जिसे चिट्ठी पहुँचानी है, परंतु चिट्ठी में क्या लिखा है, इसका उसे कोई अधिकार नहीं। संविधान में पंचायती राज को राज्य सूची में रखने का परिणाम यह हुआ कि राज्य की विधायिकाएं पंचायतों के अधिकारों को अपने अनुरूप सीमित करती रहीं। इस प्रक्रिया में पंचायतें एक स्वायत्त निकाय के बजाय एक कार्यकारी एजेंसी बनती चली गईं। यह स्थिति लोकतंत्र की मूल भावना के विपरीत है।
अब समय आ गया है जब हम 'ग्राम संसद' की कल्पना को एक व्यवहारिक, संवैधानिक और ठोस आकार दें। ग्राम संसद केवल ग्राम सभा की नई नामावली नहीं है, बल्कि यह एक नई राजनीतिक चेतना का स्वरूप है। इसका आशय उस विधायी इकाई से है जो गाँव की जनता द्वारा संचालित हो, जो नीतियों के निर्माण में संलग्न हो, जो पंचायत को उत्तरदायी बनाए, और जो यह सुनिश्चित करे कि गाँव की सरकार वास्तव में गाँव के हाथ में हो। वर्तमान में ग्राम सभाएं केवल एक औपचारिकता बनकर रह गई हैं। साल में दो-चार बार बैठक होती है, उसमें कुछ रिपोर्ट पढ़ी जाती हैं, कुछ हस्ताक्षर होते हैं और फिर सब कुछ पहले जैसा ही चलता रहता है। इसमें न निर्णय की ताकत है, न पारदर्शिता की गारंटी, न ही भागीदारी की समावेशी प्रकृति।
यदि हम ग्राम संसद को संवैधानिक रूप से मान्यता दें और उसे पंचायत के ऊपर एक विधायी निकाय के रूप में स्थापित करें, तो गाँव में लोकतंत्र का वास्तविक स्वरूप उभरेगा। ग्राम संसद के माध्यम से गाँव के हर नागरिक को यह अधिकार मिलेगा कि वह अपने गाँव के भविष्य से संबंधित निर्णयों में सीधा भागीदार बने। वह केवल योजनाओं का लाभार्थी नहीं, बल्कि योजनाओं का निर्णायक भी होगा। पंचायत, जो अब तक केवल कार्यपालिका के रूप में कार्य कर रही थी, वह ग्राम संसद के प्रति जवाबदेह बनेगी। इससे पंचायतों में जवाबदेही, पारदर्शिता और जन भागीदारी तीनों का समन्वय होगा, जो किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था की आत्मा होते हैं।
महात्मा गांधी ने भारतीय लोकतंत्र की कल्पना केंद्र से नहीं, गाँव से की थी। उनका ग्राम स्वराज्य का सपना एक ऐसी व्यवस्था का द्योतक था जिसमें प्रत्येक गाँव एक स्वतंत्र इकाई की तरह काम करे, अपनी योजनाएं स्वयं बनाए, अपने कार्यों को स्वयं संचालित करे और अपने फैसलों के लिए स्वयं जिम्मेदार हो।
ग्राम संसद गांधी के इस स्वप्न को साकार करने का माध्यम बन सकती है। जब गाँव में ही विधायी, कार्यकारी और सामाजिक अंकेक्षण की शक्तियाँ निहित होंगी, तब वह केवल एक प्रशासनिक इकाई नहीं, बल्कि एक जीवंत लोकतांत्रिक समाज बनेगा। ग्राम संसद उस चेतना को जागृत करेगी जिसमें जनता यह महसूस करेगी कि वह ही शासन की असली मालिक है। इससे न केवल जन सहभागिता बढ़ेगी, बल्कि योजनाओं की सफलता भी सुनिश्चित होगी, क्योंकि निर्णय वही लोग लेंगे जो उन निर्णयों से प्रभावित होते हैं।
ग्राम संसद को प्रभावी बनाने के लिए यह आवश्यक है कि पंचायतों को संविधान में एक स्वतंत्र 'पंचायत सूची' प्रदान की जाए। जैसे केंद्र सरकार के लिए केंद्रीय सूची है, राज्य सरकारों के लिए राज्य सूची है, वैसे ही पंचायती राज संस्थाओं के लिए पंचायत सूची होनी चाहिए जिसमें उनके कार्यक्षेत्र, अधिकार, कर निर्धारण, योजना निर्माण, जल, जंगल, ज़मीन, शिक्षा, स्वास्थ्य और सामाजिक न्याय जैसे विषय सम्मिलित हों। यह सूची पंचायतों को स्वतंत्र निर्णय लेने में सक्षम बनाएगी और उनके ऊपर राज्य सरकारों की अनुचित दखल को रोकेगी।
पंचायतों को वित्तीय रूप से आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में भी गंभीर प्रयास होने चाहिए। आज की स्थिति यह है कि ग्राम पंचायतें अपने संसाधन जुटाने में असहाय हैं। उन्हें केवल राज्य सरकार की अनुदान राशि पर निर्भर रहना पड़ता है। इससे उनमें निर्णय लेने का साहस नहीं आ पाता। यदि ग्राम संसद की निगरानी में पंचायतें कर वसूली, राजस्व नियोजन और खर्च की प्राथमिकताएं तय करें, तो उन्हें स्वावलंबन का वास्तविक अवसर मिलेगा।
ग्राम संसद का एक अन्य प्रभाव यह होगा कि यह सामाजिक समावेशन को सशक्त बनाएगी। वर्तमान पंचायत व्यवस्था में अनेक बार देखा गया है कि वंचित समुदायों की आवाज़ या तो दबा दी जाती है या सुनी ही नहीं जाती। लेकिन जब ग्राम संसद में निर्णय सामूहिक बहस और सहमति से लिए जाएंगे, तो हर तबके को अपनी बात रखने का अवसर मिलेगा। महिलाएं, दलित, आदिवासी और अन्य वंचित समूह एक नए लोकतांत्रिक मंच पर अपनी हिस्सेदारी दर्ज कर सकेंगे। इससे लोकतंत्र की आत्मा और भी सशक्त होगी।
ग्राम संसद भ्रष्टाचार के खिलाफ भी एक स्वाभाविक प्रहरी के रूप में कार्य कर सकती है। जब गाँव की जनता स्वयं योजनाओं की निगरानी करेगी, सामाजिक अंकेक्षण को अंजाम देगी और बजट की पारदर्शिता पर सवाल उठाएगी, तब किसी भी अधिकारी या प्रतिनिधि के लिए गलत कार्य करना आसान नहीं होगा। भारत में व्याप्त जमीनी स्तर के भ्रष्टाचार की जड़ यही है कि वहाँ जनता की निगरानी कमज़ोर है। ग्राम संसद उस निगरानी तंत्र को मजबूत बनाएगी।
ग्राम संसद की स्थापना न केवल एक संस्थागत सुधार होगा, बल्कि यह लोकतंत्र के गहनकरण की प्रक्रिया होगी। यह प्रक्रिया केवल सत्ता के बंटवारे की नहीं, बल्कि सत्ता के पुनः निर्माण की प्रक्रिया है। इसमें शासन और जनता के बीच की दूरी मिटेगी, सरकारें लोगों के और करीब आएंगी, और नीतियां ज़मीनी हकीकत से जुड़ेंगी। यह लोकतंत्र का वह रूप होगा जो केवल चुनावों तक सीमित नहीं रहेगा, बल्कि रोज़मर्रा के जीवन में भी सजीव होगा।
यह कहना गलत नहीं होगा कि ग्राम संसद के रूप में भारत को लोकतंत्र का दूसरा स्वाधीनता संग्राम लड़ने की ज़रूरत है। पहला स्वाधीनता संग्राम सत्ता परिवर्तन का था, यह दूसरा संघर्ष सत्ता के स्वरूप को बदलने का होगा। इसमें सत्ता के केंद्र गाँव बनेंगे, और गाँव की चौपाल लोकसभा की तरह निर्णय लेने का मंच बन जाएगी। ऐसे में केवल प्रतिनिधियों के हाथों में शासन नहीं होगा, बल्कि जनता के हाथों में भी शासन की चाबी होगी। यही वह रूपांतरण है जिसकी ओर भारत को बढ़ना चाहिए।
भारत में छह लाख से अधिक गाँव हैं। यदि हर गाँव को अपनी लोक संसद मिले, तो हम छह लाख सशक्त लोकतांत्रिक इकाइयों का निर्माण कर सकते हैं। यह विकेन्द्रीकरण का वह मॉडल होगा जो विश्व के लिए अनुकरणीय हो सकता है। यह केवल ग्रामीण विकास का ढांचा नहीं होगा, बल्कि यह एक सांस्कृतिक पुनर्जागरण भी होगा जिसमें भारत के गाँव अपनी जड़ों से जुड़ते हुए आधुनिकता की ओर बढ़ेंगे।
अंततः, ग्राम संसद न केवल पंचायतों को सशक्त बनाने का माध्यम है, बल्कि यह भारत के लोकतंत्र को पुनः परिभाषित करने का यंत्र भी है। यह जनता को शासन का सहभागी बनाने की प्रक्रिया है। यह गांधी के ग्राम स्वराज की चेतना को व्यवहार में लाने का यत्न है। और सबसे महत्वपूर्ण, यह भारत के भविष्य की बुनियाद है।