"हम बारूद की नहीं, बाँसुरी की भाषा बोलें”

 सुधीर पाल



7 मई को रवींद्रनाथ ठाकुर की जयंती है (बंगभाषी पच्चीस बैसाख को उनकी जयंती मनाते हैं, 2025 में 9 मई को)  — एक ऐसे कवि, चिंतक, दार्शनिक और मानवतावादी की, जिनका जीवन और लेखन राष्ट्रवाद, मनुष्यता और विश्व बंधुत्व के जटिल प्रश्नों से टकराता रहा। वे केवल एक नोबेल पुरस्कार विजेता साहित्यकार नहीं थे, बल्कि भारतीय आत्मा के उन विरल प्रवक्ताओं में थे, जिनकी दृष्टि सीमाओं से परे जाकर मानव चेतना को संबोधित करती थी।
आज जब भारत और पाकिस्तान के बीच राजनीतिक-सेना तनाव और युद्ध जैसे हालात हैं, तो यह विचार करना जरूरी हो जाता है — अगर रवींद्रनाथ ठाकुर आज जीवित होते तो वे क्या सोचते, क्या कहते और क्या करते? साथ ही यह भी कि द्वितीय विश्व युद्ध जैसे वैश्विक संकट पर उनके विचार क्या थे, और उन्होंने मनुष्यता को किस तरह समझा और रचा।
रवींद्रनाथ ठाकुर केवल भारत के नहीं, पूरे मानव समाज के सांस्कृतिक विवेक की आवाज़ थे। वे जब कविता करते थे तो वह राष्ट्रगान बन जाती थी; जब आलोचना करते थे तो वह नैतिक शास्त्र बन जाती थी; और जब वे संवाद करते थे तो वह शांति के सूत्र बन जाते थे। आज जब हम उनकी जयंती मना रहे हैं, तो इस विचार से नहीं बचा जा सकता कि यदि वे आज जीवित होते—जब भारत और पाकिस्तान के संबंध तल्ख़ी, अविश्वास और सीमित युद्ध की कगार पर हैं—तो वे इस उपमहाद्वीप के प्रति क्या दृष्टिकोण रखते? वे क्या सोचते, क्या कहते और क्या करते?
रवींद्रनाथ ने जब 1905 में बंग-भंग के विरुद्ध अपने गीतों से प्रतिरोध खड़ा किया, तब वे राजनीति से कहीं अधिक एक सांस्कृतिक चेतना की नींव रख रहे थे। उन्होंने एक ऐसा राष्ट्र चाहा जो पश्चिमी राष्ट्रवाद की नकल नहीं, बल्कि भारतीय आत्मा की कोमल, सहिष्णु, समावेशी और आध्यात्मिक धारा से सिंचित हो। उनके राष्ट्रवाद का आधार प्रेम, करुणा और शिक्षा था—न कि हिंसा, प्रतिशोध और सीमाओं पर बिखरी लाशें।
भारत और पाकिस्तान के बीच का युद्ध, चाहे वह गोले और बंदूकों का हो या शब्दों और विचारों का—रवींद्रनाथ की दृष्टि में आत्मा का अपमान होता। उनके लिए यह उपमहाद्वीप एक सांस्कृतिक भूगोल था, जिसका विभाजन वैसा ही कृत्रिम था जैसा आत्मा को शरीर से काटने का प्रयास। वे विभाजन के बाद उत्पन्न राष्ट्रीयताओं को स्वीकार जरूर करते, परंतु उनके पीछे मनुष्यता को पीछे छोड़ देने की प्रवृत्ति को कभी क्षमा नहीं करते।
ठाकुर के लिए युद्ध न केवल हिंसा था, बल्कि संवाद की विफलता भी था। वे मानते थे कि जब राज्य, धर्म और राष्ट्र मनुष्यता से ऊपर हो जाते हैं, तब युद्ध अपरिहार्य हो जाता है। इसलिए यदि वे आज जीवित होते, तो वे सबसे पहले युद्ध की भाषा पर सवाल उठाते। वे पूछते—यह किसके लिए युद्ध है? क्या सीमा पर मरता जवान ही राष्ट्र है? क्या स्कूल में पढ़ता पाकिस्तानी बच्चा राष्ट्र का दुश्मन है? क्या हम अपने पूर्वजों की तरह फिर से रक्त की नदी में उतरकर स्वराज का सपना देखना चाहते हैं?
ठाकुर अपने विचारों में स्पष्ट थे—वे यह मानने को तैयार नहीं थे कि राजनीतिक सत्ता की रक्षा के लिए युद्ध अनिवार्य है। उनकी पुस्तक Nationalism में वे जिस तरह से पश्चिमी राष्ट्रवाद की आलोचना करते हैं, वह आज की दक्षिण एशियाई राजनीति के लिए एक आईना है। वे कहते हैं कि राष्ट्र, जब मशीन बन जाता है, तो वह व्यक्ति को एक पुर्जे में बदल देता है, और उसके विवेक को नष्ट कर देता है। युद्ध उसी मशीन का विस्तार है, जहाँ मनुष्य केवल एक संख्या होता है, और ‘देशभक्ति’ के नाम पर उसकी मृत्यु को गौरवशाली बताया जाता है।
द्वितीय विश्व युद्ध के संदर्भ में ठाकुर का रवैया भी रेखांकित करने योग्य है। उन्होंने नाज़ी जर्मनी, फासीवादी इटली और साम्राज्यवादी जापान की आलोचना करते हुए स्पष्ट किया था कि यह युद्ध सभ्यता का संहारक है। उन्होंने युद्ध को सभ्यता की विफलता कहा, और बार-बार चेताया कि सत्ता की भूख जब मानवीय विवेक को निगल जाती है, तो युद्ध अपरिहार्य हो जाता है। 1939 में उनकी मृत्यु से पहले के वर्षों में उनके लेखन में जो गहन नैराश्य है, वह इस बात का प्रमाण है कि वे हिंसा और वर्चस्व की राजनीति से कितने व्यथित थे।
यदि आज भारत-पाक युद्ध जैसी स्थिति होती, तो वे चुप नहीं रहते। वे कूटनीति की नहीं, मनुष्यता की भाषा में हस्तक्षेप करते। वे शायद दोनों देशों के साहित्यकारों, संगीतकारों और शिक्षाविदों से कहते कि वे सीमा के पार संवाद के पुल बनाएं। वे पाकिस्तान को दुश्मन नहीं, विभाजित आत्मा का हिस्सा कहते। वे उन लाखों बच्चों, महिलाओं और जवानों के भविष्य के बारे में सोचते जो युद्ध की राख में तब्दील हो सकते हैं। वे अपनी कविता से, अपने गीतों से, अपने शांति निकेतन जैसे प्रयोगों से उपमहाद्वीप को कहने की कोशिश करते कि ‘जीत’ एक भ्रामक शब्द है—क्योंकि युद्ध में कोई नहीं जीतता, केवल मनुष्य हारता है।
उनकी कविता "Where the mind is without fear and the head is held high…", केवल एक आदर्श भारत की कल्पना नहीं थी, बल्कि एक ऐसे समाज की आकांक्षा थी जो भय, घृणा और कट्टरता से मुक्त हो। वे इस कविता को आज फिर से पढ़ने की सलाह देते, और याद दिलाते कि यदि हमारा विवेक कुंद हो गया है, तो वह युद्ध से कहीं अधिक खतरनाक है।
आज जब धर्म, राष्ट्र और अस्मिता की राजनीति फिर से रक्त की माँग कर रही है, तब रवींद्रनाथ ठाकुर की चेतना एक बार फिर प्रासंगिक हो जाती है। वे हमें यह नहीं सिखाते कि राष्ट्र की रक्षा कैसे की जाए, बल्कि यह सिखाते हैं कि राष्ट्र की आत्मा क्या होती है। वे कहते हैं कि जिस राष्ट्र की आत्मा करुणा, सहिष्णुता और संवाद पर आधारित नहीं है, वह राष्ट्र नहीं, एक बंजर राजनीतिक संरचना है। और जिस युद्ध में विचार मरते हैं, वह कभी विजयी नहीं हो सकता।
रवींद्रनाथ ठाकुर की दृष्टि एक विश्वमानव की थी—‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ का आधुनिक संस्करण। वे चाहते थे कि मनुष्य अपनी संकीर्णताओं को त्यागे, और अपने भीतर बसे अनंत को पहचाने। वे गांधी से भी आगे जाकर यह मानते थे कि हिंसा केवल राजनीतिक नहीं, सांस्कृतिक और नैतिक अपराध है। यदि आज वे होते, तो वे न केवल भारत सरकार से बल्कि पाकिस्तान के नेतृत्व से भी अपील करते कि युद्ध विराम केवल शांति समझौते से नहीं, शिक्षा, संस्कृति और युवा संवाद से आता है।
शांति निकेतन उनके जीवन का प्रयोग था—एक ऐसा स्थान जहाँ राष्ट्रों की दीवारें नहीं थीं, केवल मनुष्यता का मैदान था। वे आज शायद उस प्रयोग को भारत-पाक सीमा पर दोहराना चाहते। वे चाहते कि दोनों देशों के युवा, कवि, लेखक, किसान और शिक्षक सीमाओं को पार करके एक-दूसरे से बात करें। वे संवाद को युद्ध से बड़ा मानते थे, और संवाद के लिए वे सत्ता से भी भिड़ सकते थे—जैसे उन्होंने 1919 के जलियाँवाला बाग नरसंहार के बाद ‘नाइटहुड’ लौटा दिया था।
ठाकुर जानते थे कि युद्ध के पीछे अर्थशास्त्र, सामरिक महत्व और राजनीतिक आकांक्षाएँ होती हैं। लेकिन वे यह भी जानते थे कि युद्ध से जो पीड़ा जन्म लेती है, वह सदियों तक सभ्यता को कुरेदती रहती है। वे युद्ध को अस्वीकार करते हुए शायद कहते—“जिस मनुष्य ने शब्द गढ़े, गीत रचे, और देवताओं की कल्पना की, वह आज क्यों शस्त्र उठाए? क्या हम फिर से पशु बनना चाहते हैं?”
रवींद्रनाथ यदि आज होते तो वे कवियों को पुकारते, चित्रकारों से कहते कि वे युद्ध नहीं, प्रेम का रंग भरें। वे विश्वविद्यालयों में भाषण देते और कहते कि राष्ट्र को शक्तिशाली बनाने के लिए बम नहीं, किताब की ज़रूरत है। वे बच्चों को गले लगाते और कहते कि इनका बचपन ही सबसे बड़ा राष्ट्र है। वे युवाओं को सड़क पर बुलाते और उनसे पूछते—“क्या तुम युद्ध में विजयी होकर लौटने के बजाय प्रेम में पराजित होना चाहोगे?”
यदि आज की राजनीति में उनकी उपस्थिति होती, तो वे युद्ध को ‘सत्ता की आत्महत्या’ कहते। वे कहते कि राष्ट्र की गरिमा उसकी युद्ध क्षमता में नहीं, उसकी करुणा में है। वे युद्ध में नहीं, शांति में विश्वास रखते थे, और शांति को उन्होंने कभी कमज़ोरी नहीं समझा। उनके लिए शांति वह ताक़त थी, जो भीतर से आती है और स्थायी परिवर्तन लाती है।
रवींद्रनाथ ठाकुर आज होते, तो वे यह अवश्य कहते कि भारत और पाकिस्तान दो राष्ट्र हो सकते हैं, लेकिन उनकी आत्मा एक है। उन्होंने एक बार लिखा था—“हम पृथ्वी पर केवल भारतीय नहीं हैं, हम मनुष्य हैं। यह हमारी सबसे बड़ी पहचान है।” यह पहचान जब तक जीवित है, तब तक युद्ध के विकल्प भी जीवित हैं।
इसलिए आज उनकी जयंती पर उन्हें याद करना केवल पुष्प अर्पित करना नहीं है, बल्कि उनके विचारों को उस मैदान में लाना है, जहाँ बारूद की गंध है। उन्हें याद करना युद्ध की भाषा को अस्वीकार करना है। उन्हें याद करना संवाद की नयी शुरुआत करना है। उन्हें याद करना खुद से यह पूछना है—क्या हम मनुष्य हैं, या केवल राष्ट्र की आकृति में रंगे हुए युद्धपोषित प्राणी?
रवींद्रनाथ ठाकुर यदि होते, तो शांति की कविता लिखते, और युद्ध के शोर में भी हमें उसकी ध्वनि सुनाई देती।
 
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