युद्ध और मुनाफे का अर्थशास्त्र : बारूद में छिपा बाजार

सुधीर पाल 



सुख्यात साहित्यकार तारा शंकर बंधोपध्याय के उपन्यास हँसली बांक की उपकथा – में एक प्रसंग आता है- बनवारी ने एक और लड़ाई देखी है।सन 1914 से शुरू हुई थी। कुछ ही साल तक चली थी-खूब याद है उसे। धोती जोड़े का दाम छ रुपए हो गया था। धान चार रुपए मन। चंदनपुर के मुखर्जी बाबू बस उसी समय कोयले के कारबार से फूलकर राजा हो गए। बनवारी के मालिक मँझले घोष ने पाट-कोयले से कम नहीं कमाया। बेशुमार पैसा-रुपया। .. .. लड़ाई के बाजार में धान-चावल, गुड़-उरद बेचकर बाबू बन गये। अबकी फिर लोग तैयार बैठे हैं, इस लड़ाई में क्या हो जाएंगे कौन जाने!लेकिन कहार लोग उनका मंगल ही मनाते हैं। उनके घर लक्ष्मी की कृपा रहने में ही कहारों का भला है। (पृष्ठ 107, हँसली बांक की उपकथा -तारा शंकर बंधोपध्याय)। 
अच्छी बात है कि भारत-पाक के बीच युद्ध विराम हो गया है लेकिन युद्ध सिर्फ उतना नहीं है जितना हमें बताया जाता है या जितना हम सुनते हैं। युद्ध के साथ एक पूरी अर्थव्यवस्था जुड़ी है। “जब तोपें गरजती हैं, बाजार खिलते हैं।” यह कथन न सिर्फ कड़वा सच है, बल्कि युद्ध के उस अर्थशास्त्र की भी याद दिलाता है, जिसमें बारूद की गंध मुनाफे की सुगंध में बदल दी जाती है। आज भारत-पाक सीमा पर छिटपुट युद्ध जैसी स्थितियाँ बनी हुई हैं। गोलीबारी हो रही है, मिसाइलें दागी जा रही हैं, और दोनों देशों की मीडिया अपने-अपने राष्ट्रवाद की जयकार कर रही है। लेकिन इस पूरी कवायद के पीछे एक और दुनिया है—एक ऐसी दुनिया जो युद्ध से मुनाफा कमाती है। 
इतिहास के पन्नों में दर्ज है मुनाफे का युद्ध। प्रथम विश्व युद्ध (1914–1918) जब छिड़ा, तो यह यूरोप के देशों के बीच सत्ता संतुलन की लड़ाई थी। लेकिन इसके पीछे गहराई से जुड़ा था युद्ध उद्योग का बढ़ता बाज़ार। अमेरिका, जो आरंभिक वर्षों में युद्ध में शामिल नहीं था, उसने युद्धरत देशों को हथियार, भोजन और दवाएं बेचीं। युद्ध के महज़ चार वर्षों में अमेरिका की अर्थव्यवस्था ने जबरदस्त उछाल देखा और अमेरिका एक आर्थिक महाशक्ति बनकर उभरा। द्वितीय विश्व युद्ध (1939–1945) में भी हथियार उद्योग सबसे बड़ा नियोक्ता बन गया था। अमेरिकी फर्म Lockheed, General Motors, Boeing और Ford जैसी कंपनियों ने युद्ध के दौरान उत्पादन चौगुना किया और मुनाफा अभूतपूर्व स्तर तक पहुँचा। युद्ध के बाद बनी मिलिट्री-इंडस्ट्रियल कॉम्प्लेक्स की अवधारणा इसी दौर की देन है, जिसके तहत सेना, हथियार निर्माता और सरकार के बीच गठजोड़ बना।1914 में प्रथम विश्व युद्ध शुरू हुआ जिससे बोरों की मांग काफी बढ़ गई।
विश्व युद्ध के दौरान, अंग्रेज और टाटा-बिड़ला दोनों ही व्यवसायों में लगे हुए थे, लेकिन उनके बीच कोई सीधा संघर्ष नहीं था। ब्रिटिश सरकार ने कुछ समय के लिए टाटा-बिड़ला की व्यवसायों में हस्तक्षेप किया, लेकिन दोनों व्यवसाय ब्रिटिश शासन के तहत भी भारतीय अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते रहे। युद्ध के दौरान, बिड़ला की संपत्ति ₹ 2 मिलियन (2023 में ₹ 540 मिलियन या US$6.3 मिलियन के बराबर) से बढ़कर ₹ 8 मिलियन (2023 में ₹ 1.4 बिलियन या US$17 मिलियन के बराबर) होने का अनुमान है।
आज की दुनिया में युद्ध सिर्फ एक सैन्य घटना नहीं है, वह एक व्यवसायिक अवसर है। स्टॉक मार्केट के आंकड़ों को देखें — युद्ध की आशंका या शुरुआत होते ही रक्षा कंपनियों के शेयर चढ़ने लगते हैं। उदाहरण के लिए:
•    2022 में जब रूस-यूक्रेन युद्ध शुरू हुआ, तो अमेरिकी हथियार निर्माता Raytheon, Lockheed Martin, और Northrop Grumman के शेयरों में 20-40% तक उछाल आया।
•    भारत में 2024-25 के रक्षा बजट में 6.2 लाख करोड़ रुपये आवंटित किए गए, जो पिछले वर्षों की तुलना में 13% की वृद्धि है। निजी रक्षा कंपनियाँ जैसे Bharat Forge, L&T Defence, Solar Industries—इनके ऑर्डर बुक रिकॉर्ड स्तर पर पहुँचे हैं।
युद्ध जितना लंबा चलता है, उतना ज्यादा धन हथियार उद्योग में डाला जाता है, और उतनी ही तेज़ी से इस उद्योग से जुड़े लोग मुनाफा कमाते हैं।

युद्ध की स्थिति को बढ़ाने और बनाए रखने में मीडिया की भूमिका भी कम नहीं है। भारत-पाक के ताजा हालात को देश के दर्जनों बड़े मीडिया चैनल एक इवेंट की तरह प्रस्तुत कर रहे हैं। आम लोगों में उन्माद की हद तक अफवाहें परोस रहे हैं। देश और राष्ट्र हित की जगह टीआरपी , विज्ञापन और सनसनी को तरजीह दी जा रही है। युद्ध के उन्माद में आम जनता अपने मूल मुद्दे—महंगाई, बेरोज़गारी, शिक्षा, स्वास्थ्य—को भूल जाती है।
जब एक देश युद्ध की स्थिति में जाता है, तो सबसे पहला असर होता है — वित्तीय संसाधनों का मोड़। भारत और पाकिस्तान जैसे विकासशील देशों के लिए युद्ध एक आर्थिक आपदा बन जाता है:
•    भारत-पाक कारगिल युद्ध (1999) में भारत का अनुमानित खर्च था 10,000 करोड़ रुपये। लेकिन इस युद्ध के बाद सैनिकों की तैनाती, हथियारों की मरम्मत और पुनर्संरचना पर खर्च कई गुना बढ़ा।
•    भारत में सरकारी आंकड़ों के अनुसार, 2023 तक रक्षा क्षेत्र में 18% बजटीय हिस्सेदारी है, जबकि शिक्षा और स्वास्थ्य को कुल मिलाकर 12% से भी कम मिलता है।
इनके अलावा युद्ध से जुड़ी मुद्रास्फीति, बाजार अस्थिरता, कृषि संकट और बेरोज़गारी भी बढ़ती है। युद्ध का मुनाफा कुछ पूँजीपतियों की जेब में जाता है, जबकि आम जनता को उसका बोझ ढोना पड़ता है—राशन महँगा होता है, डीजल-पेट्रोल की कीमतें बढ़ती हैं और विकास योजनाएँ ठप हो जाती हैं।
भारत-पाक संदर्भ में युद्ध का अर्थशास्त्र
भारत और पाकिस्तान के बीच चल रही ताज़ा झड़पें भले ही सीमित स्तर पर हों, लेकिन दोनों देशों के रक्षा बजट, मीडिया की आक्रामकता और सार्वजनिक विमर्श से साफ़ है कि युद्ध एक बार फिर बाज़ार का चेहरा बन गया है। पाकिस्तान, जो पहले ही IMF ऋण संकट और विदेशी मुद्रा भंडार की किल्लत से जूझ रहा है, युद्ध में झोंकने के लिए फिर सैन्य औद्योगिक मदद लेने को बाध्य है। भारत में भी ‘आत्मनिर्भर भारत’ के नाम पर घरेलू रक्षा कंपनियों को भारी निवेश मिल रहा है — जो चुनावी चंदे और राजनीतिक गठजोड़ से भी जुड़ा हुआ है।
एक और पक्ष यह भी है — विकास बनाम विनाश। यदि युद्ध के बजट का आधा भी शिक्षा, कृषि, ग्रामीण रोज़गार, आदिवासी और सीमावर्ती क्षेत्रों के विकास पर लगाया जाए, तो इन क्षेत्रों में असली सुरक्षा और स्थायित्व आ सकता है। लेकिन युद्ध एक उद्योग है, और इसके लाभार्थी सत्ता के करीबी होते हैं। 'युद्धरत राष्ट्रवाद' एक ऐसा उपकरण है जो लोकतांत्रिक विमर्श को दबाता है, सवाल पूछने वालों को चुप कराता है और जनता को भावनाओं की अफीम पर टिका देता है।
युद्ध अब सिर्फ सेनाओं की बात नहीं है, यह अब "कॉर्पोरेट युद्ध" है। इसमें बंदूक चलाने वाला सैनिक सिर्फ एक चेहरा होता है, असली खिलाड़ी वे होते हैं जो उसकी बंदूक और बारूद बनाते हैं — और उनका बाजार युद्ध में नहीं, युद्ध की अनिश्चितता में फलता है। इसलिए जब आप युद्ध की ख़बर सुनें, तो सिर्फ बॉर्डर मत देखिए — देखिए स्टॉक मार्केट, बजट आवंटन और मीडिया की भाषा। शायद आपको दिखाई दे — वो अदृश्य नफे का पुलिंदा, जो एक सैनिक की लाश के नीचे रखा गया है।
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