भारत के लोकतांत्रिक इतिहास में समय-समय पर संविधान के माध्यम से वंचितों को आवाज़ देने के प्रयास किए गए हैं। देश की स्वतंत्रता के बाद जिस संवैधानिक ढांचे की स्थापना की गई, उसका मूल उद्देश्य यही था कि हर वर्ग—चाहे वह बहुसंख्यक हो या अल्पसंख्यक, समृद्ध हो या वंचित—उस लोकतंत्र में अपनी भागीदारी सुनिश्चित कर सके जिसे "जन-जन का शासन" कहा जाता है।
भारत के संविधान ने विविधता को केवल एक सांस्कृतिक वास्तविकता नहीं, बल्कि एक राजनीतिक जिम्मेदारी के रूप में स्वीकार किया। इसी जिम्मेदारी के तहत एंग्लो-इंडियन समुदाय को लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में नामांकित सीटों के माध्यम से प्रतिनिधित्व दिया गया था। अब जब 104वें संविधान संशोधन के जरिए इस विशेष व्यवस्था का समापन हो गया है, तो यह एक संवैधानिक, सामाजिक और नैतिक अवसर बन गया है—एक नए समुदाय को लोकतांत्रिक प्रणाली में सम्मिलित करने का। यह अवसर आज के भारत के सबसे वंचित, सबसे हाशियाग्रस्त समुदाय—पीवीटीजी के लिए आरक्षित किया जाना चाहिए। पीवीटीजी समुदाय को संसद और राज्य विधानसभाओं में उचित प्रतिनिधित्व देने का। इस निर्णय को केवल एक संवैधानिक प्रयोग नहीं माना जाना चाहिए, बल्कि यह भारत के लोकतंत्र के विस्तार का एक ऐतिहासिक मौका हो सकता है।
जब संविधान ने अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए आरक्षित सीटों की व्यवस्था की, तब यह उम्मीद थी कि यह व्यवस्था उनके सामूहिक हितों की रक्षा करेगी। परंतु पीवीटीजी समुदायों की जनसंख्या, भौगोलिक बिखराव और कमजोर राजनीतिक नेटवर्क के कारण वे इन आरक्षित सीटों पर भी शायद ही पहुँच पाते हैं। झारखंड विधान सभा में अनुसूचित जनजातियों के लिए 28 सीटें आरक्षित हैं लेकिन 25 सालों में एक भी पीवीटीजी समुदाय का सदस्य विधान सभा में प्रतिनिधित्व नहीं कर सका। लोक सभा की बात ही बेमानी होगी। क्या झारखंड की अबुआ सरकार राज्य की विधान सभा से पीवीटीजी समुदाय के एक प्रतिनिधि को नामित किए जाने के प्रावधान का प्रस्ताव पारित कर देश की सभी सरकारों के लिए और केंद्र के लिए एक नज़ीर पेश करेगी?
ब्रिटिश शासनकाल में आदिवासियों को प्रशासनिक व्यवस्था से अलग रखा गया था। स्वतंत्रता के बाद, संविधान में अनुच्छेद 244 और पाँचवीं एवं छठी अनुसूची के माध्यम से इन जनजातियों को विशेष संरक्षण दिया गया। आदिवासियों के लिए अनुसूचित जनजाति (ST) के रूप में राजनीतिक आरक्षण का प्रावधान किया गया, लेकिन पीवीटीजी के लिए अलग से कोई विशेष राजनीतिक आरक्षण नहीं किया गया। इसी प्रावधान की वजह से लोकसभा की 543 में से 41 सीटें अनुसूचित जनजाति के लिए रिज़र्व है। वहीं, विभिन्न राज्यों की विधानसभाओं की कुल 3,961 सीटों में से 527 सीटें अनुसूचित जनजाति के लिए सुरक्षित है। इन सीटों पर वोट तो सभी डालते हैं, लेकिन कैंडिडेट सिर्फ एसटी समुदाय का होता है।
पीवीटीजी के मामले में राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दल भी उदासीन हैं। अनुसूचित जनजातियों क एलिए आरक्षित सीटों पर भी वे बड़े जनजातीय समुदाय के प्रतिनिधियों को ही चानव में लड़ने का मौका देते हैं। झारखंड में बीजेपी और बाबूलाल मरांडी की तत्कालीन पार्टी जेवीएम ने पीवीटीजी समुदाय से क्रमश: सिमोन माल्टो और बिमल असुर को विधान सभा चुनाव में टिकट दिया था लेकिन सफलता हाथ नहीं लगी। जामा के मुखिया राजू पूजहार कहते हैं मौका दिया जायेगा तो पीवीटीजी समुदाय भी बेहतर प्रतिनिधि साबित होंगे।
हालांकि,पीवीटीजी समुदाय की राजनीति में भागीदारी सीमित है, लेकिन हाल के वर्षों में कुछ सकारात्मक प्रयास किए गए हैं। 1992 के 73वें और 74वें संविधान संशोधन के तहत अनुसूचित जनजातियों को पंचायतों और नगरपालिकाओं में आरक्षण दिया गया, जिससे जमीनी स्तर पर PVTG समुदाय के लोगों की भागीदारी बढ़ी है। पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों पर विस्तार) अधिनियम, पेसा-1996 में पंचायत समिति और जिला परिषद के स्तर पर पीवीटीजी समुदायों के प्रतिनिधि को मनोनीत करने का प्रावधान है। हाल में सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक फैसले में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों को दिए जाने वाले आरक्षण में इन्हीं वर्गों के कमजोर समुदायों को आरक्षण का लाभ देने का सुझाव केंद्र सरकार को दिया था। लेकिन राजनीतिक दलों के घोर विरोध के चलते एक अच्छे विचार की भ्रूण हत्या हो गयी।
भारत सरकार ने 2023-24 के केंद्रीय बजट में देश भर में 75 विशेष रूप से कमजोर जनजातीय समूहों की समग्र सामाजिक-आर्थिक स्थितियों में सुधार पर ध्यान केंद्रित करने के लिए प्रधान मंत्री-पीवीटीजी विकास मिशन का प्रावधान किया गया था। प्रधानमंत्री पीवीटीजी विकास मिशन 15,000 करोड़ रूपये का प्रावधान किया गया। इस मिशन के अंतर्गत पीवीटीजी परिवारों को सुरक्षित आवास, स्वच्छ पेयजल शिक्षा, स्वास्थ्य एवं पोषण,सड़क तथा दूरसंचार संपर्कता और संधारणीय आजीविका के अवसरों जैसी बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध कराई जा रही है।पीवीटीजी के सामाजिक और आर्थिक विकास के लिए केंद्र के प्रयोगों की सराहना की जानी चाहिए।लेकिन संसदीय प्रतिनिधित्व के बिना पीवीटीजी समुदायों के हक और हकूक की रक्षा मुश्किल है। केंद्र सरकार पीवीटीजी समुदायों में से किसी को नामित कर सांसद बनाने की प्रक्रिया की शुरुआत राष्ट्रपति से कर सकती है।
पीवीटीजी का वर्ग भारतीय आदिवासी समुदायों का सबसे अधिक उपेक्षित और हाशियाग्रस्त वर्ग है। यह समुदाय न केवल विकास की मुख्यधारा से बाहर है, बल्कि इनकी सामाजिक और राजनीतिक आवाज़ भी मुख्यधारा में खो जाती है। भारत के कई आदिवासी क्षेत्रों में आज भी लोकतंत्र की उपस्थिति केवल सरकारी योजनाओं के पोस्टरों और भाषणों तक सीमित है, जबकि असल में इन समुदायों को समुचित राजनीतिक अधिकार, शिक्षा, स्वास्थ्य, और सामाजिक सुरक्षा की सुविधाएँ प्राप्त नहीं हो पाती हैं।
पीवीटीजी, अर्थात विशेष रूप से कमजोर जनजातीय समूह, भारत के उन आदिवासी समुदायों का वर्गीकरण है जो विकास की सामान्य धारा से बहुत पीछे छूट चुके हैं।1973 में एक विशेषज्ञ समिति ढेबर आयोग ने महसूस किया था कि अनुसूचित जनजातियों के भीतर भी कुछ समूह बेहद पिछड़े हैं। इन्हें 1975 से आदिम जनजाति कहा गया, जिसे 2006 में बदलकर पीवीटीजी कहा गया।
भारत में 75 पीवीटीजी समुदाय हैं, जो 18 राज्यों और एक केंद्रशासित प्रदेश (अंडमान निकोबार) में निवास करते हैं। झारखंड में कुल आठ-असुर, कोरबा, माल पहाड़िया, बिरहोर, सबर, बिरजिया, सौर पहाड़िया पीवीटीजी समुदाय से हैं।राज्य में चिन्हित कुल 67,501 पीवीटीजी परिवार हैं जो 3, 705 गांवों में बसे हैं। इनकी आबादी मात्र 2,92,359 है। इन समुदायों का जीवन जंगलों, पहाड़ों और घाटियों के बीच बसा हुआ है, जहाँ विकास और शासन की पहुँच सीमित है।
अगर संसद और राज्य विधानसभाओं में पीवीटीजी समुदायों के लिए आरक्षित सीटें दी जाती हैं, तो यह न केवल इन समुदायों के लिए एक नई दिशा होगी, बल्कि यह लोकतंत्र को और अधिक समावेशी और सशक्त बनाएगा। यह कदम भारतीय राजनीति में एक नई शुरुआत का प्रतीक होगा, जो भारतीय लोकतंत्र की वास्तविकता को दर्शाएगा—एक ऐसा लोकतंत्र जो न केवल शहरी, बल्कि ग्रामीण और आदिवासी क्षेत्रों में भी सशक्त रूप से काम करे।
संसद और विधानसभाओं में पीवीटीजी को सही स्थान देने से आदिवासी समुदायों के मुद्दे पूरी तरह से समझे जा सकेंगे और उन्हें सुलझाने के लिए ठोस कदम उठाए जा सकेंगे। इस प्रतिनिधित्व से उन्हें अपनी समस्याओं को उच्चतम मंच पर रखने का अवसर मिलेगा। वे अपने जल, जंगल, ज़मीन के अधिकारों, शिक्षा, स्वास्थ्य, और सामाजिक कल्याण के मामलों को संसद में उठाने में सक्षम होंगे। इसके साथ ही, यह आदिवासी और पीवीटीजी समुदायों के बीच एक नया विश्वास भी पैदा करेगा, जो कि लोकतंत्र में उनकी भूमिका को और सशक्त करेगा।