झारखंड के किसी भी आदिवासी गाँव में चले जाइए — चाहे वह खूंटी के डोंबारी बुरू की तलहटी हो, या पश्चिमी सिंहभूम के सुदूर जंगलों में बसा सारंडा का कोई गाँव। आप पायेंगे कि जीवन का मिज़ाज कुछ और ही है। वहाँ समय घड़ी से नहीं, मौसम और चाँद के हिसाब से चलता है। निर्णय प्रशासनिक आदेशों से नहीं, गाँव के अखड़ा पर बैठी ग्रामसभा से होती है। वहाँ विकास का मतलब केवल सड़क, बिजली और भवन नहीं, बल्कि हँसता-खेलता समुदाय, साझा खेती, जंगल की रक्षा और सांस्कृतिक गतिविधियों की पुनर्प्रतिष्ठा है।
लेकिन जब राज्य या केंद्र सरकार गाँव के विकास का मूल्यांकन करती है, तो यह सब अदृश्य रह जाता है। वहाँ विकास का मापदंड होता है — जीडीपी यानी सकल घरेलू उत्पाद। यह वही मानक है जिसमें गाँव की समृद्धि को तौलने के लिए देखा जाता है कि कितनी सड़कें बनीं, कितने भवन खड़े हुए और कितने करोड़ रुपये की योजनाएँ आयी। यह वैसा ही है जैसे आप किसी इंसान की सफलता का मूल्यांकन केवल उसके बैंक बैलेंस से करें — उसके चरित्र, रिश्तों, संतुलन और खुशी को नजरअंदाज़ कर दें।
इसी परंपरागत समझ को चुनौती देता है ग्राम समृद्धि सूचकांक — यानी जीएसपी। यह अवधारणा कहती है कि गाँव केवल भौतिक ढाँचों से नहीं, बल्कि अधिकारों, संस्कृति, श्रम, न्याय और सहभागिता से बनते हैं।
झारखंड में, विशेषकर अनुसूचित क्षेत्रों में, सैकड़ों गाँवों ने यह सिद्ध किया है कि जीवन की गुणवत्ता को केवल सरकारी योजनाओं से नहीं मापा जा सकता। खूंटी ज़िले के कुछ गाँवों ने ग्रामसभा के माध्यम से शराबबंदी लागू की, खेती की पद्धतियाँ बदलीं और शिक्षा पर नए सिरे से काम किया। इन गाँवों में कोई बड़ी ‘योजना’ नहीं आई, लेकिन जीवन की संरचना बदली — सामूहिक चेतना से। सारंडा के कुछ गाँवों ने सामूहिक वन प्रबंधन के ज़रिए आजीविका के नए रास्ते खोले। उन्होंने यह दिखाया कि जंगल की रक्षा केवल वनों की विभागीय निगरानी से नहीं, बल्कि सामूहिक निगरानी और अधिकारों की बहाली से संभव है।
अब सवाल है — क्या ऐसे गाँवों को हम 'कम विकसित' मानेंगे, सिर्फ इसलिए क्योंकि उनकी जीडीपी 'कम' है? जीडीपी की गणना मॉडल ही ऐसा है जो उत्पादन और खपत को प्राथमिकता देता है, लेकिन आत्मनिर्भरता, सामुदायिक साझेदारी, पर्यावरण संतुलन और सांस्कृतिक समृद्धि को कोई स्थान नहीं देता। इसका परिणाम यह हुआ है कि झारखंड के गाँवों में जहाँ प्राकृतिक संसाधनों की प्रचुरता है, वहाँ भी ‘गरीबी’ मापी जाती है, क्योंकि उस समृद्धि को जीडीपी नहीं पहचानता।
जीएसपी यानी ग्राम समृद्धि सूचकांक इस सोच को बदलने की दिशा में एक वैकल्पिक ढाँचा प्रस्तुत करता है। यह मानता है कि गाँव की समृद्धि तब मानी जाएगी जब वहाँ के लोगों को उनके भूमि और वन अधिकार मिले हों, ग्रामसभा निर्णय लेने में सक्षम हो, महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित हो, सांस्कृतिक पहचान का पुनरुत्थान हो, और जल-जंगल-जमीन के संरक्षण में समुदाय की केंद्रीय भूमिका हो।
इसमें पहला मानक है — भूमि और वन अधिकारों की बहाली। झारखंड के हजारों आदिवासी परिवार ऐसे हैं जो पीढ़ियों से जंगल की भूमि पर बसे हैं, लेकिन कानूनी रूप से उनके पास स्वामित्व अधिकार नहीं है। वन अधिकार अधिनियम (वनाधिकार 2006) इस अधिकार को मान्यता देता है, लेकिन इसकी असली ताकत तब सामने आती है जब गाँव की ग्रामसभा स्वयं यह तय करे कि कौन पात्र है, और कैसे जंगल का उपयोग किया जाएगा। ग्राम समृद्धि तभी मानी जाएगी जब कोई परिवार बेघर न हो, और उसका जीवन जंगल से कट न गया हो।
दूसरा संकेतक है — सामाजिक न्याय। झारखंड के गाँवों में भले ही जाति आधारित भेदभाव अपेक्षाकृत कम हो, लेकिन फिर भी महिलाओं की निर्णायक भूमिका, विकलांगों और बुज़ुर्गों की सामाजिक सुरक्षा, या विधवाओं के अधिकार जैसे मुद्दों को अक्सर नज़रअंदाज़ किया जाता है। ग्रामसभा अगर इन मुद्दों पर निर्णय ले, और पंचायत उनका क्रियान्वयन करे, तभी सामाजिक न्याय का सपना साकार होगा। जीएसपी में इसका विशेष स्थान होगा।
तीसरा मापदंड है — सांस्कृतिक पुनरुत्थान। आदिवासी समाज की आत्मा उसकी भाषा, रीति-रिवाज, पर्व-त्योहार और लोककला में बसती है। आज जब सरकारी योजनाएँ और स्कूल व्यवस्था सब कुछ हिन्दी या अंग्रेज़ी में करने पर ज़ोर देती हैं, तब गाँव की सांस्कृतिक पहचान संकट में पड़ जाती है। अगर पंचायत की बैठकों, योजनाओं और दस्तावेज़ों में स्थानीय भाषाओं — हो, मुंडारी, संथाली, कुड़ुख — का प्रयोग हो, तो यह केवल भाषा की रक्षा नहीं, संस्कृति की पुनर्परिभाषा भी होगी। जब पंचायत भवन में मांझी की बैठक स्थल के बगल में डिजिटल दस्तावेज़ भी रखे जाएँ तो परंपरा और तकनीक दोनों का संगम होगा।
चौथा पहलू है — जल-जंगल-जमीन की रक्षा। झारखंड के आदिवासी गाँवों में जल स्रोतों, तालाबों, वनों और खेतों का प्रबंधन सामूहिक जिम्मेदारी रही है। लेकिन जब से योजनाएँ ‘ऊपर से नीचे’ की ओर आई हैं, यह प्रबंधन टूट गया है। GSP इस संतुलन को फिर से स्थापित करने का आग्रह करता है — कि गाँव के लोग खुद तय करें कि किस तालाब का गहरीकरण हो, कौन सा जंगल संरक्षित हो, और किस जमीन पर खेती होनी है।
पाँचवाँ और अंतिम संकेतक है — सामूहिक श्रम और महिला भागीदारी। गाँव की ताकत उसकी साझा मेहनत में है। पर आजकल योजनाओं में ठेकेदार, मशीन और निजीकरण का बोलबाला है। यदि गाँव की योजना सामूहिक मेहनत पर आधारित हो — नाला खुदाई हो या खेत की मेड बनाना — तो वह सिर्फ विकास नहीं होगा, वह सामाजिक पुनर्रचना भी होगी। और यदि महिलाओं को ग्रामसभा में बोलने का, नेतृत्व करने का और मांझी-पाहन जैसी भूमिकाओं में आने का अवसर मिले, तो वह गाँव सचमुच समृद्ध होगा।
अब समय है कि राज्य सरकार जीएसपी को संस्थागत रूप दे। झारखंड जैसे राज्य में, जहाँ पेसा अधिनियम लागू है और ग्रामसभा को संवैधानिक मान्यता मिली हुई है, वहाँ पंचायतों को केवल बजट खर्च करने वाली इकाई न बनाकर, ग्राम समृद्धि के मानक तय करने वाली इकाई बनाया जाए।
यह संभव है — बशर्ते पंचायतों को अपने मूल्यांकन का अधिकार खुद मिले। आज पंचायतों की रैंकिंग राज्य या केंद्र सरकार करती है, जो ज़्यादातर कागज़ी काम, योजनाओं की संख्या और खर्च की गति पर आधारित होती है। लेकिन अगर मूल्यांकन ग्रामसभा करे — कि किस योजना से क्या बदला, किसने निर्णय में भाग लिया, कौन छूटा, कौन जुड़ा — तो यह एक जीवंत लोकतांत्रिक प्रक्रिया होगी।
यह बदलाव नीति में भी आए, तो पंचायती राज मंत्रालय को जीडीपी आधारित पंचायती रैंकिंग के स्थान पर जीएसपी आधारित मूल्यांकन व्यवस्था लागू करनी होगी। इसके लिए झारखंड प्रयोगशाला बन सकता है — जहाँ पंचायतों को यह विकल्प दिया जाए कि वे अपनी समृद्धि को खुद मापें, खुद बताएं कि उनके लिए विकास का अर्थ क्या है।
इसका एक और आयाम यह हो सकता है कि ग्रामसभा में हर साल एक “ग्राम समृद्धि सम्मेलन” हो — जहाँ गाँव के लोग खुद तय करें कि उन्होंने कहाँ प्रगति की, कहाँ चूके, और आने वाले वर्ष का क्या लक्ष्य हो। यह केवल सरकारी फॉर्म भरने की प्रक्रिया नहीं होगी, बल्कि यह लोकतंत्र की आत्मा को जीवंत करने का पर्व होगा।
अंत में, यह बात बार-बार दोहराने की ज़रूरत है कि गाँवों का विकास महज भौतिक ढाँचे खड़ा करने से नहीं होता। गाँव जीते हैं लोक से — अधिकार, संस्कृति, परंपरा और सहभागिता से। जीएसपी का विचार उसी लोक को फिर से सम्मान देने की कोशिश है। झारखंड का आदिवासी समाज हमेशा से ‘सुनने वाला’, ‘समझने वाला’, और ‘संवाद से शासन’ करने वाला समाज रहा है। आज जब हम लोकतंत्र की नई राहें ढूंढ़ रहे हैं — तो हमें गाँव से, माँझी से, पाहन से, परगनैत से सीखने की जरूरत है। झारखंड के आदिवासी गाँवों में पारंपरिक स्वशासन की गहरी जड़ें हैं। यहाँ मांझी, पाहन, परगनैत जैसे पारंपरिक पदाधिकारी समुदाय के निर्णयों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। ग्रामसभा यहाँ केवल एक संस्था नहीं, बल्कि सामूहिक चेतना का प्रतीक है।
जीएसपी इन पारंपरिक व्यवस्थाओं को सशक्त बनाता है और उन्हें आधुनिक प्रशासनिक ढांचे से जोड़ता है। यह गाँवों को आत्मनिर्भर, समावेशी और सतत विकास की ओर अग्रसर करता है। जीएसपी उसी जीवन दृष्टि को आधुनिक प्रशासनिक ढांचे से जोड़ने का प्रयास है। यह केवल एक मूल्यांकन प्रणाली नहीं, बल्कि एक सामाजिक आंदोलन है, जो गाँवों को आत्मनिर्भर, समावेशी और सतत विकास की ओर अग्रसर करता है। और जब हम झारखंड के जंगलों में बसे किसी छोटे से गाँव में जाकर यह देखें कि वहाँ की ग्रामसभा ने जंगल बचाया, शराब पर रोक लगाई, स्कूल का संचालन अपने ढंग से किया और उत्सवों को फिर से जीवित किया — तो हमें समझ आ जाएगा कि असली समृद्धि जीडीपी नहीं, जीएसपी में छिपी है।