हर साल 5 जून को विश्व पर्यावरण दिवस मनाया जाता है। स्कूलों, संस्थानों, सरकारी कार्यालयों और स्वयंसेवी संगठनों में एक ही वाक्य गूंजता है— "धरती को बचाना है!" लेकिन क्या सचमुच धरती को बचाने की जरूरत है? या फिर यह मानव जाति का अहंकार है कि वह धरती को ‘बचा’ सकता है? शायद हमें यह समझने की ज़रूरत है कि धरती नहीं, मानवता संकट में है। धरती ने अरबों वर्षों तक तमाम महाविनाशों, उल्कापात, ज्वालामुखीय विस्फोटों और जलवायु परिवर्तनों को झेला है, और आगे भी झेलेगी। लेकिन यह मानव जाति है, जो एक नाजुक कगार पर खड़ी है।
धरती कोई कांच का खिलौना नहीं जिसे मानव संभालेगा तभी वह बचेगी। धरती लगभग 4.5 अरब वर्ष पुरानी है। इस पर जीवन लगभग 3.5 अरब वर्ष पहले प्रकट हुआ। इतने लंबे काल में धरती ने कम-से-कम पाँच बार ‘Mass Extinction Events’ देखे हैं, जिनमें 70% से लेकर 96% तक प्रजातियाँ समाप्त हो गईं। फिर भी जीवन किसी न किसी रूप में जीवित रहा, और धरती ने खुद को पुनर्नवा किया। लगभग 25 करोड़ वर्ष पहले पृथ्वी की सबसे बड़ी जैविक त्रासदी जिसमें 96% समुद्री और 70% स्थलीय प्रजातियाँ खत्म हो गईं। 6.6 करोड़ वर्ष पहले डायनासोरों का अंत हुआ और स्तनधारी जीवों के लिए नई संभावनाएँ बनीं।
इससे स्पष्ट होता है कि धरती एक पुनरुत्थानशील इकाई है, जबकि मानव समाज और उसकी सभ्यता महज़ कुछ हज़ार वर्षों की नाज़ुक संरचना है। धरती की उम्र अरबों वर्षों की है, जबकि मानव सभ्यता की आयु केवल 10,000 वर्ष है। और मानव का औद्योगिक युग तो मात्र 250 वर्षों का है — लेकिन सबसे अधिक नुकसान इसी काल में हुआ।
पर्यावरणीय संकट: मानवता के लिए खतरा
विश्व भर में वैज्ञानिक चेतावनी दे रहे हैं कि हम छठे महाविनाश (Sixth Mass Extinction) की ओर बढ़ रहे हैं, और यह संकट मनुष्य द्वारा उत्पन्न है। इस समय जैव विविधता की हानि, जलवायु परिवर्तन, समुद्री प्रदूषण, वनों की कटाई और प्राकृतिक संसाधनों के अति दोहन के कारण धरती का पर्यावरण असंतुलित हो चुका है।
कुछ तथ्यों का अवलोकन करें तो यह और भी स्पष्ट हो जाता है। प्रति मिनट एक फुटबॉल मैदान जितना जंगल नष्ट हो रहा है। डब्लूडब्लूएफ (2022) की रिपोर्ट में बताया गया है कि 1970 से 2020 के बीच वन्यजीव प्रजातियों की औसत आबादी में 69% गिरावट आई है। आइपीसीसी रिपोर्ट (2023) बताती है कि यदि उत्सर्जन कम नहीं हुआ, तो 2100 तक वैश्विक तापमान 4.4 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ सकता है, जिससे मानव जीवन के लिए संकट गहराएगा। भारत के संदभ में कहा गया है कि 14 प्रमुख शहर 2050 तक रहने लायक नहीं रहेंगे — इनमें दिल्ली, चेन्नई और कोलकाता भी शामिल हैं। हमने तकनीक के माध्यम से जितना विकास किया, उतनी ही तेज़ी से प्रकृति से दूरी और संवेदनहीनता बढ़ी।
धरती का भविष्य: मानव के बिना भी संभव
जेम्स लोवेलोक ने अपनी गैया सिद्धांत (Gaia Hypothesis) में कहा था कि धरती स्वयं एक जीवंत इकाई है, जो अपने अंदर के असंतुलन को स्वयं संतुलित करती है। यदि मानव जाति पृथ्वी से मिट भी जाती है, तो कुछ सदियों के भीतर धरती खुद को पुनर्जीवित कर लेगी — नए पेड़-पौधे, नए जीव, एक नई पारिस्थितिकी व्यवस्था और शायद एक नई बुद्धिमान प्रजाति का विकास हो सकता है। मनुष्य के बाद की दुनिया में इमारतें 100-200 वर्षों में नष्ट हो जाएंगी।नदियाँ अपने पुराने प्रवाह में लौट जाएंगी।वनों का विस्तार होगा। वन्यजीवों की संख्या में पुनर्वृद्धि होगी। मानव केवल एक अस्थायी किरायेदार है।धरती का मालिक बनने का उसका दावा पर्यावरणीय विध्वंस की सबसे बड़ी जड़ है।
मूल संकट: विकास की अवधारणा
मानव ने विकास को केवल उपभोग, निर्माण और अर्थव्यवस्था से जोड़ा। उसने यह नहीं समझा कि उसका अस्तित्व जल, वायु, जंगल, जीव-जंतु और जैव विविधता से जुड़ा हुआ है। उसने पर्यावरण को केवल ‘उपयोग की वस्तु’ माना।
झारखंड, जो कभी जंगल, जल और जनजातियों की त्रयी से जाना जाता था, आज खनन, विस्थापन, और कार्बन उत्सर्जन का केंद्र बन गया है। यहाँ की आदिवासी परंपराएँ, जिनमें धरती को माता और पेड़ को देवता माना गया,
आज मुख्यधारा के विकास में बाधा मानी जाती हैं। वनाधिकार कानून, पेसा और पाँचवीं अनुसूचित क्षेत्र की व्यवस्था— ये सभी कानूनी प्रयास हैं सह-अस्तित्व की उस जीवन शैली को पुनर्स्थापित करने के लिए। लेकिन अफसोस इन्हें भी पूरी निष्ठा से लागू नहीं किया जा रहा।
हमें खुद को बचाना है, न कि धरती को
यदि हमें सचमुच कुछ बचाना है, तो वह है —हमारा खुद का अस्तित्व। हमें सह-अस्तित्व के मूल्यों की ओर लौटना होगा। विकास की नई परिभाषा गढ़नी होगी, जिसमें पारिस्थितिक न्याय के तत्व हों।
इसके लिए जरूरी है कि शिक्षा में पारिस्थितिकी ज्ञान को अनिवार्य किया जाए। स्थानीय समुदायों, खासकर आदिवासियों के पारंपरिक ज्ञान को नीति निर्माण में शामिल किया जाए। शहरीकरण को नियंत्रित और सतत बनाया जाए। ऊर्जा का संक्रमण (Just Transition) हो और जीवाश्म ईंधन से नवीकरणीय ऊर्जा की ओर बढ़ा जाए। Just Transition को नीतिगत रूप में लागू किया जाए — जिसमें खनन आधारित अर्थव्यवस्था से हरित अर्थव्यवस्था की ओर बदलाव हो। ग्रामसभा, जल-जंगल-जमीन की सामूहिक निगरानी प्रणाली को संवैधानिक संरक्षण मिले। उपभोग आधारित समाज से हटकर संवेदनशील और टिकाऊ जीवन शैली की ओर बढ़ा जाए।
धरती को बचाने की बातें करना मानवीय अहंकार है। धरती को हमारी नहीं, हमें धरती की ज़रूरत है। यह बात जितनी जल्दी हम समझ लें, उतना अच्छा है। हम अगर प्रकृति के साथ सह-अस्तित्व नहीं सीखेंगे, तो वह हमें हटा देगी — जैसे उसने अतीत में हजारों प्रजातियों को हटाया है। धरती तब भी रहेगी। पर हम नहीं रहेंगे।
एक नई दुनिया धरती पर ही बनेगी, लेकिन शायद हम उसके हिस्से न हों, धरती खुद को बचा लेगी — लेकिन हम नहीं बच पाएंगे, यदि अभी भी नहीं चेते।
हमने नदियों को सूखा दिया, जंगलों को काट दिया, हवा को जहर बना दिया —
अब जब आप कह रहे हैं "धरती को बचाओ",
तो सच में आप कह रहे हैं — "हमें बचाओ!"
यदि हम अपने विकास की परिभाषा को नहीं बदलेंगे, तो भविष्य की धरती पर हमारी जगह नई प्रजातियाँ होंगी —जिन्हें शायद ‘मानव’ शब्द का मतलब भी न पता हो।