नौ जून को बिरसा सवेरे नौ बजे मर गया, लेकिन शाम को साढ़े-पाँच बजे के पहले सुपरिटेंडेंट मुआयना न कर सके। मुआयना करके लिखा : 'पाकस्थली जगह-जगह सिकुड़कर ऐंठ गयी है। क्षीण होते-होते छोटीं आँतें बहुत पतली पड़ गयी हैं। बहुत परीक्षा करने पर भी पाकस्थली में विष नहीं मिला।'
यहाँ तक लिख कर उठे- हाथों में ओ-डि-कलोन लगाया। हाथ सूंघे । सुगंधित साबुन से नहाने के बाद भी शरीर से बीरसा की गंध नहीं जा रही थी। ताज्जुब है ! फ़ार्मलीन और स्पिरिट से पोंछे हुए शरीर से भी सड़ांध की हलकी बू निकल रही थी। शरीर का सड़ना बिलकुल शुरू होने के वक़्त इस तरह की गंध निकलती ही है !
सुपरिटेंडेंट ने लिखा : 'खूनी पेचिश के बाद हैजा हो जाने से बड़ी आँत का ऊपरी हिस्सा सिकुड़कर जुड़ गया। परिणामस्वरूप खून बहा है और धीरे-धीरे निस्तेज होकर बिरसा मर गया।' उसके बाद सोचकर देखा, बिरसा ने कभी जेल के बाहर एक बूंद पानी भी नहीं पिया। हैजे की बात लिखी, इससे मन कचोटने लगा। अंत में लिखा : 'कैदी को किस तरह हैजा हो गया, यह पता नहीं लगा।' (महाश्वेता देवी के उपन्यास-जंगल के दावेदार से)
9 जून, 1900 को रांची जेल की अंधेरी कोठरी में एक युवा आदिवासी क्रांतिकारी की सांसें रुक गईं। कोई अंतिम शब्द नहीं, कोई अंतिम दर्शन नहीं। मौत के बाद न पोस्टमार्टम हुआ, न कोई जांच। अंग्रेजी सरकार ने इसे ‘प्राकृतिक मृत्यु’ बताया और फाइल बंद हो गई।
लेकिन वह मृत्यु केवल एक व्यक्ति की नहीं थी। वह मौत थी — प्रतिरोध की संस्कृति की, पारंपरिक स्वशासन की, जल-जंगल-जमीन से जुड़ी अस्मिता की। बिरसा मुंडा मात्र 25 वर्ष की उम्र में इस दुनिया से चले गए, लेकिन उनके पीछे जो सवाल छूट गए, वे आज भी जेल की दीवारों से टकरा रहे हैं: क्या हिरासत में मौतें सिर्फ अतीत की त्रासदी हैं? क्या आज़ाद भारत में यह कलंक मिट गया?
ध्यान रहे तब कारागार अधिनियम, 1894 लागू हो गया था। अधिनियम की धारा 7 के अनुसार- या जब कभी किसी कारागार में महामारी रोग के फैलने से, या किसी अन्य कारण से, किसी कैदी के अस्थायी आश्रय और सुरक्षित अभिरक्षा की व्यवस्था करना वांछनीय हो, तब ऐसे अधिकारी द्वारा और ऐसी रीति से, जैसा राज्य सरकार निर्दिष्ट करे, अस्थायी कारागारों में उतने कैदियों के आश्रय और सुरक्षित अभिरक्षा की व्यवस्था की जाएगी.. । लेकिन बिरसा मुंडा की मौत के बाद भी जेल मैनुअल का अनुपालन नहीं हो रहा था। यदि हैजा से बिरसा की मौत हुई तो जेल में बंद अन्य कैदियों को नियामनुसार तुरंत अलग-थलग करना था लेकिन यह नहीं हुआ। उलगुलान के छह अन्य सेनानी सुखराम मुंडा (लोहाजीमी), मनदेव मुंडा (डेमखानेल), पातर मुंडा (रोनहा), दुना मुंडा (कर्रा), सुखराम (चक्रधरपुरवासी) और मलका (सिंहभूम) की मौत जेल में ही हो गयी। इनके मपुत का विवरण अब भी उपलब्ध नहीं है।
कारागार अधिनियम, 1894 कहता है कि कैदी की मृत्यु पर रिपोर्ट की जानी है- किसी कैदी की मृत्यु होने पर, चिकित्सा अधिकारी निम्नलिखित विवरण, जहां तक वे ज्ञात हो सकें, तुरन्त रजिस्टर में दर्ज करेगा, अर्थात्:(1)वह दिन जिस दिन मृतक ने पहली बार बीमारी की शिकायत की थी या उसे बीमार देखा गया था,(2)वह श्रम, यदि कोई हो, जिसमें वह उस दिन लगा हुआ था,(3)उस दिन उनके आहार का पैमाना,(4)जिस दिन उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया,(5)वह दिन जिस दिन चिकित्सा अधिकारी को पहली बार बीमारी के बारे में सूचित किया गया था,(6)रोग की प्रकृति,(7)जब मृतक को उसकी मृत्यु से पहले चिकित्सा अधिकारी या चिकित्सा अधीनस्थ द्वारा अंतिम बार देखा गया था,(8)जब कैदी की मृत्यु हो गई, और(9)(ऐसे मामलों में जहां शव-परीक्षा की जाती है) मृत्यु के बाद की स्थिति का विवरण, साथ ही कोई विशेष टिप्पणी जो चिकित्सा अधिकारी को आवश्यक प्रतीत हो।
ब्रिटिश शासन का यह क्रूर चेहरा उस दौर की व्यवस्था का प्रतिनिधित्व करता था, जिसमें न्याय का कोई स्थान नहीं था, और आदिवासी चेतना को कुचल देना सत्ता का घोषित इरादा था। दुनिया में सभ्य मानी जाने वाली अंग्रेज सरकार खुद अपने बनाए कानून की ऐसी की तैसी कर रही थी। बिरसा मुंडा की लाश का पोस्ट मार्टम नहीं हुआ। कोई जांच नहीं हुई और ना ही किसी पर आंच आयी। बिरसा मुंडा और उनके छ साथियों की मौत का दोषी कौन था? जबावदेही किसकी थी? आखिर ये सभी न्यायिक हिरासत में थे।
दुर्भाग्य यह है कि स्वतंत्रता के 75 वर्षों बाद भी, जब देश गणराज्य हो चुका है, जब संविधान में मौलिक अधिकारों की गूंज है, तब भी हिरासत में मौतें लगातार हो रही हैं। आज भी बिरसा की तरह अनेक आवाज़ें, बिना दोष सिद्ध हुए, जेल की दीवारों में दम तोड़ देती हैं। इनका कोई मुकदमा नहीं चलता, कोई न्याय नहीं होता। और यही लोकतंत्र की सबसे बड़ी त्रासदी है।
इतिहास का पीछा करती एक सच्चाई
ब्रिटिश हुकूमत की बर्बरता को हमने इतिहास की किताबों में दर्ज किया, लेकिन आज की लोकतांत्रिक सरकारों की निष्ठुरता हमारे चारों ओर फैली है। हिरासत में होने वाली मौतें न केवल एक व्यक्ति की, बल्कि हमारे संविधान, लोकतंत्र और मानवाधिकारों की मौत हैं।
फादर स्टेन स्वामी की मौत जुलाई 2021 में मुंबई की तलोजा जेल में हुई। वे 84 वर्ष के वृद्ध, पार्किन्सन से पीड़ित, व्हीलचेयर पर निर्भर सामाजिक कार्यकर्ता थे। उनकी गलती? उन्होंने झारखंड में आदिवासियों के अधिकारों की पैरोकारी की थी। झारखंड के विस्थापन, जल-जंगल-जमीन और आदिवासी अधिकारों की लड़ाई के लिए जाना जाता है, उन्हें बिना दोष सिद्ध किए, एनआईए ने जेल में डाल दिया। उनके लिए न पीने के लिए सिपर मिला, न चिकित्सा सुविधा। यह एक “सामान्य मृत्यु” नहीं थी; यह प्रणालीगत हत्या थी। विडंबना देखिए जैसे बिरसा के मामले में न्यायालय का रुख गैर-जिम्मेदाराना था, उससे कम गैर-जिम्मेदाराना रुख फादर स्टेन के मामले में आज़ाद भारत के न्यायालय की नहीं थी। कोई दोष सिद्ध नहीं हुआ, न ही कभी मुकदमा पूरा हुआ। क्या फर्क है बिरसा और स्टेन की मौत में? सिर्फ सत्ता का झंडा बदला है। मिजाज वही है।
लेकिन यह मसला केवल बिरसा या फादर स्टेन का ही नहीं है। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के आंकड़े बताते हैं कि 2021-22 में 2,152 न्यायिक हिरासत और 155 पुलिस हिरासत में मौतें दर्ज की गईं। 2017-2022 के बीच कुल 7,448 हिरासत में मौतें हुईं (मानवाधिकार रिपोर्ट)। इनमें से 70% से अधिक मामले अनुसूचित जाति, जनजाति, मुस्लिम और अन्य कमजोर समुदायों से जुड़े हैं। यह बताता है कि हिरासत में मौतें सिर्फ एक प्रशासनिक असफलता नहीं हैं, बल्कि यह सामाजिक न्याय के ढांचे की ध्वस्त होती नींव की ओर इशारा करती हैं।
नहीं बन सका ‘यातना विरोधी कानून’
भारत ने 1997 में यूएनसीएटी पर हस्ताक्षर किए लेकिन इसे आज तक संसद ने अनुमोदन नहीं दिया। इसका अर्थ है कि भारत में हिरासत में यातना के विरुद्ध कोई सशक्त, स्वतंत्र और प्रभावी कानून अब तक नहीं बन पाया है। हर साल संसद में ‘यातना विरोधी विधेयक’ पेश होता है और फिर ठंडे बस्ते में चला जाता है।
सुप्रीम कोर्ट ने कई बार हिरासत में मौतों को लेकर दिशा-निर्देश जारी किए हैं। डी के बसु बनाम पश्चिम बंगाल राज्य (1996) मामला ऐतिहासिक था, जिसमें पुलिस को गिरफ्तारी और हिरासत के दौरान 11 स्पष्ट दिशा-निर्देश दिए गए। इसके बावजूद न पालन सुनिश्चित हुआ, न जवाबदेही तय हुई। 2020 में जस्टिस आर.एफ. नरीमन ने टिप्पणी की थी —“हिरासत में यातना एक खुला रहस्य है, जिस पर हर कोई चुप है।”
मानवाधिकार आयोग की रिपोर्ट बताती है कि 2018 से 2021 तक हिरासत में हुई मौतों के लिए किसी भी पुलिसकर्मी को दोषी नहीं ठहराया गया (मानवाधिकार आयोग की रिपोर्ट)। कई बार जांच उसी विभाग को सौंप दी जाती है, जो खुद आरोपी होता है। पीड़ित परिवारों को कानूनी लड़ाई लड़ने के लिए आर्थिक और सामाजिक संसाधनों की कमी होती है।
क्या आदिवासी, दलित और गरीबों की जान सस्ती है?
रिपोर्ट (2019) बताती है कि हिरासत में मरने वालों में 71% लोग गरीब और हाशिए के समुदायों से हैं।
क्या यह संयोग है? या यह उस संरचनात्मक अन्याय का हिस्सा है, जो न्याय को एक विशेष वर्ग की सुविधा तक सीमित करता है? बिरसा मुंडा, जिनकी लड़ाई ‘जल-जंगल-जमीन’ और ‘सामूहिक चेतना’ की थी, आज भी उनके वंशज जेलों में यातना सह रहे हैं। क्या यही ‘आज़ादी का अमृतकाल’ है? आज जब हिरासत में मौतें सामान्य हो गई हैं, तब बिरसा की पुण्यतिथि हमें एक प्रश्न देती है: जब तक एक भी व्यक्ति बिना दोष सिद्ध हुए जेल में मारा जाता है, तब तक बिरसा का सपना अधूरा है। हमें इस सपना को मरने से बचाना है।