"विकास" के नाम पर जब दुनिया आगे बढ़ती है, तो पीछे छूट जाते हैं वे लोग, जो अपने जंगलों, नदियों और पहाड़ों के साथ जीते आए हैं। झारखंड के आदिवासी ऐसे ही समुदाय हैं, जो अब एक नई वैश्विक अवधारणा — जस्ट ट्रांजिशन — के साए में एक और परिवर्तन का सामना कर रहे हैं। अब जलवायु परिवर्तन के वैश्विक संघर्षों के बीच एक नया शब्द उभरा है — “जस्ट ट्रांजिशन” यानी न्यायपूर्ण संक्रमण।
यह संक्रमण जीवाश्म ईंधन पर आधारित अर्थव्यवस्था से हरित ऊर्जा की ओर जाने की प्रक्रिया को दर्शाता है, जिसमें यह अपेक्षा की जाती है कि पारंपरिक खनन अर्थव्यवस्था से बाहर आने वाले लोगों को न केवल मुआवजा मिले, बल्कि वैकल्पिक आजीविका और सम्मानजनक जीवन भी मिले। लेकिन सवाल उठता है — क्या झारखंड के आदिवासी इस बदलाव में न्याय के पात्र हैं?
" जस्ट ट्रांजिशन " का मतलब है एक ऐसा बदलाव जो पर्यावरणीय सुधार और सामाजिक न्याय—दोनों का संतुलन बनाए। इसका मकसद है, कोयला, तेल, गैस जैसे जीवाश्म ईंधनों से हरित ऊर्जा (सौर, पवन, हाइड्रो आदि) की ओर बढ़ना। इस बदलाव में जो लोग, खासकर श्रमिक और आदिवासी प्रभावित होंगे, उन्हें उचित सहयोग और अवसर देना। और आजीविका, जमीन और संस्कृति की रक्षा करना। यह विचार संयुक्त राष्ट्र और अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आइएलओ ) द्वारा भी मान्यता प्राप्त है।
झारखंड भारत का कोयला हृदय प्रदेश है। यहाँ देश के कुल कोयला भंडार का लगभग 27% हिस्सा मौजूद है। राज्य के 24 में से 14 जिलों में कोयला खनन होता है। देश का 40% खनन उत्पादन झारखंड से आता है। लगभग 60 लाख लोग प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से खनन पर निर्भर हैं। राज्य की लगभग 26% जनसंख्या आदिवासी है। ऐसे में जब कोयला खनन बंद या सीमित किया जाएगा, तो इसका सबसे ज्यादा असर किस पर पड़ेगा? आदिवासियों पर, जो खनन क्षेत्रों में रहते हैं, विस्थापन झेलते हैं, और रोजगार से जुड़े होते हैं।
जस्ट ट्रांजिशन के संभावित प्रभाव
एक अध्ययन के अनुसार, झारखंड में खनन से जुड़े हर 1 व्यक्ति पर 3-4 लोग आजीविका के लिए निर्भर होते हैं। लेकिन हरित ऊर्जा की परियोजनाएँ (जैसे सोलर पार्क) मशीनों पर आधारित हैं और स्थानीय श्रमिकों को बहुत कम अवसर देती हैं। खनन क्षेत्र में लगे मजदूरों को वैकल्पिक रोजगार नहीं मिलेगा तो भूख, बेरोजगारी और पलायन बढ़ेगा।
नई ऊर्जा परियोजनाओं के लिए फिर से जमीन ली जाएगी, जो आदिवासियों की संस्कृति, भूमि अधिकार और पहचान के लिए खतरा बन सकती है। पहले ही झारखंड में आदिवासी लगभग 20 लाख लोग खनन और विकास परियोजनाओं के कारण विस्थापित हो चुके हैं।नई हरित परियोजनाएँ जैसे सोलर पार्क, हाइड्रो प्लांट आदि में "अहिंसक विस्थापन" होगा — यानी बिना खनन के, जमीन ली जाएगी। सोलर पार्क 1000-3000 एकड़ तक फैले होते हैं। जमीन ली जाती है, लेकिन लाभांश, रोजगार या मुआवजा देने की संरचना स्पष्ट नहीं होती। विशेषज्ञ बताते हैं कि सौर परियोजनाएँ पारंपरिक खनन के मुकाबले कम रोजगार देती हैं। जहाँ खनन में हर एक खदान से लगभग 5000 लोगों को रोजगार मिलता था, वहीं 200 मेगावाट के सोलर प्लांट में स्थायी रोजगार 30-50 से ज्यादा नहीं होता।
इतना ही नहीं, सोलर प्रोजेक्ट्स के लिए हज़ारों एकड़ जमीन की जरूरत होती है। झारखंड जैसे राज्य में जहाँ आदिवासी जमीन के मालिक हैं, यह एक नए प्रकार के "नरम विस्थापन" की शुरुआत है — जिसमें ज़मीन जाती है, लेकिन ना मुआवज़ा, ना रोजगार और ना ही भागीदारी मिलती है।
आदिवासी समाज जंगल, पर्वत, नदी, पहाड़ी देवी-देवताओं से जुड़ा है। कोयला खनन से पहले जंगल कटे और अब सौर परियोजनाओं से खुली जमीन का उपयोग होगा। यह "जंगल से जुड़ी अर्थव्यवस्था" के लिए खतरा है — जैसे पत्तल, महुआ, साल, तेंदूपत्ता, मधुमक्खी पालन आदि।
जस्ट ट्रांजिशन: किनके लिए "जस्ट"?
सवाल यही है — क्या यह बदलाव वाकई 'न्यायपूर्ण' है? झारखंड में जब " जस्ट ट्रांजिशन " की बात होती है तो निम्न बातें नजरअंदाज हो जाती हैं: ट्रांजिशन के निर्णयों में ग्राम सभाओं, पंचायतों या आदिवासी समुदाय की कोई भूमिका नहीं होती। यह संविधान के पेसा अधिनियम और वनाधिकार अधिनियम का उल्लंघन है। आदिवासी समुदाय जल, जंगल, जमीन की रक्षा के पारंपरिक विशेषज्ञ हैं। उन्हें जलवायु नीतियों में भागीदार नहीं बनाया गया। सिर्फ मुआवजा देना या नए रोजगार देना पर्याप्त नहीं है। न्याय में संस्कृति, आत्मसम्मान, सामाजिक संरचना की रक्षा भी जरूरी है।
क्या हो सकता है समाधान?
यदि " जस्ट ट्रांजिशन " को झारखंड के आदिवासियों के लिए वास्तविक न्याय का मार्ग बनाना है, तो कुछ जरूरी कदम उठाने होंगे। पेसा और वनाधिकार अधिनियम के तहत ग्राम सभा को निर्णय में शामिल किया जाए। सोलर, हाइड्रो या अन्य ऊर्जा परियोजनाओं के लिए उनकी स्वीकृति अनिवार्य हो। साल, महुआ, मधु, बाँस आदि पर आधारित लघु वन उत्पाद आधारित पारंपरिक अर्थव्यवस्था को बढ़ावा दिया जाए। महिलाओं और युवाओं के लिए कौशल विकास की योजनाएँ चलायी जाए।
सोलर और अन्य हरित परियोजनाओं में स्थानीय युवाओं को प्राथमिकता मिले। उन्हें तकनीकी प्रशिक्षण दिया जाए। जलवायु न्याय की अवधारणा में केवल कार्बन उत्सर्जन घटाना लक्ष्य न हो, बल्कि यह देखा जाए कि इससे किस पर क्या असर हो रहा है। जलवायु न्याय का अर्थ है — ऐतिहासिक रूप से कम उत्सर्जन करने वालों को ज्यादा नुकसान न हो।
झारखंड में कुछ पहलें
जस्ट ट्रांजिशन को लेकर सरकार और गैर-सरकारी संगठनों ने कुछ पहलें शुरू की हैं। अच्छी बात है कि झारखंड जस्ट ट्रांजिशन टास्क फोर्स का गठन करने वाला देश का पहला राज्य है। लेकिन दुखद पहलू है कि राजनैतिक इच्छा शक्ति की कमी की वजह से यह कागजी संस्थान ही बनकर रह गया है। झरकहंद के 30 से ज्यादा सिविल सोसाइटी ने सारथी जस्ट ट्रांजिशन नेटवर्क की पहल की है। यह नेटवर्क स्थानीय स्तर पर जागरूकता और संवाद का कार्य कर रहे हैं। कुछ अभिनव प्रयोग भी किए जा रहे हैं। वैकल्पिक रोजगार के लिए खनन इलाकों में आजीविका के नए अवसर सृजित किए जा रहे हैं। लेकिन ये पहलें अब भी प्रारंभिक चरण में हैं और अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी है।
“जस्ट ट्रांजिशन” को यदि केवल आर्थिक और तकनीकी प्रक्रिया माना गया, तो यह आदिवासी समाज के लिए नई लूट बन सकती है। लेकिन यदि इसे सामाजिक न्याय, सांस्कृतिक पहचान और पारंपरिक ज्ञान के साथ जोड़ा गया, तो यह न्यायपूर्ण परिवर्तन का रास्ता बन सकता है।
झारखंड के आदिवासी आज भी अपने जल-जंगल-जमीन के साथ खड़े हैं — चुपचाप, लेकिन साहस से। यदि यह देश सचमुच जलवायु परिवर्तन से लड़ना चाहता है, तो इन्हें भागीदार बनाना होगा, शिकार नहीं।
झारखंड के जंगलों में आज भी महुआ के फूल गिरते हैं, मधुमक्खियाँ गूंजती हैं, महिलाएँ पत्तल बनाती हैं, बच्चे ढोल बजाते हैं — ये सारी गतिविधियाँ एक स्थायी अर्थव्यवस्था की संभावनाएँ हैं। जरूरत है उन्हें पहचानने, संरक्षित करने और नई ऊर्जा नीति में शामिल करने की। जब जलवायु संकट की घड़ी में देश और राज्य ‘हरित विकास’ की बात कर रहे हैं, झारखंड जैसे आदिवासी-बहुल राज्य के पास एक प्राकृतिक वरदान है—जिसे आज तक न तो पूरी तरह समझा गया और न ही नीति में जगह दी गई। ये वरदान हैं लाह, तसर रेशम, मधुमक्खी पालन जैसे कीट-आधारित उत्पाद, जो जलवायु-संवेदनशील, सतत, महिला-केंद्रित और स्थानीय जैवविविधता पर आधारित अर्थव्यवस्था को जन्म दे सकते हैं। झारखंड की जलवायु, वनों की बनावट और पारंपरिक ज्ञान इसे कीटपालन का हब बना सकती है। और यह "जस्ट ट्रांजिशन" की सबसे सजीव मिसाल बन सकता है।