राजमहल के पहाड़ियों को यदि पता होता कि सिराजुद्दौला और उसके साथियों की लड़खाड़ती और थकी चाल को संभालने से उनकी आने वाली पीढ़ी की आज़ादी बहाल रहती तो संभव था कि उनका व्यवहार कुछ और होता। सत्रहवीं सदी के मध्य में देश के हालात क्या थे, उन्हें नहीं पता था।उन्हें जंगल-पहाड़ से बाहर की दुनिया का भान नहीं था। उन्हें नहीं पता था कि पलासी के युद्ध में क्या हुआ था? उन्हें नहीं पता था कि सिराजुद्दौला कौन है? उन्हें नहीं पता कि तीन दिन पहले मुर्शिदाबाद के राजदरबार में क्या हुआ था? “कौन राजा”? कौन शासक? वे किसी को कर नहीं देते। किसी से वास्ता नहीं रखते थे। राजा-सूबेदार भी उनकी दुनिया में दखलंदाज़ी नहीं करते थे। पहाड़ के नीचे की दुनिया से इतना ही वास्ता, धान के बदले सूत और नमक लाते , बस, बाहर की दुनिया से संपर्क खत्म।
मशहूर इतिहासकार सैयद ग़ुलाम हुसैन ख़ाँ अपनी फ़ारसी में लिखी किताब 'सियारुल मुताख़िरीं' में लिखा है, ''सिराजुद्दौला आम आदमियों के कपड़े पहनकर भागे थे. उनके साथ उनके नज़दीकी रिश्तेदार और कुछ ज़न्ख़े (किन्नर) भी थे। सुबह तीन बजे उन्होंने अपनी पत्नी लुत्फ़ उन निसा और कुछ नज़दीकी लोगों को ढंकी हुई गाड़ियों में बैठाया, जितना सोना-जवाहरात वो अपने साथ ले जा सकते थे, अपने साथ लिया और राजमहल छोड़ कर भाग गए।'' वो पहले भगवानगोला गए और फिर दो दिन बाद कई नावें बदलते हुए राजमहल के किनारे पहुंचे। यहाँ पर वो कुछ खाने के लिए रुके। उन्होंने खिचड़ी बनवाई क्योंकि उन्होंने और उनके साथ चल रहे लोगों ने तीन दिनों से कुछ नहीं खाया था।
दर्जनों पहाड़िया सिराजुदौला और उनके साथियों को अस्त-पस्त हालत में देख रहे थे लेकिन उन्हें समझ ही नहीं आया कि इस दीनहीन शख्स को राजमहल की पहाड़ियों में,जंगलों में सुरक्षित पनाह दे दी जाए। शायद वे आने वाले समय को देख पाते तो 1766 में उन्हें अंग्रेजों से लड़ने की नौबत ही नहीं आती। इसी इलाके में रह रहे एक फ़कीर शाह दाना ने मुख़िबरी करते हुए सिराजुदौला के वहाँ पहुंचने की ख़बर उनके दुश्मनों तक पहुंचा दी जो उन्हें ढ़ूंढने के लिए दिन-रात एक कर रहे थे।
23 जून 1757 की पलासी की लड़ाई से हिन्दुस्तान के आने वाले 190 वर्षों का फैसला हो गया। यह एक अनोखा युद्ध था। जिन्होंने युद्ध जीता वे योद्धा नहीं थे। एक व्यापार करने वाली कंपनी के क्लर्क, नौकर और गुमाश्ते थे। उनमे से कुछ सिपाही बन गए थे। जिनको जीता वे सैंकड़ों वर्षों से लड़ने के अभ्यस्थ थे। इस लड़ाई से ईस्ट इंडिया कंपनी का भारत के सबसे सम्पन्न बंगाल प्रान्त पर नियंत्रण हो गया। तीन करोड़ की आबादी वाले बंगाल की सालाना आमदनी ढाई करोड़ थी। पलासी के मैदान में हिंदुस्तान में अंग्रेजी राज की नींव पड़ी। क्लाइव जीता नहीं, नवाब हार गए। पलासी की लड़ाई अंग्रेजों ने बहादुरी से नहीं जीती थी। धोखेबाजी, साजिश, सौदेबाजी, रिश्वतखोरी, ये सारी चीजें थीं जीत के पीछे। क्लाइव इसका मास्टरमाइंड था।
बसंत में जब पलाश के वृक्ष खिलना शुरू कर रहे थे, मुर्शिदाबाद के राज दरबार में ईस्ट इंडिया कंपनी के अधिकारी रोबर्ट क्लाइव ने साजिशों के बीज बो दिए थे.पैसा, पद, प्रलोभन के खाद-पानी से साजिशों के बीज को सहेजते- सींचते क्लाइव को एहसास हो गया था कि पलाश की तरह ही गर्मी आते-आते साजिशें अपनी छटा बिखेरने लगेगा.
बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला साजिशों की बू सूंघ रहे थे...लेकिन भरोसा था कि पूरी तरह खिलने के बाद जैसे पलाश के पत्ते गिर कर बिखर जाते हैं, यही हश्र साजिशों का होगा. प्रधान सेनापति और संतरियों ने ‘कुरआन’ पर हाथ रखकर कसमें जो खायीं थीं.
युद्ध का बिगुल बजा और थोड़ी-ही देर में क्लाइव की कायरता और अकुशलता दोनों साफ़ चमकने लगी. लगा क्लाइव के पाँव अब उखड़े की तब... .ऐन मौके पर जब जीत सिराजुदौला के पाँव चूमने को हुई, बल पर छल हावी हो गया। सिराजुदौला के प्रधान सेनापति मीर जाफर, मुख्य सेनापति राजा दुर्लभ राम और यार लुफ़्त खान अपनी 45 हज़ार सेना के साथ क्लाइव से जा मिले। जो तलवारें क्लाइव पर चमकनी थीं वे सिराजुदौला की सेनाओं के सिर कलम करने लगे। सिराजुद्दौला का एकमात्र वफादार सेनापति मीर मदन अपनी 12 हज़ार सेना के साथ मैदान में डटा रहा। कर्नल मालेसन लिखते हैं- जब तक मीर मदन जिन्दा रहा, सिराजुद्दौला की आस बंधी रही।
इतिहासकार रोबर्ट ओरमे लिखते हैं- 6 जुलाई 1757 को मुर्शिदाबाद से लाये गए 72,71,666 रूपए के चांदी के सिक्के सात सौ संदूकों में भर कर लन्दन के लिए रवाना किये गए। सैनिकों की निगरानी में जंगी जहाजों और कश्तियों पर विजयी पताके लहरा रहे थे। विजयी बिगुल की आवाजें समुद्री लहरों पर हिचकोले खा रहा था। इससे पहले किसी लड़ाई में अंग्रेजों को इतना नकद धन नहीं मिला था। यह मंज़र बिलकुल वैसा ही था जब दिल्ली की दौलत दोनों हाथों से निचोड़ कर नादिर शाह ईरान ले गया था।
लेकिन एक दशक से भी कम समय में पहाड़ियों के शांत जीवन में तूफान आ गया। ईस्ट इंडिया कंपनी की गिद्ध निगाहें पहाड़ियों पर पड़ी। पहाड़िया समुदायों की जमीन पर जबरन कब्जा करने कोशिशें शुरू हो गयी। जबरन कर वसूली और उनकी उपज को कम दामों पर बेचने के लिए बाध्य किए जाने से पहाड़िया बैचेन हो गए थे। पहाड़िया जनजाति के पारंपरिक शासन में हस्तक्षेप और उनके सामाजिक-राजनीतिक ढांचे को बदलने की कोशिशें ने पहाड़िया सामुदायों को विद्रोह के लिए बाध्य कर दिया।
1766 में रमना आहड़ी के नेतृत्व में पहाड़िया समुदायों ने अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह कर दिया। इसके बाद भी पहाड़िया चैन से नहीं बैठे। इस विद्रोह में सरदार रमना आहड़ी (घसनिया पहाड़, दुमका), करिया पुलहर (आमगाछी पहाड़, दुमका), चंगरु सांवरिया (तारागाछी पहाड, राजमहल), नायब सूरजा आदि ने अंग्रेजों की नींद हराम कर दी। इसके बाद तो पहाड़िया अंग्रेजों से 70 साल से ज्यादा समय तक लड़ते ही रहे।
क्लाइव ने पलासी की लड़ाई के बाद मीर जाफर से मिली तमाम दौलत शाही खजाने में जमा नहीं करवायी बल्कि अपने लिए भी कुछ हिस्सा रख लिया था जिसकी कीमत आज की तारीख में लगभग तीन करोड़ डॉलर बनती है. इस पैसे से क्लाइव ने ब्रिटेन में एक शानदार महल बनवाया और काफी जमींन खरीदी. उसने अपने महल का नाम ‘पलासी’ रखा. यही नहीं , उसने पैसे देकर अपने लिए और अपने पिता जी के लिए संसद की सीट खरीदी. बाद में उसे ‘सर’ की उपाधि भी अता कर दिया गया.
इतिहासकार सैयद ग़ुलाम हुसैन ख़ाँ लिखते हैं कि भारत में राजे-रजवाड़ों में यदा-कदा लड़ाईयां होती थी। बाहर से हमले भी होते थे लेकिन लोगों की जिंदगी पर कोई असर नहीं होता था। लोगों के रहन-सहन, उद्योग-धंधे, कारोबार, खेती- किसानी पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता था। आसपास के जंगलों-पहाड़ों में रहने वाले लोगों को लगा राजाओं की लड़ाई से क्या लेना-देना? लेकिन एक दशक से भी कम समय में यह सोच और समझ बनी कि कंपनी है या कोई डकैत? यह खेत लूटती है, किसानों को लूटती है, कारोबार लूटती है, कारीगिरी छीनती है? आगे का इतिहास सर्वविदित है। पहाड़िया जागते इससे पहले अंधेरा हो चुका था।