गाँव की बोली, शासन की बोली बने 

सुधीर पाल 



कतंत्र का मूल तत्व "जन भागीदारी" है। और भागीदारी वहीं संभव होती है जहाँ संवाद सहज, सुलभ और संस्कृति से जुड़ा हो। यदि ग्राम सभा में या ग्राम पंचायत में कोई बात ऐसी भाषा में कही जाए जो ग्रामवासियों के लिए अपरिचित हो, तो वह एक 'बंद दरवाज़ा' बन जाती है। स्थानीय भाषा में संवाद न केवल सुगम होता है, बल्कि उसमें अपनापन और सहभागिता का भाव भी समाहित होता है। स्थानीय भाषा में पंचायत चलाना सिर्फ प्रशासनिक सुविधा नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक और सामाजिक क्रांति है। विशेषकर आदिवासी क्षेत्रों में जीवन की गति स्थानीय भाषाओं और बोलियों से संचालित होती है। यह ग्राम वासियों को यह कहने का अवसर देता है—मेरी भाषा, मेरा अधिकार।

गाँव की मिट्टी में पले-बढ़े लोग जब बोलते हैं, तो उनके शब्दों में खेतों की सौंधी गंध, जंगल की नमी, नदी की लय और पुरखों की स्मृति बोलती है। उनकी भाषा में न केवल संवाद होता है, बल्कि एक संस्कृति, परंपरा और जीवन-दृष्टि भी रचती-बचती है। पर जब यही लोग किसी सरकारी दफ्तर में जाते हैं, तो उनकी बोली 'अमान्य' मानी जाती है। शासन की भाषा शहरी हो जाती है, जटिल हो जाती है, और जन से कट जाती है। यही भाषा की दूरी लोकतंत्र की दूरी बन जाती है। आज जरूरत है कि गाँव की बोली को शासन की बोली बनाया जाए। ताकि संवाद, समझदारी और सहभागिता का एक ऐसा सेतु बने, जिस पर टिके लोकतंत्र मजबूत और जीवंत हो। ढेबर आयोग ने जो बात 1960 में कही थी, वह आज और भी प्रासंगिक हो गई है। “शासन की भाषा वही होनी चाहिए, जिसमें जन साँस लेते हैं, नहीं तो लोकतंत्र दम तोड़ देगा।”
लोकतंत्र का मूल तत्व "जन भागीदारी" है। और भागीदारी वहीं संभव होती है जहाँ संवाद सहज, सुलभ और संस्कृति से जुड़ा हो। यदि ग्राम सभा में या ग्राम पंचायत में कोई बात ऐसी भाषा में कही जाए जो ग्रामवासियों के लिए अपरिचित हो, तो वह एक 'बंद दरवाज़ा' बन जाती है। स्थानीय भाषा में संवाद न केवल सुगम होता है, बल्कि उसमें अपनापन और सहभागिता का भाव भी समाहित होता है। स्थानीय भाषा में पंचायत चलाना सिर्फ प्रशासनिक सुविधा नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक और सामाजिक क्रांति है। विशेषकर आदिवासी क्षेत्रों में जीवन की गति स्थानीय भाषाओं और बोलियों से संचालित होती है। यह ग्राम वासियों को यह कहने का अवसर देता है—मेरी भाषा, मेरा अधिकार।
हो, मुंडारी, संथाली, कुड़ुख जैसी भाषाएँ आदिवासी अंचलों में बोली जाती हैं। इन भाषाओं में संवाद करने से ग्रामसभा की बैठकों में लोग अपनी बात कहने, समझने और सवाल करने के लिए प्रेरित होते हैं। यह लोकतंत्र को एकतरफा आदेश से साझा निर्णय में बदल देता है। स्थानीय भाषाओं में पीढ़ियों का परंपरागत ज्ञान संरक्षित है — खेती, मौसम, वन संसाधन, जड़ी-बूटी, जल प्रबंधन जैसे मुद्दों पर। जब पंचायत की भाषा स्थानीय होगी, तभी यह ज्ञान लोकतांत्रिक निर्णय प्रक्रिया में समाहित हो सकेगा।
गाँव की बोली को पंचायत में स्थान देना केवल भाषाई समावेश नहीं, बल्कि सांस्कृतिक पुनर्निर्माण है। यह सत्ता के वर्चस्व के विरुद्ध आत्मसम्मान की पुनर्स्थापना है। स्थानीय भाषाओं को पंचायत की भाषा बनाना यह कहने जैसा है — गाँव की बोली शासन की बोली बनेगी। ग्रामीण महिलाएँ और बुज़ुर्ग प्रायः अपनी बोली में ही सहज होते हैं। यदि पंचायत की भाषा उनकी समझ में हो, तो वे संवाद में भागीदार बनते हैं। वहीं युवाओं के लिए यह एक नेतृत्व की पाठशाला बन सकती है जहाँ उनकी भाषा में सरकार बात करती है।

कानूनी एवं प्रशासनिक पहल

ढेबर आयोग (1960), जिसे प्रथम अनुसूचित जनजाति आयोग भी कहा जाता है, की स्थापना आदिवासी समाज की सामाजिक-आर्थिक स्थिति और उनके प्रशासनिक अनुभवों की समीक्षा हेतु की गई थी। आयोग ने सिफारिश की थी कि आदिवासी क्षेत्रों में प्रशासन की भाषा ऐसी होनी चाहिए जिसे स्थानीय लोग आसानी से समझ सकें। शासन को चाहिए कि स्थानीय भाषाओं और बोलियों में संवाद और प्रशासनिक कार्य हो।
आयोग ने स्पष्ट किया कि आदिवासी बच्चों की प्राथमिक शिक्षा उनकी मातृभाषा में दी जानी चाहिए। क्योंकि यही भाषा उनकी संवेदनाओं, सोच और संस्कृति की वाहक होती है। शासन की भाषा में लोकसंवाद तभी संभव है जब स्थानीय बोली जानने वाले शिक्षक, ग्रामसेवक, अफसर प्रशासनिक ढाँचे में हों। आयोग ने सिफारिश की कि आदिवासी क्षेत्रों में स्थानीय जनों की नियुक्ति प्राथमिकता से की जाए।
ढेबर आयोग ने ध्यान दिलाया कि आदिवासी व्यक्ति यदि अपनी बात न्यायालय या प्रशासनिक अधिकारी को अपनी भाषा में नहीं कह सकता, तो न्याय की प्रक्रिया ही अपूर्ण है। बिरसा मुंडा के उलगुलान के समय कोर्ट में हुए संवाद इसी यथार्थ को अभिव्यक्त करते हैं। राजर्स ने कमिशनर से कहा-यह तो किताबी बात है। .. .. .. मुंडा लोग बंगला, हिन्दी, अंगरेजी नहीं जानते, नहीं समझते। न्यायाधीश किसी दिन मुंडारी सीखकर मुंडाओं की शिकायतें नहीं सुनते, न्याय नहीं करते। कोर्ट में मुक़दमा होने पर आसामी क्या कहता है, न्यायाधीश यह भी नहीं समझते । दुभाषिया मनमानी झूठी बातें कहकर उन्हें समझा देता है। नतीजा जो होता है वह आप जानते हैं। दूसरे के खेत से एक आने-भर की चीज उठा लेने के अपराध में मुंडाओं को एक बरस की जेल होती है, हमेशा होती है। (महाश्वेता देवी 'जंगल के दावेदार , पेज-111)। 
अतः कानून, आदेश और निर्णय स्थानीय भाषा में उपलब्ध होने चाहिए। योजनाओं की जानकारी अगर नागपुरी, संथाली या मुंडारी में दी जाए, तो उसका प्रभाव और पहुँच दोनों कई गुना बढ़ जाते हैं।
क्या ढेबर आयोग की सिफारिशें लागू हुईं? आंशिक रूप से, पर पूर्णतः नहीं। झारखंड में मातृभाषा में प्राथमिक शिक्षा की व्यवस्था है। कुछ विश्वविद्यालयों में क्षेत्रीय एवं जनजातीय भाषाओं में पठन-पाठन होता है। राज्य स्तर की परीक्षाओं में क्षेत्रीय और जनजातीय भाषाओं को मान्यता दी गई है।  लेकिन प्रशासन में भाषा अब भी शहरी और औपचारिक है। स्थानीय बोली बोलने वाले अफसरों की नियुक्ति अपवाद बन कर रह गई है। ग्रामसभा और पंचायत कार्यवाही अब भी हिन्दी या अंग्रेजी रजिस्टरों में दर्ज होती है। ढेबर आयोग की बातें दस्तावेज़ों में दर्ज हैं, लेकिन नीति में उनकी आत्मा नहीं उतर पाई।
राज्य सरकारें पंचायती राज अधिनियम में संशोधन करके यह प्रावधान जोड़ सकती हैं कि पंचायत की समस्त कार्यवाहियाँ स्थानीय भाषा में हों। साथ ही पंचायत सचिवों और प्रतिनिधियों को स्थानीय भाषाओं में लेखन और बोलने का प्रशिक्षण अनिवार्य किया जाए। हर निर्णय और दस्तावेज़ हिंदी के साथ-साथ स्थानीय भाषा में भी उपलब्ध हो। उदाहरणस्वरूप — हिंदी + संथाली, हिंदी + मुंडारी आदि। इससे सूचना की पहुँच बढ़ेगी और पारदर्शिता में इज़ाफा होगा।
इसलिए अनिवार्य हो गया है कि पंचायत की कार्यवाही — बैठकों, निर्णय पुस्तिकाओं, योजनाओं — को स्थानीय भाषाओं जैसे संथाली, मुंडारी, हो, कुड़ुख, नागपुरी, खड़िया आदि में अनिवार्य किया जाए। यह केवल भाषा का अनुवाद नहीं, बल्कि लोकतंत्र को जनसंवाद में बदलने का सशक्त माध्यम है।
स्थानीय भाषाओं में डिजिटलीकृत पंचायत पोर्टल, मोबाइल ऐप, वॉइस नोटिफिकेशन, डिस्प्ले बोर्ड विकसित किए जाएँ। फॉर्मेटेड दस्तावेज़, रजिस्टर, बजट फॉर्म, प्रस्ताव पत्र स्थानीय भाषा में तैयार किए जाएँ। हर पंचायत को कम से कम एक भाषा सेवक दिया जाए जो स्थानीय बोली का ज्ञाता हो और दस्तावेज़ों का सरल अनुवाद कर सके। यह भूमिका उच्च शिक्षा संस्थानों के छात्रों और स्थानीय भाषा संस्थानों से प्रशिक्षित युवाओं को दी जा सकती है। मांझी, पाहन, परगनैत जैसे परंपरागत नेतृत्वकर्ता पंचायतों में भाषा-संरक्षक और संवाद-संयोजक की भूमिका निभा सकते हैं। उनकी उपस्थिति से पंचायत अधिक जनपक्षीय और परंपरागत मूल्यों से जुड़ी होगी।

स्थानीय भाषा के व्यवहारिक लाभ

जब पंचायत के निर्णय गाँव की भाषा में दर्ज होंगे, तब प्रत्येक नागरिक समझ सकेगा कि क्या निर्णय लिए गए और क्यों। यह न केवल भ्रष्टाचार पर नियंत्रण करेगा, बल्कि पंचायत में जनता का विश्वास भी बढ़ाएगा। अब तक जो लोग भाषा के कारण पंचायत से कटे हुए थे — जैसे बुजुर्ग, महिलाएँ, अनुसूचित जनजातियाँ — वे सहभागी बनेंगे। पंचायत का दायरा केवल पढ़े-लिखे लोगों तक सीमित नहीं रहेगा।
जब बच्चे पंचायत की बैठकों में अपनी भाषा में संवाद होते देखेंगे, तो उनमें स्वाभिमान जगेगा कि उनकी बोली भी शासन की बोली हो सकती है। यह एक सांस्कृतिक मनोबल का निर्माण करेगा। स्थानीय भाषा न केवल संवाद का माध्यम है, बल्कि उसमें एक सामाजिक दर्शन, प्रकृति के साथ सामंजस्य और परंपरागत न्याय की समझ निहित है। ऐसी भाषा पंचायत को केवल तकनीकी संस्थान नहीं, जीवंत और संवेदनशील संस्था में बदल देती है।

क्या हो सकते हैं ठोस कदम?

1.    स्थानीय भाषा में सरकारी दस्तावेज़ उपलब्ध हों — आवेदन पत्र, योजना विवरण, शिकायत निवारण फार्म आदि।
2.    ग्रामसभा की कार्यवाही स्थानीय बोली में रिकॉर्ड हो और उसका अनुवाद रखा जाए।
3.    अधिकारियों को स्थानीय भाषा में संवाद का प्रशिक्षण मिले।
4.    लोकल रेडियो, सामुदायिक चैनलों में शासन से जुड़े कार्यक्रम स्थानीय बोली में प्रसारित हों।
5.    बच्चों की प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा में हो, ताकि शासन, अधिकार और संविधान की मूल बातें सहज बनें।
6.    स्थानीय भाषा में न्याय प्रणाली के लिए परामर्श केंद्र बनें, जहाँ पारंपरिक और वैधानिक प्रक्रिया मिल सकें।

राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव

अब भी कई राज्यों में स्थानीय भाषाओं को प्राथमिकता नहीं मिली है। भाषा अधिकारों के लिए जनांदोलन, नीति निर्माण में जनप्रतिनिधियों पर दबाव, और संवैधानिक संस्थानों के माध्यम से हस्तक्षेप। कुछ प्रशासनिक शब्दों का बोली में अनुवाद चुनौतीपूर्ण हो सकता है। द्विभाषी शब्दकोष तैयार करना, तकनीकी शब्दावली को लोकभाषा के संदर्भ में रूपांतरित करना, और लगातार संवादों से शब्दकोष को समृद्ध करना। पंचायत प्रतिनिधि या सचिव स्थानीय भाषा में तकनीकी लेखन नहीं जानते।नियमित रूप से प्रशिक्षण कार्यक्रम, पंचायत स्तर पर भाषा-अधिकार कार्यशालाएँ, और भाषा विशेषज्ञों की सेवाएँ।
गाँव की बोली को शासन की बोली बनाना सिर्फ भाषायी निर्णय नहीं, बल्कि लोकतांत्रिक पुनर्जागरण है। पंचायत भवनों में जब संथाली, मुंडारी, हो, कुड़ुख की आवाज़ें गूंजेंगी, जब पंचायत रजिस्टरों में गाँव की बोली में निर्णय दर्ज होंगे, और जब ग्रामसभा के हर सवाल का जवाब ग्रामवासियों की अपनी भाषा में मिलेगा — तभी यह कहा जा सकेगा कि लोकतंत्र सच्चे अर्थों में जनभाषा का लोकतंत्र बना है। और जब शासन गाँव की बोली में जवाब देगा, तभी वह सच में "जनता का शासन, जनता के लिए, जनता द्वारा" बन पाएगा।
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