हूल दिवस 30 जून पर विशेष
साम परगना उलझन में पड़ गया था। "हम समझते हैं कि सरकार आजकल पल्टिन साहब को चाह नहीं रही है। दारोगा को ही अधिक चाह रही है। नहीं तो दारोगा उनका हुकूम नहीं मानने का साहस कभी नहीं कर सकता है, जैसा कि उसका काम दिख रहा है।"
संतोखी लाल ने कुँहरकर कहा, "हाँ, उनकी आशा हमारे लिए खतरा है!" निधिराम ने अपनी आशंका जताई-" और यह जल्द ही होगा क्योंकि भागलपुर के हमारे साथी उस आदेश को और अधिक दिनों तक दबाकर नहीं रख सकेंगे। वह बाहर आएगा ही। अरे बाप रे! हम तो भूसे के समान उड़ जाएँगे !"
कमिश्नर ने तेज आवाज में कहा, "मैं इसका समर्थन नहीं करता है। सरकार ने अन्य जाति पहाडिया लोगों को अधिकार दिया, इसका मुझे दुःख है: मैं अवश्य ही सरकार के पास लिखूँगा कि फिर से एक अन्य जाति को पहाडिया लोगों के समान अधिकार न दिया जाए। क्योंकि यह अक्लमंदी का काम नहीं है और ऐसा काम करने को बेसिलसिलेवार काम करना कहते हैं।"
केनाराम ने खिल्ली उड़ानेवाली मुद्रा में हाड़मा से कहा, "पल्टिन साहब ! कौन पूछता है पहाड़िया लोगों के उस हाकिम को ! तुम्हारे ही हाकिम लोग यानी मजिस्ट्रेट और मुंसिफ चाहते हैं और हमको देंगे। अरे, उस जमीन पर कब्जा करने दो और तुम्हारा दोस्त तो बनने दो।"
अंग्रेज अधिकारी आर. कासटेयर्स के उपन्यास ‘हाड़माज विलेज’ में प्रकाशित ये चार बानगी इस बात के सबूत हैं कि प्रशासनिक अव्यवस्था का आलम क्या था? 1935 में प्रकाशित इस उपन्यास को कंपनी सरकार ने बैन कर दिया था और इसकी प्रतियां जब्त कर ली गयी थी। हिन्दी में इस उपन्यास का अनुवाद शिशिर टुडु ने किया है। आर. कासटेयर्स,1885 से 1898 तक संथाल परगना के डिप्टी कमिशनर थे। उनके इस उपन्यास ने साफ कर दिया था कि संथाल हूल केवल एक आदिवासी विद्रोह नहीं था, बल्कि यह औपनिवेशिक शासन की प्रशासनिक अव्यवस्था और भ्रष्टाचार के खिलाफ एक जन-आक्रोश था।
कंपनी राज के तहत महाजनों को संथालों की भूमि पर कब्ज़ा करने और उन्हें कर्ज में फँसाने की खुली छूट मिली थी। ज़मींदार और महाजन, संथालों को ऊँचे ब्याज पर पैसा देते और फिर उनकी जमीन छीन लेते। यह सब भ्रष्ट अधिकारियों की मिलीभगत से हो रहा था। 10 से 15% मासिक ब्याज आम बात थी। जमीन गिरवी रखकर खेती करने की अनुमति तक नहीं मिलती थी। खेतों पर बंधुआ मजदूरी लाद दी जाती थी।
1854 में दुमका में एक रिपोर्ट दर्ज हुई — "थानेदार, ज़मींदार और महाजन एकत्र होकर गांव की औरतों को पीटते हैं, ज़मीन छीन लेते हैं और कह देते हैं कि यह सरकार का हुक्म है।" जब कुछ अफसरों ने इसकी रिपोर्ट बंगाल सचिवालय भेजी, तो वहां कहा गया — "यह स्थानीय मामला है, हस्तक्षेप न करें।"
दारोगा का कानून
संथाल हूल के शिल्पकार साम परगना चाहते थे कि संथालों के लिए एक हाकिम हो जो ऐसे सभी मामलों में स्वतंत्र मध्यस्थ की भूमिका निभा सके। उन्हें और संथालों विश्वास एक ही तरह के हाकिम पर था अर्थात् जो पल्टिन (पोंटेट) जैसा हो। वे उन्हें पहाड़ियों के हाकिम चिलमिली साहेब की तरह मानते थे। संथालों की मान्यता थी कि दिसोम परगना, गाँव के माँझी लोग और पंच लोग संताल और संताल के बीच के विवाद का ही फैसला करते हैं। लेकिन संताल और गैर-संताल के बीच का विवाद तो हाकिम ही सुलझाता है।
यह मसला उस समय और भी जरूरी समझा जाने लगा जब विजय मांझी को महेश दारोगा ने महाजन केना राम के लिए बेवजह गिरफ्तार कर लिया। विजय मांझी का बेटा सिंगराय ने जब पोटेन्ट साहेब के जाने की धमनकी केना रम्म और दारोगा को दी तो दारोगा ने चुनौती दे डाली कि पोंटेट साहब उन्हे हाकिम नहीं हैं। पोंटेट साहब के लिए यह बेहद शर्मनाक था कि एक अदना-सा दारोगा उनको मानने से इनकार कर रहा है। पोंटेट साहब अपने मातहत एक अर्दली से पूछते हैं-क्या महेश हमारा तहसीलदार नहीं है? तब फिर वह हमारे अधिकार कैसे नकार रहा है? पोंटेट साहब ने वह कागज पढ़ा- तहसीलदार का काम करते हुए हमारा अधीनस्थ सेवक है और पुलिस का काम करने के लिए भागलपुर के मजिस्ट्रेट के अधीन है!
महेश दारोगा तो प्रतीक मात्र था। कासटेयर्स के उपन्यास के एक प्रसंग में वकील कहता है- “आप लोग भी तो मामूली किरानी और हम एक छोटे-मोटे वकील हैं। उसको दारोगा तो कहा जाता है, लेकिन वह केवल दारोगा नहीं है बल्कि उससे भी आगे की चीज है। .. अच्छा भाई, क्या कहा हमने, एक ही हाकिम ! नहीं-नहीं, वह तो राजा है भाई। हाकिम तो नियम-कानून से बँधे हैं, लेकिन उसके लिए तो उसकी इच्छा ही कानून है।"
पोंटेट को यह समझ आया कि अधिकारियों के बीच कार्यों, दायित्वों और अधिकारों का स्पष्ट विभाजन जरूरी है। वे अपने वरिष्ठ अधिकारी सिंक्लेयर यह समझा पाने में सफल रहे कि प्रतिबंधित क्षेत्र में मजिस्ट्रेट और मुंसिफ दोनों के पद पर उन्हें होना चाहिए। ऑफिसर केवल एक ही होगा, जो संतालों के बीच दौरा करेगा। वह उनको पहचानेगा और वे भी उसको पहचानेंगे। सिंक्लेयर शक्ति-संपन्न अधिकारी थे उन्होंने आदेश पारित किया लेकिन आदेश निकला ही नहीं और उनका स्थानांतरण अन्यत्र कर दिया गया। जैसे आज राज्य या केंद्र सरकार के कई आदेश अदृश्य शक्तियों द्वारा संचालित होते रहते हैं, यह बिल्कुल वैसा ही था। आशा थी कि एक-दो दिनों में आदेश पहुँच जाएगा। लेकिन क्यों डेढ़ वर्ष लग गए?
भ्रष्ट्र अधिकारियों का बोलबाला
आजादी के बाद विरासत में हमें सिर्फ अंग्रेजों का प्रशासनिक ढांचा ही नहीं मिला बल्कि अधिकारियों ने वे सारे अवगुण और जन-विरोधी चरित्र भी आत्मसात कर लिया जो संथाल हूल में देखने को मिल रहा था। कई मौसम बीत गए परंतु आदेश नहीं पहुँचा। इसका कारण यह था कि साहूकार के अपने बने किरानियों ने सरकारी काम में अड़चन लगाकर विलंब करवा दिया। वे कुछ इस प्रकार के बहाने भी बनाने लगे कि नकल अभी तैयार नहीं हुई है। चिट्ठियाँ आने पर दबा दिया जाता। दलीलें खो जातीं अथवा छिपा दी जातीं। यदि गोपनीय रिपोर्ट माँगी जाती तो वे दाखिल ही नहीं की जातीं। बहुत समय बीत जाने के बाद दाखिल भी होतीं तो आधी-अधूरी और उनको दुरुस्त करने के लिए फिर से वापस भेज दिया जाता। यदि हिसाब-किताब में कमी-घटी होती तो उसे अनदेखा कर दिया जाता था। ध्यान रहे ये आज के सरकारी दफ़्तर नहीं थे लेकिन आज का दफ़्तर उससे अलग भी नहीं है।
कासटेयर्स के उपन्यास का प्रसंग- छींटने काटने के दिन निकल गए, परंतु जिसकी प्रतीक्षा थी, वह नहीं पहुँचा। गरमी-सर्दी पार होने के बाद भी क्या महाजनों के हाथ छोटे हो सकते हैं? वे तो और भी लंबे और लंबे होते जाते हैं। पोंटेट जहाँ भी जाते, सुनने में आता कि गाय-बैलों को हाँककर ले जाया जा रहा था, धन-दौलत लूटी जा रही थी, संतालों को गिरफ्तार किया जा रहा था। संपूर्ण प्रतिबंधित क्षेत्र प्यादों, दारोगाओं और सिपाहियों के भय से परेशान हो उठा और चारों ओर सन्नाटा-सा पसर गया था।
अधिकांश इतिहासकारों ने हूल को "साम्राज्यवाद बनाम आदिवासी" संघर्ष के रूप में देखा है, लेकिन इसका एक गहरा और उपेक्षित पक्ष है — ब्रिटिश प्रशासन के भीतर की आपसी खींचतान और अव्यवस्था। स्थानीय अफ़सरों के बीच यह तय नहीं था कि किसके पास किस मामले में निर्णायक अधिकार है। भूमि विवाद को सुलझाने में अक्सर देर होती थी, और इस दौरान महाजनों और जमींदारों को खुली छूट मिल जाती थी कि वे संथालों से मनमानी वसूली करें।
कमिश्नर को पत्र
10 अप्रैल 1855 को एक संवेदनशील अधिकारी ए. हेडेन ने प्रोटोकॉल को तोड़ते हुए कमिश्नर ओलिवर को पत्र लिखा। आज जब सबकुछ जानते-समझते चुप्प रहने की प्रवृति फैली हुई है और ईमानदार अधिकारी सच कहने का साहस नहीं जुटा पाते हैं, हेडेन का यह चेतावनी भरा पत्र ‘सभ्य’ समझी जानी जाने वाली जाति में अपवाद स्वरूप था। हेडेन को दिख रहा था कि संथालों के सब्र का बांध टूटने वाला है और समय रहते प्रशासनिक कार्यवाही जरूरी है।लेकिन भ्रष्ट्र व्यवस्था में कौन कुछ सुनने वाला था।
हेडेन लिखते हैं कि ‘शासन चलानेवालों की लापरवाही से राजमहल पहाड़ी दामिन-ए-कोह क्षेत्र के अधीनस्थ सरकारी कर्मचारियों ने जुऔंठ उतारकर फेंक दिया है तथा महाजन साहूकारों के साथ दोस्ती करके वे सरकार की संताल प्रजा को सताते व दबाते हैं। मैंने सुना है कि सरकार बहादुर सुपरिंटेंडेंट के अधिकार बढ़ाने का विचार कर रही है, ताकि जो गलत हो रहा है उस पर रोक लगाई जा सके। यह बात संतालों के कान मैं भी पड़ चुकी है। लेकिन सरकार बहादुर की इच्छा पूरी होने में विलंब हो जाने से संताल लोग बहुत नाराज हो गए हैं। मेरा सुझाव है कि उनकी नाराजगी दूर की जाए अन्यथा हूल हो जाएगा।‘
अंग्रेज अधिकारियों के बीच आपसी टकराव, निर्णयहीनता और भ्रष्टाचार ने संथालों को यह समझा दिया कि उनके लिए न्याय की कोई व्यवस्था नहीं है। 30 जून 1855 को भोगनाडीह में एक महा ग्रामसभा हुई। लगभग 10,000 संथाल इकट्ठा हुए और घोषणा की गई — "हम अब किसी दिकू (बाहरी) को कर नहीं देंगे। हम अपने ढंग से शासन करेंगे।" ब्रिटिश अधिकारियों ने इस आंदोलन को कुचलने के लिए पुलिस, सेना और ज़मींदारों के निजी गार्ड्स को एकजुट किया। सैकड़ों संथालों को गोली से उड़ाया गया। महिलाओं तक पर अत्याचार हुआ। पूरे गाँव जलाए गए।
संथाल हूल सिर्फ इतिहास नहीं है। यह आज भी बताता है कि जब शासक वर्ग में समन्वय नहीं होता, जब शासन व्यवस्था भ्रष्ट होती है, और जब जनता की आवाज़ नहीं सुनी जाती — तब विद्रोह अवश्यंभावी है। जहाँ न्याय नहीं होता, वहाँ हूल होता है।