'महाराष्ट्र मॉडल' अनुसूचित क्षेत्र में राज्यपाल रबर स्टाम्प नहीं 

सुधीर पाल 



झारखंड हाई कोर्ट की फटकार के बाद भी राजनीतिक कारणों से झारखंड में पेसा नियमावली लागू नहीं हो पा रही है। राज्यपाल मुख्यमंत्री से आग्रह करते हैं कि पेसा नियमावली लागू कर दी जाए। महाराष्ट्र में भी यह कार्य वर्षों से लंबित था। महाराष्ट्र के राज्यपाल के हस्तक्षेप के बाद मार्च 2014 में राज्य सरकार ने अंततः पेसा नियमों की घोषणा कर दी।  

महाराष्ट्र राज्य के विभिन्न राज्य अधिनियमों को पेसा के अनुरूप लाने के लिए उनमें बदलाव की आवश्यकता थी। यह आवश्यक था क्योंकि पेसा को राज्य के पंचायती राज अधिनियम और राज्य विषय कानूनों के माध्यम से इसके कार्यान्वयन की आवश्यकता है। अधिसूचनाओं की एक श्रृंखला द्वारा, महाराष्ट्र के राज्यपाल ने यह सुनिश्चित किया कि इनमें से अधिकांश राज्य विधानों को पेसा के अनुरूप लाया गया। महाराष्ट्र के ये उदाहरण बताते हैं कि राज्यपाल चाहें तो अपनी भूमिका निभा सकते हैं।  
लेकिन महाराष्ट्र को छोड़कर कहीं राज्यपाल ने पहल नहीं की। तो क्या यह माना जाए कि आजादी के बाद जीतने भी राज्यपाल हुए सभी निष्क्रिय थे या संवैधानिक व्यवस्था में कोई पेंच है जिसकी वजह से राज्यपाल पाँचवीं अनुसूचित क्षेत्र में अपनी भूमिका नहीं निभा पाते हैं।इसमें दो राय नहीं कि राज्यपाल के विवेकाधीन अधिकारों को लेकर संवैधानिक और वैधानिक तौर पर असमंजस की स्थित है। हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में कई मामलों में राज्यपाल के पाँचवीं अनुसूचित क्षेत्र में विवेकाधीन अधिकार को अलग-अलग राय है। ज्यादातर लोगों की मान्यता है कि राज्यपाल को राज्य की मंत्री परिषद के सलाह एवं मंत्रणा से ही काम करना है। सिर्फ दो मामलों में उन्हें विवेकाधिकार है। एक तो सरकार बहुमत में या नहीं यह तय करने में और दूसरे जब उन्हें यूनिवर्सिटी के लिए कुलपति चुनना हो। यह भी मान्यता है कि संविधान पाँचवीं अनुसूचित क्षेत्र में राज्यपाल को स्वतंत्र निर्णय लेने का अधिकार देता है। 

महाराष्ट्र मॉडल      

महाराष्ट्र के अनुसूचित क्षेत्रों में लघु वन उपज के स्वामित्व हस्तांतरण और महाराष्ट्र लघु वन उपज (व्यापार की मान्यता) (संशोधन) अधिनियम, 1997 के तहत लघु वन उपज (एमएफपी) की परिभाषा में मान्यता प्राप्त कई लघु वन उपज शामिल नहीं हैं। बाद में अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006, (एफआरए) के तहत भी इसी परिभाषा को इस्तेमाल किया जा रहा था। इसलिए, पेसा के तहत निहित शक्तियों के बावजूद, ग्राम सभा तेंदू और बांस जैसे कई महत्वपूर्ण एमएफपी तक पहुंचने में सक्षम नहीं थी। अधिसूचना दिनांक 19/08/2014 द्वारा, महाराष्ट्र के राज्यपाल ने अनुसूचित क्षेत्रों में लघु वन उपज के स्वामित्व के महाराष्ट्र हस्तांतरण और महाराष्ट्र लघु वन उपज (व्यापार का विनियमन) (संशोधन) अधिनियम, 1997 में संशोधन किया। भारतीय वन अधिनियम,1927, महाराष्ट्र राज्य पर लागू होता है।
इन परिवर्तनों के कारण अनुसूचित क्षेत्रों में कई ग्राम सभाएँ बांस और तेंदू जैसे उच्च मूल्य वाले उत्पादों सहित लघु वन उपज पर अपने अधिकारों का प्रयोग करने में सक्षम हो गई हैं। एफआरए के अनुरूप इन अधिकारों का उपयोग करते हुए, गढ़चिरौली में 100 से अधिक ग्राम सभाओं ने पहली बार बांस पर अपने अधिकारों का प्रयोग किया है और 500 से अधिक ने तेंदू पर अपने अधिकारों का प्रयोग किया है और प्रति ग्राम सभा 10 लाख से 80 लाख तक की आय अर्जित की है।  
अनुसूचित क्षेत्रों में आदिवासी समुदाय लगातार जमीन खो रहे हैं और ऐसे क्षेत्रों में गैर-आदिवासी व्यक्तियों की तुलना में उनकी आबादी घट रही है। ऐसे क्षेत्रों में भूमि हस्तांतरण विभिन्न कारणों से होता है जैसे धमकी, जबरदस्ती, धोखाधड़ी, जालसाजी और जनजातीय व्यक्तियों की साहूकारों के प्रति सामान्य ऋणग्रस्तता। राज्य के राजस्व कानूनों को पेसा,1996 की धारा 4(एम)(iii) के अनुरूप लाने के लिए, संविधान की पांचवीं अनुसूची के पैराग्राफ 5 के उप पैराग्राफ (1) द्वारा प्रदत्त शक्तियों का प्रयोग करते हुए, 14 जून 2016 को महाराष्ट्र के राज्यपाल ने निर्देश दिया कि कोई भी भूमि ग्राम सभा की पूर्व सहमति के बिना अनुसूचित क्षेत्रों में स्थानांतरित नहीं किया जाएगा।
इतना ही नहीं 30 अकतूबर 2014 की अधिसूचना के माध्यम से महाराष्ट्र के राज्यपाल ने जनजातीय उपयोजना निधि का 5% ग्राम सभाओं को सीधे हस्तांतरित करने का प्रावधान किया गया। इसका लाभ उन सभी ग्राम सभाओं को मिल रहा है जिन गवों में जानजातीय आबादी 5 फीसदी से ज्यादा है। महाराष्ट्र के राज्यपाल ने आज़ाद भारत में पहली बार राज्यपाल के बारे इस आम धारणा को बदल दिया कि राज्यपाल रबर स्टाम्प होते हैं। 2010 के बाद लगभग एक दशक में महाराष्ट्र में पेसा कानून के बेहतर अनुपालन और आदिवासियों के अधिकारों और हितों की रक्षा के लिए एक दर्ज़न से ज्यादा अधिसूचनाएं जारी की। अफसोस है कि महाराष्ट्र के राज्यपाल की इन पहलकदमियों को अन्य राज्यों में अमल में नहीं लाया गया।      

*राज्यपाल संरक्षक हैं 

*राज्यपाल से अपेक्षा की गई थी कि वे कानूनों की समीक्षा करे और यदि कानून जनजातीय हितों के विरुद्ध हों तो उन कानूनों को जनजातीय क्षेत्रों में लागू न होने दें। उन्हें अधिकार दिया गया कि वे संसद या विधानसभा के किसी कानून को संशोधित, निलंबित या अपवाद सहित लागू कर सकते हैं। यानी राज्यपाल को ‘संविधान का प्रहरी’ घोषित किया गया था। पर क्या उन्होंने ऐसा किया? 
संविधान की पाँचवीं अनुसूची कहता है कि राज्यपाल हर वर्ष राष्ट्रपति को अनुसूचित क्षेत्रों की स्थिति पर रिपोर्ट देंगे। लेकिन यह रिपोर्टें या तो कभी भेजी ही नहीं गई या कॉपी-पेस्ट करके भेजी गई या इतनी देर से भेजी गईं कि तब तक गाँव उजड़ चुके थे। 2008 में संसद में एक सवाल पूछा गया था— कितने राज्यपालों ने रिपोर्ट भेजी? उत्तर आया — कुछ ने पिछले 10 सालों में एक भी रिपोर्ट नहीं भेजी। 2010 में स्वयं भारत सरकार ने स्वीकार किया कि राज्यपालों ने पाँचवीं अनुसूची के तहत अपनी संवैधानिक ज़िम्मेदारियाँ नहीं निभायी। डेढ़ दशक बाद भी स्थिति ज्यों की त्यों है।  

गाँव के साथ खड़ा होना था 

‘आपके पास क्या अधिकार है?’ यह सवाल उन ग्रामसभाओं से पूछा गया जिनके अधिकार संविधान की पाँचवीं अनुसूची में लिखे थे। राज्यपाल, जिन्हें ग्रामसभा के पक्ष में बोलना था —वे सत्ता के साथ खड़े रहे। जनजातीय परामर्शदात्री समिति, जिसे सरकार को सलाह देनी थी — वह सत्ता के इशारे पर चुप रही। और इस प्रकार, ‘संविधान सो गया… और गाँवों को नींद नहीं आई।‘ नतीजा क्या हुआ? खनन की लूट। राज्यपाल ने न तो जनजातीय परामर्शदात्री समिति को सक्रिय किया, न ही ग्रामसभा की सहमति सुनिश्चित करायी। इसका नतीजा, हजारों हेक्टेयर भूमि पर खनन लीज़ें बग़ैर ग्रामसभा की अनुमति के दी गईं। बिना ग्रामसभा की अनुमति स्कूल, सड़क, बाँध, रेल लाइनें, फैक्टरी बनीं, पाँचवीं अनुसूची के प्रावधानों का खुलेआम उल्लंघन हुआ। राज्यपालों की निष्क्रियता के कारण स्थानीय समुदायों को सूचना दिए बिना उजाड़ा गया। गाँव के गाँव उजड़ गए। और राज्यपाल की कलम चलने से पहले बुलडोज़र चल चुका होता था।
राज्यपाल सिर्फ प्रतीकात्मक पद नहीं है। पाँचवीं अनुसूची ने राज्यपाल को विशेष संरक्षक बनाया है ताकि केंद्र सरकार और आदिवासी समाज के हितों और अधिकारों को बीच संतुलन बनी रहे। वह जनजातीय परामर्शदात्री परिषद बनाए। और सबसे ज़रूरी — हर साल राष्ट्रपति को रिपोर्ट दे कि अनुसूचित क्षेत्रों में संविधान का पालन हो रहा है या नहीं। लेकिन सात दशकों की संवैधानिक यात्रा में यह साफ हो गया है कि राज्यपाल के लिए पाँचवीं अनुसूची एक 'ज़िम्मेदारी' नहीं, बल्कि एक औपचारिकता बन गई। गाँव उजड़ रहे थे, जंगल कट रहे थे, लेकिन राज्यपाल की कलम कभी नहीं उठी। राज्यपाल अक्सर सरकार के साथ खड़े होते हैं, न कि गाँव के साथ। आजादी के अमृत बेला में और झारखंड के रजत जयंती वर्ष में भी राज्यपालों की हालत यही है।
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