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9 जुलाई - श्रद्धांजलि : समकालीन परिप्रेक्ष्य में रमेश शरण के विचारों की प्रासंगिकता
नेहा प्रसाद
रमेश
शरण
केवल
एक
अर्थशास्त्री
,
शिक्षक
,
कार्यकर्ता
और
सुधारक
भर
नहीं
थे
;
उनकी
शख्सियत
बहुआयामी
थी।
उनके
व्यक्तित्व
में
बुद्धिमत्ता
,
संवेदनशीलता
,
साहस
,
ऊर्जा
और
दूरदृष्टि
का
दुर्लभ
समन्वय
था।
वे
विचारक
,
दार्शनिक
,
बौद्धिक
मार्गदर्शक
,
सक्षम
प्रबंधक
और
कुशल
प्रशासक
भी
थे।
उन्होंने
झारखंड
की
बौद्धिक
और
शैक्षणिक
परिदृश्य
पर
गहरी
छाप
छोड़ी
,
जो
आज
भी
प्रेरणा
का
स्रोत
है।
विपरीत
परिस्थितियों
और
सीमित
संसाधनों
के
बावजूद
,
उन्होंने
न
केवल
अपनी
प्रतिभा
सिद्ध
की
,
बल्कि
उत्कृष्टता
के
साथ
आगे
बढ़ते
हुए
एक
प्रेरणास्रोत
के
रूप
में
स्थापित
हुए।
उनका
आलोचनात्मक
चिंतन
,
संतुलित
दृष्टिकोण
,
और
विरोधाभासी
हितों
के
बीच
समन्वय
की
क्षमता
आज
भी
झारखंड
की
शैक्षणिक
एवं
सामाजिक
-
राजनीतिक
स्थिति
में
प्रासंगिक
बनी
हुई
है।
वे
मानते
थे
कि
शोध
और
शिक्षा
को
समाज
की
मूल
समस्याओं
से
जुड़ना
चाहिए
—
विशेषतः
झारखंड
जैसे
राज्य
में
,
जो
संसाधन
-
संपन्न
होते
हुए
भी
ऐतिहासिक
शोषण
का
शिकार
रहा
है।
उनके
शोध
ने
हाशिए
के
समुदायों
को
स्वर
दिया
,
सत्ता
के
केंद्रीकरण
को
प्रश्नांकित
किया
,
और
लोकतांत्रिक
संवाद
को
प्रोत्साहित
किया।
आज
जब
वैचारिक
बौद्धिकता
संकट
के
दौर
से
गुजर
रही
है
,
डॉ
.
शरण
का
जीवन
यह
प्रेरणा
देता
है
कि
एक
विद्वान
का
कार्य
केवल
शिक्षा
का
प्रसार
करना
ही
नहीं
होता
,
बल्कि
समाज
से
जुड़ना
,
सत्ता
से
प्रश्न
करना
,
और
अपने
सिद्धांतों
पर
अडिग
रहना
भी
उसकी
ज़िम्मेदारी
है।
वे
त्वरित
,
तर्कसंगत
और
संतुलित
प्रतिक्रियाओं
के
लिए
जाने
जाते
थे
,
और
अक्सर
विरोधी
विचारों
या
हितों
के
बीच
संवाद
और
समन्वय
की
राह
निकालते
थे।
वे
हमारे
जैसे
ही
एक
साधारण
इंसान
थे
—
जो
पीड़ा
,
क्रोध
और
निराशा
को
महसूस
करते
थे
,
पर
उन्हें
अभिव्यक्त
करने
का
उनका
तरीका
आत्मचिंतन
और
परिपक्वता
से
भरा
होता
था।
उन्होंने
जीवन
में
कई
असफलताओं
,
आलोचनाओं
,
अप्रत्याशित
विरोधों
,
विश्वासघातों
और
पारिवारिक
त्रासदियों
का
सामना
किया।
लेकिन
कभी
भी
इन
दुखों
को
स्वयं
पर
हावी
नहीं
होने
दिया।
अक्सर
यह
कहा
जाता
है
कि
विचारको
में
प्रशासनिक
कौशल
की
कमी
होती
है
,
लेकिन
डॉ
.
शरण
इसके
बिल्कुल
विपरीत
थे।
वे
न
तो
परंपराओं
से
बंधे
निष्क्रिय
प्रशासक
थे
,
न
ही
औपचारिकताओं
तक
सीमित।
वे
स्वतंत्र
निर्णय
लेने
वाले
,
सक्रिय
और
दूरदर्शी
नेतृत्वकर्ता
थे।
कुलपति
के
रूप
में
उनके
कार्यकाल
को
अक्सर
सतही
रूप
से
आंका
गया
,
किंतु
वस्तुतः
उन्होंने
संस्थागत
सुधार
के
लिए
स्पष्ट
और
साहसिक
निर्णय
लिए।
उन्होंने
तात्कालिक
लोकप्रियता
के
बजाय
दीर्घकालिक
संस्थागत
स्थायित्व
को
प्राथमिकता
दी।
उनका
प्रशासनिक
दृष्टिकोण
नियमबद्धता
,
प्रक्रियागत
अनुशासन
और
शैक्षणिक
स्वायत्तता
पर
आधारित
था
जो
आज
भी
झारखंड
जैसे
नवगठित
राज्य
की
उच्च
शिक्षा
प्रणाली
के
लिए
अत्यंत
आवश्यक
है।
उन्होंने
वर्षों
से
चली
आ
रही
निष्क्रियता
को
चुनौती
दी
और
सतही
लोकप्रियता
के
बजाय
स्थायी
व
संरचनात्मक
परिवर्तन
को
प्राथमिकता
दी।
संस्थागत
अव्यवस्था
और
अविश्वास
के
बीच
भी
,
उन्होंने
निर्णय
प्रक्रिया
को
भय
या
पक्षपात
से
मुक्त
रखते
हुए
सिद्धांतों
पर
आधारित
एक
स्वतंत्र
और
लोकतांत्रिक
प्रशासनिक
संस्कृति
का
निर्माण
किया।
नीति
-
निर्माण
से
जुड़े
विषयों
-
आदिवासी
अर्थव्यवस्था
,
वित्तीय
विवेक
,
विस्थापन
,
लैंगिक
समानता
और
मानव
विकास
—
पर
डॉ
.
शरण
का
ज्ञान
अत्यंत
गहरा
और
अनुभवसंपन्न
था।
यद्यपि
उन्हें
औपचारिक
नीति
-
निर्माण
प्रक्रियाओं
में
अपेक्षित
भूमिका
नहीं
मिली
,
फिर
भी
उनकी
विश्लेषणात्मक
दृष्टि
ने
झारखंड
में
विकास
से
जुड़े
शैक्षणिक
विमर्श
और
नागरिक
समाज
की
बहसों
को
सार्थक
दिशा
प्रदान
की।
आज
जब
ज्ञान
का
बाजारीकरण
,
राजनीतिक
अस्थिरता
,
संस्थागत
जड़ता
और
सामाजिक
विरोधाभासों
का
युग
है
,
तब
वे
मूल्य
जिन
पर
उन्होंने
अपना
जीवन
जिया
—
जैसे
स्पष्ट
चिंतन
,
नैतिक
प्रतिबद्धता
,
छोटे
लेकिन
ठोस
कदमों
में
विश्वास
और
बौद्धिक
साहस
पहले
से
कहीं
अधिक
आवश्यक
हो
गए
हैं।
उनके
दृष्टिकोण
में
आज
के
विमर्श
और
कार्यनीति
के
लिए
महत्वपूर्ण
सबक
हैं
—
चाहे
वह
संसाधनों
पर
नियंत्रण
हो
,
विकास
के
लाभों
का
न्यायसंगत
वितरण
,
लैंगिक
न्याय
,
समानता
,
या
समावेशी
विकास
की
दिशा
में
प्रयास।
आज
जब
हम
उनके
विचारों
और
दृष्टिकोण
को
नए
संदर्भ
में
देख
रहे
हैं
,
यह
स्पष्ट
होता
है
कि
वे
कई
मायनों
में
समय
से
आगे
सोचते
थे।
आज
झारखंड
और
भारत
जिस
नीतिगत
भ्रम
,
शैक्षणिक
संकट
और
संस्थागत
अस्थिरता
का
सामना
कर
रहे
हैं
,
उसमें
उनकी
बातें
और
अधिक
प्रासंगिक
प्रतीत
होती
हैं।
वे
एक
प्रबल
आशावादी
थे
,
जो
युवाओं
को
सकारात्मक
सोच
और
स्वतंत्र
विचार
के
लिए
प्रेरित
करते
थे।
उनका
सपना
था
कि
झारखंड
की
शासन
व्यवस्था
को
मजबूत
किया
जाए
,
इसके
लिए
उन्होंने
वित्तीय
अव्यवस्थाओं
को
सुधारने
,
राजस्व
की
कमी
को
दूर
करने
,
नौकरशाही
को
नियंत्रित
करने
,
भूमि
सुधार
लागू
करने
और
समावेशी
विकास
के
लिए
दूरदर्शी
योजनाएं
तैयार
करने
की
दिशा
में
सोच
विकसित
की।
उनकी
दूरदर्शिता
,
विवेक
और
विश्लेषणात्मक
स्पष्टता
वर्षों
की
मेहनत
,
नैतिक
सुदृढ़ता
,
सामुदायिक
जुड़ाव
और
गहन
दृष्टिकोण
का
परिणाम
थी
जो
न
तो
आसानी
से
दोहराई
जा
सकती
है
,
और
न
ही
पूरी
तरह
किसी
और
को
सौंपी
जा
सकती
है।
फिर
भी
,
उन्होंने
अपने
छात्रों
में
अपनी
बौद्धिक
विरासत
को
प्रभावी
ढंग
से
संप्रेषित
किया
,
जो
स्वतंत्र
चिंतन
,
नैतिक
प्रशासन
और
सामाजिक
भागीदारी
के
उनके
दृष्टिकोण
को
आगे
बढ़ा
रहे
हैं।
उनकी
अनुपस्थिति
केवल
उनके
किए
गए
योगदान
के
कारण
नहीं
खलती
,
बल्कि
इसलिए
भी
कि
उनमें
भविष्य
के
लिए
भी
अत्यंत
मूल्यवान
योगदान
देने
की
अपार
संभावनाएँ
थीं।
किसी
राज्य
की
प्रगति
उसके
मानवीय
संसाधनों
की
गुणवत्ता
,
दृष्टि
और
प्रतिबद्धता
पर
निर्भर
करती
है।
यह
आवश्यक
है
कि
समाज
ऐसे
व्यक्तित्वों
को
उनके
जीवनकाल
में
ही
ही
यथोचित
भूमिका
दी
जाए।
यह
केवल
एक
व्यक्ति
की
क्षति
नहीं
है
,
बल्कि
उस
बौद्धिक
परंपरा
की
क्षति
भी
है
,
जो
प्रदर्शन
की
बजाय
विचार
की
गहराई
और
लोकप्रियता
की
तुलना
में
सशक्त
वैचारिक
प्रक्रिया
को
प्राथमिकता
देती
थी।
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