जब दुनिया भर में जलवायु परिवर्तन पर वैज्ञानिक और नीति निर्माता माथापच्ची कर रहे हैं, झारखंड और उसके आसपास के आदिवासी गाँवों में हर साल भादो महीने की एकादशी को एक पर्व मनाया जाता है—करम पर्व।
पहली नज़र में यह धार्मिक या सांस्कृतिक उत्सव प्रतीत होता है, लेकिन इसकी परंपराएँ और संदेश आज की सबसे बड़ी चुनौती—जलवायु संकट के खिलाफ एक ठोस सामुदायिक रणनीति प्रस्तुत करते हैं।
21वीं सदी में जलवायु परिवर्तन सम्पूर्ण मानवता के लिए सबसे जटिल, बहुआयामी और गहरा संकट बनकर सामने आया है। यह केवल वैज्ञानिक या तकनीकी चुनौती नहीं है, बल्कि आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, मानसिक और नैतिक संकट भी है। भारत जैसे विकासशील देशों में—जहाँ 60% आबादी कृषि और प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर है—जलवायु असंतुलन सीधे जीवन, आजीविका और भविष्य को प्रभावित कर रहा है।
तेज़ी से बदलती जलवायु हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि क्या हम केवल आधुनिक तकनीक से इस संकट का सामना कर पाएँगे, या फिर हमें अपने समाज और संस्कृति में मौजूद पारंपरिक ज्ञान और सामुदायिक चेतना से भी रास्ता तलाशना होगा। इसी संदर्भ में आदिवासी समाज का करम पर्व जलवायु संकट के खिलाफ एक वैकल्पिक सोच और सामुदायिक मॉडल प्रस्तुत करता है।
जलवायु और आदिवासी परंपराओं पर काम कर रहे सामाजिक कार्यकर्ता अंजला कुल्लू कहती हैं कि
“करम पर्व हमें याद दिलाता है कि जलवायु न्याय केवल कार्बन कटौती का मामला नहीं है, बल्कि यह सामाजिक न्याय और सांस्कृतिक परंपरा से भी जुड़ा है।” रांची यूनिवर्सिटी के एक प्रोफेसर का कहना है—
“करम पर्व को केवल लोक-नृत्य या धर्म के चश्मे से देखना भूल होगी। यह असल में आदिवासी समाज का जलवायु संविधान है।”
करम पर्व एक सांस्कृतिक आयोजन भर नहीं, बल्कि जलवायु परिवर्तन के खिलाफ एक वैकल्पिक लोकमंत्र है। यह बताता है कि सामूहिक श्रम और आस्था से बड़े संकटों का हल निकाला जा सकता है। महिलाओं और बच्चों की भागीदारी से सतत भविष्य सुरक्षित हो सकता है। लोकगीत और लोककथा, जलवायु शिक्षा के सबसे सशक्त माध्यम हो सकते हैं। करम पर्व हमें यह सोचने को मजबूर करता है कि जलवायु संकट के दौर में समाधान सिर्फ़ ग्लोबल कॉन्फ्रेंस रूम में नहीं, बल्कि गाँव की मिट्टी, बीज और सामुदायिक उत्सवों में भी मिल सकता है।
करम पर्व क्या है?
झारखंड, बिहार, छत्तीसगढ़, ओडिशा और बंगाल के आदिवासी समुदायों का यह प्रमुख त्योहार प्रकृति पूजा पर आधारित है। गाँव की स्त्रियाँ और बच्चे धान, मक्का और ज्वार जैसे बीज अंकुरित करते हैं। फिर गाँव के बीचोंबीच करम वृक्ष की डाली स्थापित की जाती है। इसकी मुख्य विशेषता करम वृक्ष की पूजा है। करम (नौवां) वृक्ष को जीवन, हरियाली और सततता का प्रतीक मानकर पूजते हैं। बीज बोने और अंकुरित करने की परंपरा इस पर्व में शामिल है। बच्चे और महिलाएँ अनाज (धान, मक्का, ज्वार आदि) को अंकुरित करती हैं। यह खाद्य सुरक्षा और बीज संरक्षण की सामूहिक शिक्षा है।
सामुदायिक अखड़ा और नृत्य-गीत इस पर्व का अभिन्न हिस्सा है। गाँव के सभी बच्चे, युवा, बुजुर्ग, स्त्रियाँ—एक साथ जुटते हैं और प्रकृति-गीत गाते हैं। गीत, नृत्य और लोककथाओं के बीच यह संदेश दिया जाता है कि प्रकृति का अपमान करोगे तो संकट आएगा, उसका सम्मान करोगे तो जीवन बचेगा। प्रकृति का अपमान करने पर संकट आता है और उसका सम्मान करने पर समृद्धि।
करम पर्व और जलवायु परिवर्तन: सामुदायिक पहल का मॉडल
करम पर्व एक सांस्कृतिक आयोजन भर नहीं, बल्कि जलवायु परिवर्तन के खिलाफ एक वैकल्पिक लोकमंत्र है। करम पर्व हमें यह सोचने को मजबूर करता है कि जलवायु संकट के दौर में समाधान सिर्फ़ ग्लोबल कॉन्फ्रेंस रूम में नहीं, बल्कि गाँव की मिट्टी, बीज और सामुदायिक उत्सवों में भी मिल सकता है। भारत ने 2070 तक नेट-जीरो का लक्ष्य रखा है और नवीकरणीय ऊर्जा में निवेश तेज़ किया है। लेकिन जमीनी स्तर पर जब तक स्थानीय समुदाय शामिल नहीं होंगे, बदलाव अधूरा रहेगा।
स्थानीय भागीदारी और साझा जिम्मेदारी: करम पर्व बताता है कि पर्यावरण संकट का हल केवल सरकारी योजनाओं या तकनीकी उपायों से नहीं निकलेगा। जब पूरा गाँव वृक्षारोपण, बीज संरक्षण और जलस्रोतों की सफाई में जुटता है, तो यह सामुदायिक स्तर पर जलवायु प्रतिरोध का मजबूत आधार बनाता है।
पारंपरिक ज्ञान और आधुनिक विज्ञान का संगम: करम पर्व की परंपराएँ—बीज संरक्षण, विविध फसलों की खेती, जलस्रोतों की रक्षा—आज के सतत विकास लक्ष्य(एसडीजी) से मेल खाता है। आधुनिक जलवायु नीति यदि इन पारंपरिक तौर-तरीकों को अपनाए, तो ज्यादा टिकाऊ और समावेशी समाधान संभव होंगे।
महिला नेतृत्व और पीढ़ियों का संवाद: महिलाएँ करम पर्व में अनाज अंकुरित करने, पूजा की तैयारी और बच्चों को लोककथाएँ सुनाने में केंद्रीय भूमिका निभाती हैं। यह इको-फेमिनिज़्म का जीवंत रूप है, जहाँ महिलाएँ जीवन और प्रकृति को जोड़ने वाली सेतु बनती हैं।
नैतिकता, आशा और सहयोग का संदेश: जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न निराशा और पलायन की स्थितियों में करम पर्व यह संदेश देता है—"वन-जंगल-जमीन का सम्मान करो, तभी जीवन बचेगा।" यह सामाजिक सहयोग, श्रम और सामूहिकता की शिक्षा देता है।
राष्ट्रीय नीति और करम पर्व से सीख: भारत वैश्विक क्लाइमिट परफॉरमेंस इंडेक्स 2023 में 8वें स्थान पर है। यह नवीकरणीय ऊर्जा, उत्सर्जन नियंत्रण और जलवायु नीति में सुधार का नतीजा है। लेकिन केवल नीतियाँ काफी नहीं हैं। जब तक स्थानीय समुदाय सक्रिय भागीदारी नहीं निभाएँगे, समाधान अधूरा रहेगा।
करम पर्व से प्रेरणा लेकर कई कदम उठाए जा सकते हैं। इनमें पंचायतों और महिला समूहों को सामुदायिक वृक्षारोपण, बीज बैंक और जलस्रोत संरक्षण की जिम्मेदारी देना हो सकता है। आदिवासी ज्ञान पर आधारित जलवायु शिक्षा को स्कूल पाठ्यक्रम में शामिल करने की दिशा में पहल की जा सकती है। करम पर्व जैसे सामुदायिक आयोजनों को “लोक-पर्यावरण अभियान” के रूप में संस्थागत समर्थन देने की मुहिम होनी चाहिए। वनाधिकार एवं पेसा कानूनों को मज़बूती से लागू करना ताकि स्थानीय समुदाय जंगल और जल-जमीन की रक्षा कर सकें, इसे प्रोत्साहित करने की रणनीति होनी चाहिए।
बढ़ते खतरे व निर्णायक आँकड़े
वर्ल्ड मौसम विज्ञान संगठन की रिपोर्ट के अनुसार, 2023 में औसत वैश्विक तापमान 1.45°C (±0.12°C) बढ़ चुका है, और लगातार ब्रेक होते रिकॉर्ड चिंता बढ़ाते जा रहे हैं। ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में भारत 7% हिस्सेदार है, जबकि देश की जनसंख्या वैश्विक आबादी का 17% है। साल 2023 में जलवायु के असर से भारत को 141 अरब डॉलर (11.5 लाख करोड़ रु.) का सीधा आर्थिक नुकसान हुआ—जो किसानों, शहरी गरीबों, छोटे कारोबारियों और बुजुर्गों के लिए सबसे बड़ी विपदा रही। लैंसेट की "काउंटडाउन रिपोर्ट" कहती है कि हीटवेव से अकेले भारत में 181 अरब कामकाजी घंटे बर्बाद हुए। नीतिआयोग के मुताबिक 60 करोड़ भारतीय पहले से ही जल संकट झेल रहे हैं। यानी संकट केवल भविष्य की आशंका नहीं, बल्कि वर्तमान की सच्चाई है।
भारत की 60% आबादी अर्थात लगभग 84 करोड़ लोग वर्षा पर निर्भर कृषि से जुड़े हैं; अतः मौसम की अनिश्चितता इनकी आजीविका को सीधा प्रभावित करती है। 17 करोड़ लोग तटीय क्षेत्रों में रहते हैं, जहाँ समुद्र-स्तर वृद्धि, चक्रवात और तटीय भूखण्ड क्षरण आने वाले वर्षों में उनकी आजीविका और मकान जोखिम में डाल देंगे। 1998-2017 के दौरान, भारत का जलवायु-विपदा अनुबंधित आर्थिक नुकसान 79.5 अरब डॉलर हुआ; यदि इंतजाम न किए गए, तो 2100 तक सालाना GDP का 3-10% नुकसान संभव है। सुंदरबन के 80% मैंग्रोव 2100 तक विलुप्त हो सकते हैं—यह जैव विविधता और तटीय सुरक्षा दोनों के लिए अलार्मिंग है। स्पष्ट है कि जलवायु परिवर्तन का भार सबसे अधिक गरीबों, किसानों, आदिवासियों, महिलाओं और बच्चों पर पड़ रहा है।
करम पर्व का संदेश
जलवायु परिवर्तन के विरुद्ध टिकाऊ लड़ाई केवल सरकारी योजनाओं, अंतरराष्ट्रीय घोषणाओं या तकनीकी समाधान-आधारित प्रयासों तक सीमित नहीं रहनी चाहिए। इसका सबसे सशक्त और स्थायी जवाब सामुदायिक चेतना, परंपरा और व्यवहारिक पहल में छुपा है।
आदिवासी समाज द्वारा सदियों से जीवित रखा गया कर्म पर्व इसका प्रमाण है—यह पर्व केवल प्रकृति-पूजन नहीं, बल्कि लोक आधारित, स्थानीय, पर्यावरण-संवेदी, शिक्षा एवं नीतिगत हस्तक्षेप के लिए जीवंत मॉडल है। भारत ही नहीं, दुनिया के तमाम जलवायु आंदोलनों के लिए गाँव, गरीब, आदिवासी, महिला, किसान—इनकी भागीदारी और नेतृत्व वाला कर्म पर्व जैसे आयोजन अनुकरणीय हैं।
"धरती का सम्मान करें–तरक्की की गारंटी पाएं"–यह भाव, संस्कृति और नीति दोनों के लिए आज का सर्वोत्तम मूलमंत्र है। जब तक स्थानीय समुदाय, संस्कृति, स्त्रियाँ और युवा प्रकृति-संग स्वस्थ संबंध नहीं बनाएंगे, किसी भी जलवायु नीति की सफलता अधूरी रहेगी।