सामुदायिक स्वामित्व नहीं है सभी ट्राइबल लैंड का 

सुधीर पाल 



‘हमारा युग आ गया है। तुम लोगों को मैं देश लौटा दूंगा। हमारे राज में खेत-खेत के बीच में मेड़ें नहीं होंगी। पूरी धरती सबकी है। पूरी खेती एक साथ होगी। सारी खेती सबकी होगी। अगर हाथ उठाकर हाथ में कोई फसल दे भी दे तो भी मेरे राज में कोई मुंडा अकेले मालिक नहीं होगा। मेरे राज में लड़ाई न रहेगी।’ (जंगल के दावेदार, महाश्वेता देवी, पृष्ट सं 157 )।  

भले बिरसा ने जमीन पर सामुदायिक स्वामित्व को देखा, समझा और जिया और इसे ही पुनः बहाल करने का आंदोलन छेड़ा था लेकिन अंग्रेजों ने जमीन के सामुदायिक स्वामित्व की अवधारणा से एकदम उलट पहल की। उलगुलान के खत्म होने और उनकी मृत्यु के तुरंत बाद अंग्रेजों ने मुंडा के विद्रोह को शांत करने के लिए जे. रीड के नेतृत्व में कैडेस्ट्रल सर्वे 1902–1910 की शुरुआत की। 1899-1900 का उलगुलान सिर्फ विद्रोह नहीं था, बल्कि स्वामित्व के अधिकार की लड़ाई भी थी। अंग्रेज़ सरकार ने इसे देखते हुए आदिवासियों को 'रैयत' घोषित किया और उन्हें व्यक्तिगत पट्टे दिए। यह कदम सामुदायिक स्वामित्व की अवधारणा से हटकर था, लेकिन इस पर कोई संगठित विरोध नहीं हुआ।

आजादी के बाद विकास योजनाओं के चलते अकेले झारखंड के इलाकों से 5 लाख से ज्यादा आदिवासियों के जमीन से विस्थापित होने और आधे-अधूरे ढंग से ही सही लगभग 10 हजार करोड़ रुपए बतौर मुआवजा देने के आँकड़ें हैं।इनके नाम पर जमीन के व्यक्तिगत स्वामित्व का पट्टा था। झारखंड सरकार ने 205537 आदिवासी परिवारों को अबुआ आवास आवंटित किया है। ये सभी रैयत हैं और योजना के तहत व्यक्तिगत स्वामित्व की अहर्ता पूरा करते हैं। 

स्वामित्व का इतिहास 

बंगाल, बिहार और उड़ीसा की दीवानी तो कंपनी के हाथ लग गयी थी लेकिन कंपनी की क्षमता और दक्षता जमीन जैसे जटिल विषय को संभालने की नहीं थी। कंपनी के आने के पहले तक जमीन को जोतने वाला जमीन का मालिक भी था। जमीन की मिल्कियत पर राजाओं और उनके जागीरदारियों का कोई दावा नहीं था। उन्हें वही मिलता था जो उनका वाजिब हक बनता था। इंग्लैंड में जमीन व्यक्ति की निजी सम्पति होती होती थी। उसे वह खरीद सकता था,बेच सकता था, गिरवी रख सकता था। 
आदिवासी परम्परा में जमीन सहित सभी प्राकृतिक संसाधन लोगों के लिए उनकी जिंदगी चलाने के साधन माने जाते थे, सम्पति नहीं। कोई व्यक्ति किसी भी भूमि के केवल उत्पादन का ही लाभ उठा सकता था। अन्य वस्तुओं की तरह जमीन को ना तो बेचा जा सकता था और ना ही खरीदा जा सकता था। हाँ, एक पुश्त से दूसरे पुश्त तक व्यक्तिगत आधार पर जमीन की मिल्कियत की प्रथा का प्रचलन था। 

आदिवासी भूमि की कानूनी यात्रा

झारखंड में भूमि संबंधों की बुनियादी समझ 18वीं सदी से शुरू होती है। स्वामित्व के क़ानूनी अधिकार और परम्परागत अधिकार के बीच का फर्क छोटानागपुर में अलग-अलग गांवों में देखे जा सकते हैं। रांची के दक्षिण और दक्षिण-पश्चिम में मुंडाओं के खूंटकट्टी गाँव थे। इनमें गाँव की जमीन पर स्वामित्व का अधिकार गाँव को बसाने वाले खूंट(वंश) के संयुक्त पितृ-सत्तात्मक अधिकार के रूप में विकसित हुआ था। खूंट के सभी परिवार-सदस्यों को गाँव की जमीन, जंगल और गैर-आबाद जमीन पर हर तरह का सामूहिक अधिकार था। अपने ऊपर के मालिक (राजा) को ये सिर्फ नाम मात्र का चंदा (लगान नहीं) देते थे और किसी तरह की बेठ-बेगारी या कोई अलेहदगी (बंटवारा) नहीं देते थे। छोटानागपुर में गांवों की व्यवस्था आलेख में प्रभु महापात्रा लिखते हैं कि सर्वे सेटलमेंट का काम शुरू होने के समय रांची जिले के 156 खूंटकट्टी गांवों पर मुंडा खूंट-कट्टीदारों का सामूहिक स्वामित्व मिला। ये खूंट-कट्टीदार गाँव को बसाने वाले मुंडाओं के पिता की ओर से आये सीधे उत्तराधिकारी थे। 

गाँव में ऐसे लोग रह सकते थे जो खूंटकट्टीदार नहीं थे, उन्हें परजा कहा जाता था। वे सामूहिक रूप से खूंटकट्टीदारों को लगान देते थे। खूंटकट्टीदार अपने ऊपर के अधिकारी को सिर्फ एक निश्चित रकम चंदा के रूप में देते थे। गाँव का अन्दुरुनी इंतजाम, परजा को बसाने, जंगल, पेड़ और गैर-आबाद जमीन का बंदोबस्त करने का सारा अधिकार सामूहिक रूप से सिर्फ खूंटकट्टीदारों को था।      

गाँव के प्रशासनिक मामलों में खूंटकट्टीदारों का प्रतिनिधित्व गाँव का मुंडा करता था और धार्मिक मामलों में पाहन। दोनों ही गाँव को बसाने वाले मूल बाशिंदों के उतराधिकारी होते थे। लेकिन दोनों  को ही अपने काम के बदले में किसी तरह की जमीन या दूसरा कोई विशेषाधिकार नहीं होता था। होफमैन ने लिखा है कि खूंटकट्टी गाँव आमतौर पर दो समूहों में मुंडा खूंट और पाहन खूंट में विभाजित होता था। 

भूइंहरी सेटलमेंट (1869-1880 )

छोटानागपुर में कुछेक जमीन पर स्वामित्व या अधिकार को सुनिश्चित, नियमित एवं अभिलिखित करने का अलग अधिनियम है। इसे छोटानागपुर भूधृत्ति अधिनियम, 1869, (बंगाल अधिनियम संख्या 11), (17 मार्च, 1869), के नाम से जानते हैं। ऐसी भूधृति (भूमि पर स्वामित्व या अधिकार) को भुईहरी जमीन के नाम से जानते है। इसका वास्ता गाँवों को स्थापित करने वाले उन मूलवासियों के वंशज से है जहाँ इस तरह की जमीन अवस्थित हैं। इसके अलावा कुछेक भूधृत्तियाँ को 'भूतखेत', 'डलीकटारी' एवं 'पहनई' नाम से जाना जाता है। पाहन' या पुजारी के लिए अलग से जमीन रखी जाती है ताकि वह अपने कर्त्तव्यों का पालन एवं अनुरक्षण कर सके। कुछेक भूधृति (भूमि पर स्वामित्व या अधिकार) ‘महतोई’ के नाम से जाना जाता है।यह मूलतः गाँव के 'महतो' या लगान जमाकर्ता के नाम आबंटित हैं। 

कुछ भू-धृत्तियाँ 'मंझिहस' नाम से चिन्हित हैं। यह उन गाँवों के अपने-अपने स्वत्वधारियों के उपयोग के लिए आरक्षित एवं उनके पूर्ण नियंत्रण में है। 'मंझिहस' जमीनों पर काम करने वाले के पारिश्रमिक के लिए नियत जमीन को 'बेठखेत' नाम से जाना जाता है। मतभेदों के चलते यह वांछनीय हो गया था कि इन धृत्तियों को परिभाषित एवं अभिलिखित कर ऐसे सभी विशेषाधिकारों, छूट एवं दायित्वों का एक पंजी बनाया जाय। 

रखाल दास हालदार (1869-1880 ) के नेतृत्व में जमीन को अभिलिखित करने का पहला प्रयास हुआ। खासकर आदिवासियों की ज़मीनों को सामुदायिक मानकर दर्ज़ किया गया। यह सर्वे मुख्यतः जंगलों को काटकर बसाए गए भूइंहरी गांवों तक सीमित था। भूइंहरी  झारखंड की आदिम भूमि-व्यवस्था (खुटकट्टी) का पुरातन अवशेष है। इसका दायरा पुरानी रांची जिला तक ही सीमित है। 1880 के पश्चात् कोई भी भुईंहरी टेन्योर (भूधृत्ति) की अनुमति नहीं है। भुईहरी जमीन सिर्फ पुराने रांची जिला के 2482 गांवों में है। यह मुण्डारी खूँटकट्टी का ही एक रूप है। यह बिहार भूमि सुधार अधिनियम के, 1950 के दायरे में नहीं आता है। 

सामुदायिक और रैयती जमीन की बुनियाद 

रीड के कैडेस्ट्रल सर्वे (1902-1910) ने रांची क्षेत्र में ज़मीन पर व्यक्तिगत स्वामित्व की नींव डाली। रैयती खाते (खातियान) अस्तित्व में आए, जिनमें व्यक्तिगत मालिकाना दर्ज हुआ। यह सर्वे व्यक्तिगत खतियान प्रणाली की शुरुआत करता है। रांची क्षेत्र में इस सर्वे ने ज़मीन पर व्यक्तिगत स्वामित्व की नींव डाली। रैयती खाते (खतियान) अस्तित्व में आए, जिनमें व्यक्तिगत मालिकाना दर्ज हुआ। व्यक्तिगत खतियान प्रणाली आदिवासियों की परंपरागत समझ से एकदम इत्तर था। सामुदायिक स्वामित्व की जगह व्यक्तिगत स्वामित्व को दर्ज़ किया जाने लगा। आदिवासियों ने इस सर्वे की प्रक्रिया को ना तो समझा और ना ही इसका विरोध किया। आदिवासी इलाकों में  जमीन को निजी बनाने और रैयती घोषित करने का यह पहला कदम था। 

एफ.ई.टेलर के रिविजनल सर्वे (1927-1935) में सामुदायिक व रैयती दोनों तरह की ज़मीनों को रिकॉर्ड किया गया। सरना, मसना, जाहेर, पहनई, भूतखेत, जंगल-झाड़ जैसी सामुदायिक ज़मीनें 'रजिस्टर दो' व 'विलेज नोट' में दर्ज हुईं। यह सर्वे रांची जिला में हुआ। अन्य जिलों में अलग-अलग समय में रिविजनल सर्वे हुए हैं।   
झारखंड में आज लगभग 2482 भूइंहरी गांव और 150 खूंटकट्टी गांव हैं, जहां सामुदायिक स्वामित्व की मान्यता है। लेकिन ये पूरे राज्य का सिर्फ एक छोटा हिस्सा हैं। इनके अलावा अधिकांश ज़मीनें रैयती प्रकृति की हैं — यानी व्यक्तिगत मालिकाना, जो दस्तावेज़ों में साफ तौर पर दर्ज है। सामुदायिक ज़मीनें कौन-सी हैं? भूइंहरी/खूंटकट्टी गांवों में स्थित महतोई, पहनई, पनभरवा, डलिकटारी आदि है। ये ज़मीनें गांव के सामुदायिक उपयोग (जैसे – मेला, उत्सव, सामूहिक खेती, जल स्रोत आदि) के लिए आरक्षित हैं। इन जमीनों का रजिस्ट्रेशन या बिक्री नहीं होता (या नहीं होनी चाहिए), फिर भी अवैध हस्तांतरण जारी है।
रैयती ज़मीनें, जो व्यक्तिगत खातों में दर्ज हैं। इस तरह की जमीन की खरीद-बिक्री, मुआवज़ा, बंटवारा, नामांतरण जैसी सारी प्रक्रियाएं व्यक्तिगत स्तर पर होती हैं। एक ही थाना क्षेत्र में आदिवासी-से-आदिवासी ज़मीनों की नियमित ख़रीद-बिक्री की जाती है। झारखंड का लगभग 90% भूमि भाग रैयती अधिकारों के तहत है, जहाँ भूमि व्यक्तिगत खतियान में दर्ज है। 

यह मान्यता कि आदिवासी समाज में सारी ज़मीन सामूहिक स्वामित्व की है — एक मिथक है, जिसे या तो अज्ञानता से बोला गया है या सुविधाजनक पितृसत्ता ने पोषित किया है। ‘सामूहिकता’ आदिवासी जीवन-दर्शन का आधार रहा है पर ज़मीन की असली तासीर अब निजी स्वामित्व, पितृसत्ता और सत्ता समीकरणों के इर्द-गिर्द घूम रही है। 
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