गिग वर्कर्स यानी पतंग-सी जिंदगी   

सुधीर पाल 



क्विक कॉमर्स का वादा है- ‘मिनटों में डिलीवरी।‘ जब तक आपके गैस स्टोव पर पानी गरम होगा दाल.... चावल.... चाय जो चाहिए आपके पास हाजिर हो जाएगा। बिल्कुल अलादीन के चिराग की तरह बिग बास्केट, बिलिंककिट जैसे क्विक कॉमर्स ग्राहकों की सेवा में उपलब्ध है। ग्राहक को लगता है कि तकनीक ने जीवन आसान कर दिया। लेकिन उस आसान जीवन के पीछे लाखों गिग वर्कर्स का कठिन जीवन छिपा है।

शहर के फुटपाथ पर खड़े गिग वर्कर को देखिए। पीठ पर बैग है, मोबाइल हाथ में, और आँखें स्क्रीन पर टिकी हैं—कब “ऑर्डर अलर्ट” बजेगा। कभी-कभी पूरा दिन खड़ा रह जाता है, ऑर्डर नहीं आता। सोचिए-बारिश में भीगते हुए, तपती धूप में काली सड़क पर भागते हुए, रात 11 बजे तक डिलीवरी करते युवक की स्थिति क्या है? उसे हर ऑर्डर पर केवल कुछ रुपये मिलते हैं। कभी दिनभर खड़ा रहता है, पर ऑर्डर नहीं आता। कभी कंपनी बिना सूचना दिए उसकी आईडी बंद कर देती है। इस मॉडल ने मजदूर से उसकी सामाजिक सुरक्षा छीन ली है। अब वह न कर्मचारी है, न व्यवसायी। वह बस डिजिटल स्क्रीन पर एक अस्थायी आईडी है—जिसे कभी भी बंद किया जा सकता है।

गिग वर्कर वे लोग हैं जो किसी कंपनी के स्थायी कर्मचारी नहीं होते। न उनका कॉन्ट्रैक्ट लम्बा होता है, न उन्हें मजदूर मानकर कानूनों का लाभ दिया जाता है। वे केवल डिजिटल श्रम करते हैं, और उनकी मजदूरी हर ऑर्डर, हर राइड, हर डिलीवरी पर निर्भर करती है। देखने में यह काम लचीला लगता है। “जब चाहो काम करो” जैसी बात सुनकर युवक खुश होता है। पर हकीकत बेहद कठोर है—काम का कोई तय समय नहीं, छुट्टी का अधिकार नहीं, और भविष्य की कोई सुरक्षित ज़मीन नहीं।

गिग इकॉनमी का जन्म और फैलाव

21वीं सदी में इंटरनेट और स्मार्टफोन ने एक नई अर्थव्यवस्था खड़ी की। उबर, ओला, स्विग्गी, जोमैटो और अमेज़न जैसी कंपनियों ने लचीले काम का सपना बेचा। भारत में इसका तेज़ी से विस्तार हुआ। नीति आयोग की 2023 की रिपोर्ट कहती है कि 2020 में हमारे यहाँ 77 लाख गिग वर्कर्स थे, जो 2023 में बढ़कर 1.5 करोड़ हो गए। केवल झारखंड में ही करीब 12 लाख युवा इस श्रम-तंत्र में खींचे चले आए। यानी यह अब केवल शहर की कहानी नहीं रही, बल्कि गाँव से सीधे प्लेटफॉर्म तक पहुँच गया। मजदूर की पहचान बदल गई—पहले वह खदान या फैक्ट्री में दिखता था, अब वह मोबाइल एप पर ‘आईडी’ बनकर दर्ज है।

हालांकि यह रोजगार के नए अवसर प्रदान करता है, किंतु गिग कार्य से जुड़ी असुरक्षाएं श्रमिकों के जीवन को कठिन बना रही हैं। गिग श्रमिकों को न्यूनतम वेतन, कार्य के घंटों की सीमा, या किसी भी प्रकार की सामाजिक सुरक्षा का लाभ नहीं मिलता। इसके अलावा, श्रमिकों को अनुबंध आधारित कार्य करने के कारण वे किसी स्थायी नौकरी या पेंशन के लिए भी पात्र नहीं होते।
गिग श्रमिकों के अधिकारों की सुरक्षा के लिए सीआईटीयू से सम्बद्ध ऑल इंडिया गिग वर्कर्स यूनियन ने लगातार  आवाज उठाई है और आंदोलन के जरिए कई राज्यों मे सामाजिक सुरक्षा के अधिकार हासिल किए हैं । इनका मानना है कि गिग श्रमिकों को भी स्थायी श्रमिकों की तरह अधिकार मिलना चाहिए, जैसे कि न्यूनतम वेतन, सुरक्षा लाभ, स्वास्थ्य सुविधाएं, और पेंशन योजनाएं।

गिग वर्कर्स के लिए झारखंड सरकार की पहल 

गिग वर्कर्स की हालात की बेहतरी तथा कल्याण के लिए झारखंड सरकार ने महत्वपूर्ण पहल की है। राजस्थान के बाद यह दूसरा राज्य है जहां गिग वर्कर्स के लिए कानून बनाए गये हैं। गिग वर्कर्स के लिए बने इस विशेष कानून झारखंड प्लेटफ़ॉर्म आधारित गिग वर्कर्स (पंजीकरण एवं कल्याण) अधिनियम, 2025 में कंपनियों के पंजीकरण को अनिवार्य बनाया गया है। 

इस कानून के तहत अस्थायी काम करने वाले श्रमिकों जैसे डिलीवरी बॉय, कैब ड्राइवर और ऐप-आधारित सेवाओं में काम करने वालों को अब सामाजिक सुरक्षा मिलेगी। इसमें दुर्घटना बीमा कवर, पेंशन और अन्य कल्याणकारी योजनाओं का प्रावधान है। सरकार का कहना है कि यह कदम श्रमिकों को सुरक्षा कवच देने में मददगार साबित होगा। अनुमान है कि पूरे झारखंड के विभिन्न जिलों में लगभग 12 लाख लोग ऐसे कामों में लगे हैं। 
अधिनियम में प्रावधान किया गया है कि ऐसे श्रमिकों का पंजीकरण करने के लिए एक प्लेटफॉर्म विकसित किया जाएगा और प्रत्येक को एक यूनिक आईडी जारी की जाएगी। गिग वर्कर्स के मामलों की सुनवाई के लिए “झारखंड प्लेटफॉर्म बेस्ड गिग वर्कर्स वेलफेयर बोर्ड” का गठन किया जाएगा। राज्य में जितने भी गिग वर्कर्स हैं, उनका ऑनलाइन/ऑफलाइन पंजीकरण होगा। इससे राज्य सरकार के पास सटीक आँकड़े होंगे और गिग वर्कर्स की पहचान तय होगी। 
पंजीकृत गिग वर्कर्स को स्वास्थ्य बीमा, दुर्घटना बीमा, पेंशन जैसी योजनाओं से जोड़ने का प्रावधान है। अगर किसी वर्कर का आईडी निलंबित होता है या अन्याय होता है तो वह शिकायत कर सकेगा।एक शिकायत निवारण कोषांग बनाया गए है। कामगारों को कमाई का एक न्यूनतम सुरक्षा गारंटी सुनिश्चित करने पर जोर दिया गया है। कंपनियों को अपने टर्न ओवर का कम से कम 1.5 से 2 फीसदी राशि को लेकर राज्य सरकार कल्याण कोष बनाएगी, जिससे गिग वर्कर्स की सुविधाओं पर खर्च होगा। यह आदिनीयां अभी शुरुआती स्तर पर है, लेकिन इससे उम्मीद बंधी है कि गिग वर्कर्स को पहचान, अधिकार और सुरक्षा मिलेगी।

गिग वर्कर्स की ज़िंदगी पतंग जैसी है—अस्थिर, असुरक्षित। लेकिन अगर सरकार का यह नया कानून सही ढंग से लागू हो गया, तो यह पतंग बार-बार कटेगी नहीं, बल्कि मजबूती से आसमान में उड़ान भरेगी।

गाँव से शहर तक – सपनों की उड़ान

गिग वर्कर्स में ज्यादातर ऐसे युवा हैं जो सुनहरे सपने लेकर गांवों से रांची, जमशेदपुर, धनबाद जैसे बड़े शहरों या अपने ही जिले के शहरी इलाकों में पढ़ने, प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी या कोचिंग करने आते हैं। इनकी कोशिश रहती है कि घर पर बिना अतिरिक्त बोझ दिए वी अपने सपनों को उड़ान दे सकें। वह सोचता है कि शहर जाकर कुछ मेहनत करेगा, मोबाइल एप से जुड़ जाएगा, बाइक चलाएगा और जल्दी पैसे कमा लेगा। घर की टूटी हुई दीवारों को पक्का करेगा, बहन की पढ़ाई आगे बढ़ाएगा, माँ को ढंग की दवा दिलाएगा।

लेकिन यह सपना, पतंग की तरह है। कसकर पकड़ने की कोशिश करते ही हवा का झोंका डोर काट देता है, और जीवन फिर से ज़मीन पर गिर पड़ता है। क्विक कॉमर्स और गिग इकॉनमी ने युवाओं को चमक दिखाई, पर गारंटी नहीं दी। एक मोबाइल स्क्रीन पर "डिरेजिस्टर" क्लिक भर से उनकी रोज़ी-रोटी खत्म हो जाती है। यह सबसे कठोर सच्चाई है।

श्रमिक संगठन क्या कहते हैं?

श्रमिक संगठनों का कहना है—गिग वर्क ने पारंपरिक नौकरी की स्थिरता खत्म कर दी है। पहले नौकरी में कुछ सुरक्षा होती थी—छुट्टियाँ, स्वास्थ्य बीमा, पेंशन। अब कंपनी कहती है, “हमारे कर्मचारी नहीं हो, बस पार्टनर हो।” आल इंडिया गिग वर्कर्स यूनियन के प्रतीक मिश्रा कहते हैं कि यह पार्टनरशिप असल में शोषण का नया तरीका है—जहाँ कंपनी मुनाफा लेती है और गिग वर्कर जोखिम उठाता है। आंदोलन करना किसी क्षेत्र के कामगारों के लिए एक मुश्किल प्रक्रिया है। ऐप्प आधारित कंपनियों की होम डिलीवरी करने वाले के लिए समस्या और जटिल हो जाती है। ना ही प्रबंधन का कोई तय ऑफिस है, ना कोई फैक्ट्री। ऐसे कामगारों के लिए सड़क ही कार्यस्थल है। 

क्विक कॉमर्स के नाम पर बनी यह नई अर्थव्यवस्था श्रमिक को केवल ‘एप पर मौजूद आईडी’ में बदल रही है। यह आईडी किसी भी सामाजिक सुरक्षा से रहित है। लेकिन झारखंड सरकार का 2025 का अधिनियम इस खेल का जवाब है। यह कहता है कि गिग वर्कर कोई अदृश्य डेटा पॉइंट नहीं, बल्कि इंसान है—जिसके भी सपने हैं, परिवार है और अधिकार भी। यदि यह पहल सफल होती है, तो आने वाले समय में गिग इकॉनमी केवल मुनाफे का मॉडल नहीं होगी, बल्कि उसमें सम्मान और सुरक्षा भी जुड़ जाएगी।
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